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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पवित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प॒वित्र॑वन्त॒: परि॒ वाच॑मासते पि॒तैषां॑ प्र॒त्नो अ॒भि र॑क्षति व्र॒तम् । म॒हः स॑मु॒द्रं वरु॑णस्ति॒रो द॑धे॒ धीरा॒ इच्छे॑कुर्ध॒रुणे॑ष्वा॒रभ॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒वित्र॑ऽवन्तः । परि॑ । वाच॑म् । आ॒स॒ते॒ । पि॒तआ । ए॒षा॒म् । प्र॒त्नः । अ॒भि । र॒क्ष॒ति॒ । व्र॒तम् । म॒हः । स॒मु॒द्रम् । वरु॑णः । ति॒रः । द॒धे॒ । धीराः॑ । इत् । शे॒कुः॒ । ध॒रुणे॑षु । आ॒ऽरभ॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवित्रवन्त: परि वाचमासते पितैषां प्रत्नो अभि रक्षति व्रतम् । महः समुद्रं वरुणस्तिरो दधे धीरा इच्छेकुर्धरुणेष्वारभम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पवित्रऽवन्तः । परि । वाचम् । आसते । पितआ । एषाम् । प्रत्नः । अभि । रक्षति । व्रतम् । महः । समुद्रम् । वरुणः । तिरः । दधे । धीराः । इत् । शेकुः । धरुणेषु । आऽरभम् ॥ ९.७३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवित्रवन्तः) पुण्यकर्माणः कर्मयोगिनः (परिवाचम्) वेदवाचं (आसते) आश्रयन्ति (एषाम्) अमीषां कर्मयोगिनां (प्रत्नः) प्राचीनः (पिता) परमात्मा (व्रतम्) एषां सद्व्रतं (अभिरक्षति) रक्षति। अथ च तदभिमुखं (महः समुद्रम्) महान्तं संसारसागरमिमं (वरुणम्) वरुणरूपेण स्वतरङ्गेषु निमज्जयितुमुद्यतं (तिरः दधे) परमात्मा तिरस्करोति। तथा (धरुणेषु) कर्मयोगज्ञानयोगादिसाधनेषु (आरभम्) आरम्भं कर्तुं (धीराः) धीराः पुरुषाः (इत्) एव (शेकुः) समर्था भवन्ति, नान्ये ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवित्रवन्तः) उक्त पुण्य कर्मवाले कर्मयोगी (परिवाचम्) वेदरूपी वाणी का (आसते) आश्रयण करते हैं। (एषाम्) इन कर्मयोगियों का (प्रत्नः) प्राचीन (पिता) परमात्मा (व्रतम्) इनके व्रत की (अभिरक्षति) रक्षा करता है और उनके सामने (महः समुद्रम्) इस बड़े संसाररूप सागर को (वरुणम्) जो वरुणरूप अपनी लहरों में डुबा लेने के लिये उद्धत है, उसको (तिरः दधे) परमात्मा तिरस्कार कर देता है। (धरुणेषु) उक्त कर्मयोग और ज्ञानयोगादि साधनों में (आरभम्) आरम्भ को (धीराः) धीरपुरुष (इत्) ही (शेकुः) समर्थ होते हैं, अन्य नहीं ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करता है कि पवित्र कर्मोंवाले पुरुष वाग्मी बनते हैं और वे ही इस भवसागर की लहरों से पार हो सकते हैं, अन्य नहीं। इसी अभिप्राय से उपनिषत् में यह कहा है कि “कश्चिद्धीर आत्मानमैक्षत्” यह संसार छुरे की धार है, कोई धीर पुरुष ही इस धार का अतिक्रमण कर सकता है, अन्य नहीं। भवसागर की लहरें और छुरे की धार यह एक अत्यन्त उत्तेजना उत्पन्न करने के लिये वाणी का अलङ्कार है ॥३॥

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    विषय

    ज्ञानधारक गुरु का वर्णन।

    भावार्थ

    (पवित्रवन्तः वाचम् परि आसते) जिस प्रकार पवित्र ग्रहण कर शिष्य वक्ता गुरु के चारों ओर ज्ञान-शिक्षा ग्रहण करने के लिये विराजते हैं उसी प्रकार (पवित्रवन्तः) पवित्र हृदय और आचारवान् जन (वाचम् परि आसते) वेद के उपदेश करने वाले वेदमय प्रभु की उपासना करते हैं। वह (एषाम् प्रत्नः पिता) उन जीवों, लोकों का अनादि सिद्ध पालक प्रभु (एषां व्रतम् अभि रक्षति) इनके ज्ञान, कर्म और अन्नादि की आचार्यवत् ही रक्षा करता है। (वरुणः) सर्व श्रेष्ठ प्रभु (महः समुद्रं) बड़े भारी समुद्र के तुल्य ज्ञानसागर को (तिरः दुधे) अपने भीतर धारण करता है। (धीराः) ध्याननिष्ठ पुरुष ही (धरुणेषु) अपने धारणाशील हृदयों में उसको (आरभं शेकुः) प्राप्त कर सकते हैं।

    टिप्पणी

    तिरः सत इति प्राप्तस्य। निरुक्तम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पवित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः– १ जगती। २-७ निचृज्जगती। ८, ९ विराड् जगती ॥

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    विषय

    वाग्देवी की उपासना व सोमरक्षण

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार (पवित्रवन्तः) = पवित्र मस्तिष्क, हृदय व हाथोंवाले लोग (वाचं परि आसते) = ज्ञान की वाणियों का समन्तात् सेवन करते हैं । अर्थात् सदा स्वाध्याय करते हैं । (एषाम्) = इन स्वाध्यायशील लोगों के (व्रतम्) = इस स्वाध्याय के व्रत को (प्रत्नः) = पिता वह सनातन पिता प्रभु अभिरक्षति रक्षित करते हैं । अर्थात् प्रभु कृपा से इनका यह स्वाध्याय का व्रत टूटता नहीं । [२] (वरुणः) = अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधनेवाला यह व्यक्ति [वरुणः पाशी] (महः समुद्रम्) = इस महान् ज्ञान-समुद्र को (तिरः दधे) = अपने में तिरोहित करके धारण करता है। इस प्रकार (धीराः) = ये ज्ञान में रमण करनेवाले व्यक्ति (इत्) = ही (धरुणेषु) = सोम के धारण के होने पर आरभम् उत्तम कार्यों का प्रारम्भ करने के लिये शेकुः समर्थ होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु कृपा से स्वाध्याय के व्रत के अविच्छिन्न रूप से चलने पर सोम का रक्षण होता है। इस सोमरक्षण के होने पर ही हम किन्हीं भी महत्त्वपूर्ण कार्यों को कर पाते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Men of soma purity of mind and character, they stand by the holy voice of divinity and the dynamics of nature. The eternal father and ruler over all protects and promotes their discipline of Dharma. Just as the all enveloping space alone can cover the mighty ocean and the cosmic vapours, similarly men of stable mind only can keep original human commitment in matters of cosmic law.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो की पवित्र कर्म करणारे पुरुषच वाग्मी (वाक्चतुर:) बनतात व तेच या भवसागराच्या लाटातून पार पडू शकतात, अन्य नाही. याच अभिप्रायाने उपनिषदात हे म्हटले आहे की ‘‘कश्चिद्धीर आत्मानमैक्षत’’ हा संसार सुरीप्रमाणे धारदार आहे. एखादाच पुरुष या धारेचे अतिक्रमण करू शकतो, सर्व नाही. भवसागराच्या लाटा व सुरीची धार ही एक अत्यंत उत्तेजना उत्पन्न करण्यासाठी वाणीचा अलंकार आहे. ॥३॥

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