ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 5
स म॑र्मृजा॒न इ॑न्द्रि॒याय॒ धाय॑स॒ ओभे अ॒न्ता रोद॑सी हर्षते हि॒तः । वृषा॒ शुष्मे॑ण बाधते॒ वि दु॑र्म॒तीरा॒देदि॑शानः शर्य॒हेव॑ शु॒रुध॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसः । म॒र्मृ॒जा॒नः । इ॒न्द्रि॒याय॑ । धाय॑से । आ । उ॒भे इति॑ । अ॒न्तरिति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । ह॒र्ष॒ते॒ । हि॒तः । वृषा॑ । शुष्मे॑ण । बा॒ध॒ते॒ । वि । दुः॒ऽम॒तीः । आ॒देदि॑शानः । श॒र्य॒हाऽइ॑व । शु॒रुधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स मर्मृजान इन्द्रियाय धायस ओभे अन्ता रोदसी हर्षते हितः । वृषा शुष्मेण बाधते वि दुर्मतीरादेदिशानः शर्यहेव शुरुध: ॥
स्वर रहित पद पाठसः । मर्मृजानः । इन्द्रियाय । धायसे । आ । उभे इति । अन्तरिति । रोदसी इति । हर्षते । हितः । वृषा । शुष्मेण । बाधते । वि । दुःऽमतीः । आदेदिशानः । शर्यहाऽइव । शुरुधः ॥ ९.७०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मर्मृजानः) सर्वपूज्यः (दुर्मतीः शुरुधः) दुष्टप्रकृतीनामसुराणां (आदेदिशानः) शिक्षकः (वृषा) आमोदवर्षकः (उभे रोदसी) द्यावापृथिव्योर्द्वयोर्लोकयोः (अन्तर्हितः) मध्ये विराजमानः (सः) स परमात्मा (इन्द्रियाय) इन्द्रियाणां (धायसे) धारणकर्त्रे बलाय (आ हर्षते) सर्वत्र विराजमानोऽस्ति। अथ च (शुष्मेण) शत्रुनाशकेन बलेन (वि बाधते) दुष्टान् पीडयति। (शर्यहेव) यथा योद्धा प्रतिपक्षस्थितं स्वशत्रुं हन्ति तथा परमेश्वरो दुराचारिविघ्नकारिराक्षसान् हिनस्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मर्मृजानः) सर्वपूज्य (दुर्मतीः शुरुधः) दुष्टप्रकृतिवाले असुरों को (आदेदिशानः) शिक्षा देनेवाला (वृषा) आनन्द का वर्षक (उभे रोदसी) द्युलोक और पृथ्वीलोक दोनों के (अन्तर्हितः) मध्य में विराजमान (सः) वह परमात्मा (इन्द्रियाय) इन्द्रियों के (धायसे) धारण करनेवाले बल के लिये (आ हर्षते) सर्वत्र विराजमान है और (शुष्मेण) अपने बल से (वि बाधते) दुष्टों को पीड़ा देता है। (शर्यहेव) जैसे बाणों से योद्धा अपने प्रतिपक्षी को मारता है, उसी प्रकार परमात्मा दुराचारी और विघ्नकारी राक्षसों को मारता है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा अपने सच्चिदानन्दरूप से सर्वत्रैव परिपूर्ण हो रहा है और वह अपनी दमनरूप शक्ति से दुष्टों को दमन करके सत्पुरुषों का उद्धार करता है ॥५॥
विषय
इन्द्रियाय - धायसे
पदार्थ
[१] (सः) = वह सोम (मर्मृजान:) = शुद्ध किया जाता हुआ, अर्थात् वासनाओं से मलिन न होता हुआ (इन्द्रियाय) = सब इन्द्रियों की शक्ति के लिये होता है। यह (धायसे) = धारण के लिये होता है, शरीर, मन व बुद्धि सभी का यह धारण करता है । (उभे रोदसी अन्तः) = दोनों द्यावापृथिवी, मस्तिष्क व शरीर के अन्दर (हितः) = स्थापित हुआ हुआ (आहर्षते) = उन्हें आनन्दित करता है, शरीर को स्वस्थ बनाता है और मस्तिष्क को दीप्त करता है । [२] (वृषा) = यह शक्तिशाली सोम (दुर्मती:) = दुष्ट बुद्धियों को शुष्मेण शत्रुशोषक बल से विवाधते विशिष्ट रूप से बाधित करता है । सोमरक्षण से काम, क्रोध, लोभ आदि के बाधन से दुर्मति विनष्ट होकर हमारे में सुमति का प्रादुर्भाव होता है। यह (शर्यहा इव) = हनन-साधन इषुओं से प्रतिभयों के हनन करनेवाले योद्धा की तरह यह सोम (शुरुधः) = [ शुचा रुन्धन्ति ] शोकग्रस्त करनेवाली आसुरभावनाओं को (आदेदिशानः) = आह्वान करता हुआ सोम दूर भगाता है [ पुनः पुनः आह्वयन् हन्ति सा० ] ।
भावार्थ
भावार्थ-रक्षित सोम हमारी इन्द्रियों के बल के लिये होता है व धारण के लिये होता है, यह शरीर व मस्तिष्क को शक्तिशाली बनाता है। दुर्मति को दूर करता है और वासनाओं को दूर भगाता है ।
विषय
ब्रह्मचारी का राजा के तुल्य नियमबद्ध होकर राजा के दुष्ट दमन के तुल्य अन्तः शत्रुओं का दमन।
भावार्थ
(सः) वह (धायसे) सब को धारण करने वाले (इन्द्रियाय) इन्द्र, परमेश्वर वा आत्मा को प्रिय लगने वाले परमैश्वर्ययुक्त शासन वा मोक्ष आदि पद के प्राप्त करने के लिये (मर्मृजानः) अभिषिक्त, शुद्ध पवित्र होकर (रोदसी अन्तः) आकाश और भूमि के बीच सूर्य के तुल्य शासक और शास्य प्रजाओं के बीच शास्ता राजा के तुल्य (रोदसी उभे अन्तः) माता पिता के तुल्य पूज्य जनों के बीच वा दोनों को (हितः) स्थापित वा नियमबद्ध होकर (आ हर्षते) स्वयं हर्षित होता और उनको भी हर्षित करता है। (शुरुधः शर्यहा इव) शत्रु-सेनाओं को जिस प्रकार बाणों द्वारा मारने वाला धनुर्धर मारता है उसी प्रकार वह (आदेदि-शानः) सर्वत्र ज्ञानोपदेश करता हुआ, (वृषा) बलवान्, मेघ के तुल्य उदार होकर (शुष्मेण) अपने बल से, (दुर्मती वि बाधते) दुष्ट विचारों, संकल्पों और दुष्ट बुद्धियों को वा बुरी मति वाले दुष्ट पुरुषों को विविध प्रकार से पीड़ित कर नष्ट करता है। इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
He, adorable and exalted, pervades and abides in both heaven and earth and in the middle regions, happy, blissful and generous with showers of joy for humanity for their honour and exaltation, to help them to wield their potential efficiently. With divine power, he warns men of negative understanding, even commanding them like a warrior who wards off the evil and finally destroys the forces of violence and destruction.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर आपल्या सच्चिदानंदरूपाने सर्वत्र परिपूर्ण होत आहे व तो आपल्या दमनरूप शक्तीने दुष्टांचे दमन करून सत्पुरुषांचा उद्धार करतो. ॥५॥
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