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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 73/ मन्त्र 8
    ऋषिः - पवित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    ऋ॒तस्य॑ गो॒पा न दभा॑य सु॒क्रतु॒स्त्री ष प॒वित्रा॑ हृ॒द्य१॒॑न्तरा द॑धे । वि॒द्वान्त्स विश्वा॒ भुव॑ना॒भि प॑श्य॒त्यवाजु॑ष्टान्विध्यति क॒र्ते अ॑व्र॒तान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तस्य॑ । गो॒पाः । न । दभा॑य । सु॒ऽक्रतुः॑ । त्री । सः । प॒वित्रा॑ । हृ॒दि । अ॒न्तः । आ । द॒धे॒ । वि॒द्वान् । सः । विश्वा॑ । भुव॑ना । अ॒भि । प॒श्य॒ति॒ । अव॑ । अजु॑ष्टान् । वि॒ध्य॒ति । क॒र्ते । अ॒व्र॒तान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतस्य गोपा न दभाय सुक्रतुस्त्री ष पवित्रा हृद्य१न्तरा दधे । विद्वान्त्स विश्वा भुवनाभि पश्यत्यवाजुष्टान्विध्यति कर्ते अव्रतान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतस्य । गोपाः । न । दभाय । सुऽक्रतुः । त्री । सः । पवित्रा । हृदि । अन्तः । आ । दधे । विद्वान् । सः । विश्वा । भुवना । अभि । पश्यति । अव । अजुष्टान् । विध्यति । कर्ते । अव्रतान् ॥ ९.७३.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 73; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋतस्य गोपाः) सत्यस्य रक्षकः (सुक्रतुः) शोभनकर्मी (न दभाय) यः परैरदम्भनीयः (सः) असौ कर्मयोगी (पवित्रा) पवित्रे स्वकीये (हृद्यन्तः) अन्तःकरणे (त्री) परमात्मनः उत्पत्तिस्थितिप्रलयरूपास्तिस्रः शक्तीः (आ दधे) आदधाति। (स विद्वान्) असौ पण्डितः कर्मयोगी (विश्वा भुवना) सम्पूर्णानि लोकलोकान्तराणि (अभि पश्यति) अवलोकयति। अथ च (कर्ते) कर्तव्ये (अव्रतान्) अव्रतिनः (अजुष्टान्) परमात्मनो वियुक्तान् (अवविध्यति) हिनस्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋतस्य गोपाः) सचाई की रक्षा करनेवाला (सुक्रतुः) शोभन कर्मोंवाला कर्मयोगी (न दभाय) जो किसी से दबाया नहीं जाता (सः) वह (पवित्रा) अपने पवित्र (हृद्यन्तः) अन्तःकरण में (त्री) परमात्मा की उत्पति-स्थिति-प्रलयरूप तीनों शक्तियों को (आ दधे) धारण करता है। (स विद्वान्) वह विद्वान् पुरुष (विश्वा भुवना) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को (अभि पश्यति) देखता है और (कर्ते) कर्तव्य में (अव्रतान्) जो अव्रती (अजुष्टान्) और परमात्मा से वियुक्त हैं, उनको (अवविध्यति) मारता है ॥८॥

    भावार्थ

    जो लोग परमात्मा पर अटल विश्वास रखनेवाले हैं, वे किसी से दबाये नहीं जा सकते हैं ॥८॥

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    विषय

    न्याय-शासक का रूप और कर्त्तव्य। पक्षान्तर में प्रभु परमेश्वर का न्याय शासन।

    भावार्थ

    न्याय-शासक का रूप और कर्त्तव्य। वह (ऋतस्य गोपाः) सत्य, तेज, न्याय और यज्ञ का रक्षक, (सु-क्रतुः) उत्तम कर्म और ज्ञान से सम्पन्न शास्ता, प्रभु (न दभाय) किसी को पीड़ा वा छलने के लिये नहीं हो। (सः) वह (त्री पवित्रा) मन, वाणी और कर्म तीनों को पवित्र, रूप में वा तीनों वेदों को (हृदि अन्तः) हृदय के बीच (आ दधे) धारण करे। (सः विद्वान्) वह ज्ञानी (विश्वा भुवना अभि पश्यति) समस्त-जनों और लोकों को प्रभुवत्, सब प्रकार से देखे, न्याय का अनुशासन करे। और (अजुष्टान्) प्रजा जनों से अप्रीतियुक्त, उनके द्वेषी (अव्रतान्) व्रत, नियम, कर्मादि से रहित, नीच, अपराधी, दुष्ट पुरुषों को (कर्त्ते) गढ़े में रख कर दण्ड-व्यवस्था में रख कर (अव विध्यति) उनको शरीर के छेदन-भेदन करने योग्य दण्ड से, अपमानपूर्वक दण्डित करे। (२) इसी प्रकार प्रभु परमेश्वर सत्य का पालक, हृदय में तीनों पवित्र वेदों ऋक्, साम, यजु; मन्त्र, गानप्रकार और कर्म द्योतक गद्यांश तीनों को हृदय में प्रकाशित करता है, वह सर्वद्रष्टा है, वह (कर्त्ते अजुष्टान् अवतान्) अभक्त, सत् कर्मों में न लगे लोगों को भी (अव विध्यति) निची योनियों में गिरा कर दण्डित करता है।

    टिप्पणी

    ‘कर्त्ते’–गर्ते। कृन्तन योग्यच्छेदनभेदनरूपे कर्मणि वा करोतेर्वौणादिके तपरे कर्त्तं कर्म तस्मिन्। कर्ते कर्मणि अजुष्टान्। अथवा कर्त्ते अवविध्यति इत्युभयत्र योजना।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पवित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः– १ जगती। २-७ निचृज्जगती। ८, ९ विराड् जगती ॥

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    विषय

    ऋतस्य गोपाः न दभाय

    पदार्थ

    [१] (ऋतस्य) = ऋत का, सत्य व यज्ञ का (गोपाः) = रक्षक (न दभाय) = हिंसित नहीं होता । (स सुक्रतुः) = वह उत्तम कर्मों का करनेवाला (हृदि अन्तः) = हृदय के अन्दर भी (पवित्रा) = तीन पवित्र भावनाओं को - 'प्रेम, करुणा व त्याग की वृत्ति को' आदधे धारण करता है। इसके हृदय में 'काम' के स्थान में 'प्रेम' होता है, 'क्रोध' के स्थान में 'करुणा' तथा 'लोभ' के स्थान 'त्याग' की भावना होती है । [२] यह ऋत का रक्षक इस बात को नहीं भूलता कि विद्वान् ज्ञानी (सः) = वे (विश्वा भुवनानि) = सब लोकों को (पश्यन्) = देखते हुए प्रभु अजुष्टान् यज्ञादि कर्मों का प्रीतिपूर्वक सेवन न करनेवाले (अव्रतान्) = सब पुण्य कर्मों से रहित व्यक्तियों को कर्ते गड्ढे में (अवविध्यति) = अवाङ्मुख ताड़ित करते हैं, अर्थात् इन्हें आसुरी योनियों में जन्म देते हैं, असुर्य लोकों में डालते हैं। मनुष्य योनि को न प्राप्त करके ये पशु-पक्षियों की योनि में जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋत [सत्य] के रक्षक के हृदय में 'प्रेम, करुणा व त्याग' होता है। यह इस बात का स्मरण रखता है कि प्रभु अव्रत लोगों को नीच योनियों में जन्म देते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The man of universal truth, guardian of law, is undaunted, he is not for fear, nor for deceit. Pure at heart and holy of action, he maintains that strength and purity in his threefold conduct in thought, word and deed. Man of knowledge, vision and practical wisdom, he overwatches the entire regions of the world, brings to book the sceptics and the uncommitted, and fixes the saboteurs and the violators of law.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक परमेश्वरावर अढळ विश्वास ठेवतात त्यांचे कोणी दमन करू शकत नाही. ॥८॥

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