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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पवित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    पि॒तुर्मा॒तुरध्या ये स॒मस्व॑रन्नृ॒चा शोच॑न्तः सं॒दह॑न्तो अव्र॒तान् । इन्द्र॑द्विष्टा॒मप॑ धमन्ति मा॒यया॒ त्वच॒मसि॑क्नीं॒ भूम॑नो दि॒वस्परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒तुः मा॒तुः । अधि॑ । आ । ये । स॒म्ऽअस्व॑रन् । ऋ॒चा । शोच॑न्तः । स॒म्ऽदह॑न्तः । अ॒व्र॒तान् । इन्द्र॑ऽद्विष्टाम् । अप॑ । ध॒म॒न्ति॒ । मा॒यया॑ । त्वच॑म् । असि॑क्नीम् । भूम॑नः । दि॒वः । परि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पितुर्मातुरध्या ये समस्वरन्नृचा शोचन्तः संदहन्तो अव्रतान् । इन्द्रद्विष्टामप धमन्ति मायया त्वचमसिक्नीं भूमनो दिवस्परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पितुः मातुः । अधि । आ । ये । सम्ऽअस्वरन् । ऋचा । शोचन्तः । सम्ऽदहन्तः । अव्रतान् । इन्द्रऽद्विष्टाम् । अप । धमन्ति । मायया । त्वचम् । असिक्नीम् । भूमनः । दिवः । परि ॥ ९.७३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 73; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    ये मनुष्याः (पितुः मातुः) मातापित्रोः शिक्षां प्राप्य सुशिक्षिताः सन्ति अथ (ये) ये जनाः (ऋचा) वेदस्य ऋग्भिः (समस्वरन्) स्वीयजीवनयात्रां कुर्वन्ति तथा (शोचन्तोऽव्रतान्) शोकशीलानव्रतिनः (सन्दहन्तः) सम्यग्दाहकास्सन्ति तथा ये (मायया) स्वकीयापूर्वशक्त्या (इन्द्रद्विष्टाम् अप धमन्ति) ईश्वराज्ञाभञ्जकानां राक्षसानां निहन्तारस्सन्ति अथ च ये राक्षसाः (असिक्नीम्) रात्रेरन्धकारमिव (भूमनः) भूलोकस्य तथा (दिवः) द्युलोकस्य (परि) सर्वतः (त्वचम्) त्वगिव वर्तमानास्तेषां नाशकाः पितृमन्तो मातृमन्तश्च कथ्यन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    जो लोग (पितुः मातुः) पिता-माता की शिक्षा को पाकर सुशिक्षित हैं और (ये) जो लोग (ऋचा) वेद की ऋचाओं के द्वारा (समस्वरन्) अपनी जीवनयात्रा करते हैं (शोचन्तोऽव्रतान्) तथा शोकशील अव्रतियों को (सन्दहन्तः) भली-भाँति दाह करनेवाले हैं और जो (मायया) अपनी अपूर्व शक्ति से (इन्द्रद्विष्टाम् अप धमन्ति) ईश्वराज्ञा को भङ्ग करनेवाले राक्षसों का नाश करते हैं और जो राक्षस (असिक्नीम्) रात्रि के अन्धकार के समान (भूमनः) भूलोक और (दिवः) द्युलोक के (परि) चारों ओर (त्वचम्) त्वचा के समान वर्तमान हैं, उनको नाश करनेवाले पितृमान् और मातृमान् कहलाते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य इस संसार में चार प्रकार से शिक्षा को प्राप्त करता है। वे चार प्रकार ये हैं कि माता, पिता, आचार्य और गुरु। इसी अभिप्राय से उपनिषत् में कहा है कि “मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद” ॥५॥

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    विषय

    सूर्य की किरणों के तुल्य विद्यार्थियों के कर्त्तव्य। वे तेजस्वी होकर दुष्टों का नाश करें।

    भावार्थ

    जिस प्रकार रश्मियें, किरणें (पितुः मातुः अधि सम् अस्वरन्) पालक सूर्य से उत्पन्न होकर माता पृथिवी के ऊपर अधिक तेज से चमक हैं, वे (ऋचा शोचन्तः संदहन्तः) तेज से चमकते और संतप्त करते हुए, (इन्द्र-द्विष्टाम् असिक्नीं त्वचम् अप धमन्ति) सूर्य की विरोधिनी काली रात्रि को दूर करते हैं उसी प्रकार (ये) जो महापुरुष सच्चरित्र जन हैं वे (पितुः मातुः अधि) पिता से और माता से वा पिता माता के तुल्य गुरु जन से (सम् अस्वरन्) अच्छी प्रकार ज्ञानोपार्जन करते हैं। वे (ऋचा शोचन्तः) ऋग्वेद के उत्तम ज्ञान से तेजोयुक्त होकर (अव्रतान्) अकर्म, विकर्मों को, वा व्रतों से भिन्न कर्मों और व्रत शून्य, कुकर्मियों को (सं-दहन्तः) पीड़ित, दुग्ध, निर्मूछ करते हुए (इन्द्रद्विष्टाम्) आत्मा, प्रभु और राजादि से असेवित, उनके अप्रीति भाजन (असिक्नीम् त्वचम्) काले, अज्ञानमय अवृद्धिशील आवरण को (अप धमन्ति) दूर करते हैं। वे ही (भूमनः) भूमा स्वरूप उस महान् (दिवः) तेजोमय, ज्ञानमय, सुखमय परमेश्वर से (परि) परम सुख को प्राप्त करते हैं। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पवित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः– १ जगती। २-७ निचृज्जगती। ८, ९ विराड् जगती ॥

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    विषय

    'पिता माता' का उपासन

    पदार्थ

    [१] प्रभु पिता है और वेद [ज्ञान] माता है 'स्तुता मया वरदा वेदमाता'। ये जो लोग (पितुः) = सब के पिता प्रभु का तथा (मातुः) = जीवन के निर्माण करनेवाली वेदमाता का (अधि आ समस्वरन्) = आधिक्येन स्तवन करते हैं, प्रभु की उपासना व वेद के अध्ययन को करते हैं, वे (ऋचा) = इन ज्ञान की वाणियों से [ऋग्वेद - विज्ञान वेद ] (शोचन्तः) = दीप्त होते हुए और (अव्रतान्) = न करने योग्य कार्यों को (सन्दहन्तः) = भस्म करते हुए होते हैं। इन पिता माता के उपासकों का जीवन ज्ञान से दीप्त होता है और अपकर्मों से रहित होता है। [२] ये लोग मायया कर्म व प्रज्ञान के द्वारा (भूमनः) = इस पृथिवी से (दिवस्परि) = और द्युलोक से अर्थात् शरीर व मस्तिष्क से (असिक्नीम्) = काली (त्वचम्) = त्वचा को आवरण को, (अपधमन्ति) = दूर कर देते हैं। शरीर व मस्तिष्क के विकारों को दूर करना ही इनकी काली त्वचा को दूर करना है। यह काली त्वचा 'इन्द्र द्विष्टाम् ' प्रभु के लिये प्रीतिकर नहीं । अर्थात् विकृत शरीर व विकृत मस्तिष्कवाला व्यक्ति कभी प्रभु का प्रिय नहीं हो सकता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु व वेदवाणी के उपासक बनें। ज्ञान से दीप्त व अपकर्मों के दूर करनेवाले हों । शरीर व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनायें ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like the rays of sunlight radiating from above to mother earth in unison, shining with their brilliance, illuminating and purifying, and burning off those pollutants which act against natural law, the soma souls of humanity acting in unison around father and mother in holy tradition, shining and sanctifying life with divine hymns, reducing and eliminating powers of negative character and habit against natural law and human values, they drive off and eliminate the defilers and violators of cosmic law, and, with the knowledge and power of the light of great heaven, they remove the veil of the darkness of ignorance.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस या जगात चार प्रकाराने शिक्षण प्राप्त करतो. ते चार प्रकार हे आहेत. माता, पिता, आचार्य व गुरू. उपनिषदात म्हटले आहे ‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद’ ॥५॥

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