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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 8
    ऋषिः - रेनुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    शुचि॑: पुना॒नस्त॒न्व॑मरे॒पस॒मव्ये॒ हरि॒र्न्य॑धाविष्ट॒ सान॑वि । जुष्टो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वा॒यवे॑ त्रि॒धातु॒ मधु॑ क्रियते सु॒कर्म॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शुचिः॑ । पु॒ना॒नः । त॒न्व॑म् । अ॒रे॒पस॑म् । अव्ये॑ । हरिः॑ । नि । अ॒धा॒वि॒ष्ट॒ । सान॑वि । जुष्टः॑ । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । वा॒यवे॑ । त्रि॒ऽधातु॑ । मधु॑ । क्रि॒य॒ते॒ । सु॒कर्म॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुचि: पुनानस्तन्वमरेपसमव्ये हरिर्न्यधाविष्ट सानवि । जुष्टो मित्राय वरुणाय वायवे त्रिधातु मधु क्रियते सुकर्मभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुचिः । पुनानः । तन्वम् । अरेपसम् । अव्ये । हरिः । नि । अधाविष्ट । सानवि । जुष्टः । मित्राय । वरुणाय । वायवे । त्रिऽधातु । मधु । क्रियते । सुकर्मऽभिः ॥ ९.७०.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुकर्मभिः) सुन्दरकृत्यैः (त्रिधातु) कफवातपित्तात्मकं (अरेपसम्) पापशून्यं (तन्वम्) शरीरम् (मित्राय वरुणाय वायवे) अध्यापकत्वोपदेशकत्वकर्मयोगित्वसम्पादनाय (मधु क्रियते) यः संस्करोति स पुरुषः (अव्ये सानवि) सर्वरक्षकस्य परमात्मनः स्वरूपे (न्यधाविष्ट) स्थिरो भवति। यः परमात्मा (हरिः) पापानां नाशकोऽस्ति। अथ च (शुचिः) पवित्रोऽस्ति। तथा (पुनानः) पावकः (जुष्टः) प्रीत्या संसेवनीयोऽस्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुकर्मभिः) सुन्दर कर्मों से (त्रिधातु) कफ वात पित्तात्मक (अरेपसम्) पापरहित (तन्वम्) शरीर (मित्राय वरुणाय वायवे) अध्यापक उपदेशक और कर्मयोगी बनने के लिये (मधु क्रियते) जिसने संस्कृत किया है, वह पुरुष (अव्ये सानवि) सर्वरक्षक परमात्मा के स्वरूप में (न्यधाविष्ट) स्थिर होता है। जो परमात्मा (हरिः) पापों का हरण करनेवाला है और (शुचिः) पवित्र है तथा (पुनानः) पवित्र करनेवाला है और (जुष्टः) प्रीति से सेव्य है ॥८॥

    भावार्थ

    जो लोग अपने इन्द्रियसंयम द्वारा वा यज्ञादि कर्मों द्वारा इस शरीर का संस्कार करते हैं, वे मानो इस शरीर को मधुमय बनाते हैं। जैसे कि “महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः” इत्यादि वाक्यों में यह कहा है कि अनुष्ठान से पुरुष इस तनु को ब्राह्मी अर्थात् ब्रह्मा से सम्बन्ध रखनेवाली बना लेता है। इसी भाव का उपदेश इस मन्त्र में किया गया है ॥८॥

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    विषय

    त्रिधातु मधु

    पदार्थ

    [१] (शुचिः) = पवित्र (हरिः) = दुःखों का हरण करनेवाला सोम (अरेपसम्) = निर्दोष (तन्वम्) = शरीर को (पुनानः) = पवित्र करता हुआ (अव्ये) = अपना रक्षण करनेवाले पुरुष के (सानवि) = मस्तिष्क रूप शिखर प्रदेश में (न्यधाविष्ट) = निश्चय से गतिवाला होता है। यह 'अव्य' ऊर्ध्वरेता बनता है। इसके शरीर में रेतःकण ऊर्ध्वगतिवाले होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं । [२] (मित्राय) = मित्र के लिये (वरुणाय) = वरुण के लिये तथा (वायवे) = वायु के लिये (जुष्टः) = प्रीतिपूर्वक सेवित हुआ हुआ यह सोम (सुकर्मभिः) = उत्तम कर्मोंवाले पुरुषों से 'त्रिधातु मधु' तीनों को धारण करनेवाला मधु (क्रियते) = बनाया जाता है। यह सुरक्षित सोम हमें सबके प्रति स्नेहवाला बनाता है, यह हमें द्वेष से दूर करता है तथा क्रियाशील बनाता है [वा गतौ]। इस प्रकार यह सोम हमारे जीवन में 'मित्र, वरुण व वायु' की स्थापना करता है। ऐसा करने से यह 'त्रिधातु मधु' कहलाता है । इस मधु के रक्षण का उपाय यही है कि हम उत्तम कर्मों में लगे रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर को निर्दोष करता हुआ मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला होता है। यह हमारे जीवनों में 'स्नेह, निर्देषता व क्रियाशीलता' को स्थापित करता हुआ 'त्रिधातु मधु' कहलाता है।

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    विषय

    ज्ञानी का आमरण अभिषेक और मधुपर्कादि से आदर।

    भावार्थ

    (हरिः) उत्तम मनुष्य, सब दुःखों का हरण करने वाला, (शुचिः) शुद्ध पवित्र आचारवान् होकर (तन्वम्) अपने शरीर को (अरेपसम्) निष्पाप (पुनानः) स्वच्छ करता हुआ (अव्ये) उत्तम रक्षक वा ज्ञानी के योग्य (सानौ) उच्च पद पर (नि अधाविष्ट) निश्चित रूप से अभिषिक्त किया जाय। वह (मित्राय) स्नेह करने वाले, (वरुणाय) सर्वश्रेष्ठ और (वायवे) वायुवद् बलवान् प्रभु का (जुष्टः) प्रिय भक्त हो। उसके लिये (सु-कर्मभिः) उत्तम कर्मवान् पुरुषों द्वारा (त्रिधातु मधु क्रियते) मन, वाणी और कर्म द्वारा तीन प्रकारों से धारण करने योग्य मधुपर्कवत् मधुर, सुखप्रद ज्ञान का उपदेश किया जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pure, purifying and sanctifying the holy man in body, the protective and gracious Soma spirit of divinity is enshrined on top of the holy man’s inviolable being, loved and adored for the sake of the spirit of friendship, veneration for judgement and vibrant enthusiasm for life, and then honey sweets of triple powers for body, mind and spirit are created by men of holy action.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक आपल्या इंद्रियसंयमाद्वारे किंवा यज्ञ इत्यादी कर्मांद्वारे या शरीराचा संस्कार करतात. ते जणू या शरीराला मधुमय बनवितात. जसे ‘‘महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:’’ इत्यादी वाक्यात हे म्हटले आहे की अनुष्ठानाने पुरुष या तनूला ब्राह्मी अर्थात ब्रह्माशी संबंध ठेवणारा बनवितो याच भावाचा उपदेश या मंत्रात केलेला आहे. ॥८॥

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