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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 73/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पवित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स॒हस्र॑धारे॒ वित॑ते प॒वित्र॒ आ वाचं॑ पुनन्ति क॒वयो॑ मनी॒षिण॑: । रु॒द्रास॑ एषामिषि॒रासो॑ अ॒द्रुह॒: स्पश॒: स्वञ्च॑: सु॒दृशो॑ नृ॒चक्ष॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽधारे । विऽत॑ते । प॒वित्रे॑ । आ । वाच॑म् । पु॒न॒न्ति॒ । क॒वयः॑ । म॒नी॒षिणः॑ । रु॒द्रासः॑ । ए॒षा॒म् । इ॒षि॒रासः॑ । अ॒द्रुहः॑ । स्पशः॑ । सु॒ऽअञ्चः॑ । सु॒ऽदृशः॑ । नृ॒ऽचक्ष॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रधारे वितते पवित्र आ वाचं पुनन्ति कवयो मनीषिण: । रुद्रास एषामिषिरासो अद्रुह: स्पश: स्वञ्च: सुदृशो नृचक्षसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽधारे । विऽतते । पवित्रे । आ । वाचम् । पुनन्ति । कवयः । मनीषिणः । रुद्रासः । एषाम् । इषिरासः । अद्रुहः । स्पशः । सुऽअञ्चः । सुऽदृशः । नृऽचक्षसः ॥ ९.७३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 73; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (नृचक्षसः) कर्मयोगी तथा (सुदृशः) ज्ञानयोगी (स्वञ्चः) गतिशीलस्तथा (स्पशः) मेधावान् (अद्रुहः) अद्रोग्धा (इषिरासः) गमनशीलः (रुद्रासः) परमात्मनो न्यायपालनाय रुद्ररूपो भवति। (एषाम्) ज्ञानयोगिकर्मयोगिनां सदैव परमात्मा रक्षको भवति। अथ च ते (सहस्रधारे वितते) अत्यन्तानन्दमये विस्तृते (पवित्रे) पूते परमात्मनि (वाचम् आ पुनन्ति) स्वीयवाचं तस्योपासनया पवित्रयन्ति। पूर्वोक्ता विद्वांस एव (मनीषिणः) मनस्विनस्तथा (कवयः) क्रान्तदर्शिनो भवन्ति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (नृचक्षसः) कर्मयोगी और (सुदृशः) ज्ञानयोगी (स्वञ्चः) गतिशील और (स्पशः) बुद्धिमान् (अद्रुहः) किसी के साथ द्रोह न करनेवाले हैं तथा (इषिरासः) गमनशील (रुद्रासः) परमात्मा के न्याय पालन करने के लिये रूद्ररूप होते हैं (एषां) उक्तगुणसम्पन्न पुरुषों का परमात्मा सदैव रक्षक होता है और वे लोग (सहस्रधारे वितते) अनन्त आनन्दमय विस्तृत (पवित्रे) पवित्र परमात्मा में (वाचम् आ पुनन्ति) अपनी वाणी को उसकी स्तुति द्वारा पवित्र करते हैं। उक्त प्रकार के विद्वान् ही (मनीषिणः) मनस्वी और (कवयः) क्रान्तदर्शी होते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    जो लोग परमात्मा के स्वरूप में चितवृत्ति को लगाकर अपने आपको पवित्र करते हैं, वे ही कर्मयोगी और ज्ञानयोगी बन सकते हैं, अन्य नहीं  ॥७॥

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    विषय

    प्रभु का पथ पवित्र वेदज्ञान के अभ्यास से वाणी का पवित्र होना और विद्वानों के सद्गुण।

    भावार्थ

    (वितते सहस्र-धारे) अति विस्तृत, दश सहस्र वाणी वा ऋचाओं से युक्त ऋग्वेदमय (पवित्रे) अति पवित्र ज्ञानसागर में वा सहस्रों धारक शक्तियों से युक्त, व्यापक, परमपावन ज्ञानमय प्रभु (मनीषिणः) मननशील, मनस्वी (कवयः) क्रान्तदर्शी और तत्वज्ञानी और वाग्मी लोग (वाचम् आ पुनन्ति) अपनी वाणी का प्रयोग कर उसको भी पवित्र कर लेते हैं। (एषाम्) इनमें से जो (रुद्रासः) प्रजाओं को मर्यादा में रोकने वाले, वा उत्तम उपदेष्टा प्रजाजनों के रोग-पीड़ाओं को हरने वाले (इषिरासः) अन्यों को सन्मार्ग में प्रेरणा करने वाले, उपदेष्टा जन हैं वे (अद्रुहः) किसी से द्रोह न करने वाले, सब प्राणियों के प्रति द्वेषभाव से रहित, (सु-अञ्चः) उत्तम पूजा योग्य, सुख प्राप्त कराने वाले (सु-दृशः) उत्तम विवेकदर्शी, सौम्य नयन, और (नृ-चक्षसः) मनुष्यों के हिताहित देखने वाले हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पवित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः– १ जगती। २-७ निचृज्जगती। ८, ९ विराड् जगती ॥

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    विषय

    अद्रुहः - सुदृशः - नृचक्षसः

    पदार्थ

    [१] (सहस्त्रधारे) = हजारों प्रकार से धारण करनेवाले वितते सर्वत्र विस्तृत, सर्वव्यापक, (पवित्रे) = पवित्र प्रभु में वाचम् अपनी वाणी को (आपुनन्ति) = सर्वथा पवित्र करते हैं। प्रभु की उपासना के द्वारा वाणी की पवित्रता होती ही है। ये (कवयः) = क्रान्तद्रष्टा- तत्त्वज्ञानी, (मनीषिणः) = मन पर शासन करनेवाली बुद्धिवाले होते हैं। वाणी की पवित्रता इन्हें कवि व मनीषी बनाती हैं । [२] (एषाम्) = इन कवियों व मनीषियों के (रुद्रासः) = प्राण [प्राणा वै रुद्राः जै० ८।२।७] (इषिरासः) = खूब गतिशील होते हैं, अर्थात् इन्हें प्राणशक्ति गतिमय बनाती है। (अद्रुहः) = ये अपनी गतियों के द्वारा किसी का द्रोह नहीं करते । (स्पशः) = प्राणसाधना द्वारा ये प्रभु-दर्शन में प्रवृत्त होते हैं, प्रभु के देखनेवाले होते हैं। (स्वञ्चः) = उत्तम कर्मों द्वारा प्रभु का पूजन करनेवाले होते हैं । (सुदृश) = उत्तम दृष्टिकोणवाले होते हैं। (नृचक्षसः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाले होते हैं, ये केवल अपने लिये नहीं जीते।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु में अपने को पवित्र करनेवाले लोग खूब गतिमय, द्रोहशून्य, उत्तम दृष्टिकोणवाले व सबका ध्यान करनेवाले होते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In this expansive world of a thousand streams of purity flowing on and on, men of noble thought and poetic vision create, speak and sanctify their word. Men of judgement and rectitude, they discriminate between right and wrong and the natural consequences thereof. They are dynamic, free from jealousy, penetrative observers, worthy of reverence, holy visionaries and constant watchers of humanity

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक परमात्म्याच्या स्वरूपात चित्तवृत्ती स्थिर करून स्वत:ला पवित्र करतात, तेच कर्मयोगी व ज्ञानयोगी बनू शकतात, इतर नव्हे. ॥७॥

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