ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 85/ मन्त्र 5
कनि॑क्रदत्क॒लशे॒ गोभि॑रज्यसे॒ व्य१॒॑व्ययं॑ स॒मया॒ वार॑मर्षसि । म॒र्मृ॒ज्यमा॑नो॒ अत्यो॒ न सा॑न॒सिरिन्द्र॑स्य सोम ज॒ठरे॒ सम॑क्षरः ॥
स्वर सहित पद पाठकनि॑क्रदत् । क॒लशे॑ । गोभिः॑ । अ॒ज्य॒से॒ । वि । अ॒व्यय॑म् । स॒मया॑ । वार॑म् । अ॒र्ष॒सि॒ । म॒र्मृ॒ज्यमा॑नः । अत्यः॑ । न । सा॒न॒सिः । इन्द्र॑स्य । सो॒म॒ । ज॒ठरे॑ । सम् । अ॒क्ष॒रः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कनिक्रदत्कलशे गोभिरज्यसे व्य१व्ययं समया वारमर्षसि । मर्मृज्यमानो अत्यो न सानसिरिन्द्रस्य सोम जठरे समक्षरः ॥
स्वर रहित पद पाठकनिक्रदत् । कलशे । गोभिः । अज्यसे । वि । अव्ययम् । समया । वारम् । अर्षसि । मर्मृज्यमानः । अत्यः । न । सानसिः । इन्द्रस्य । सोम । जठरे । सम् । अक्षरः ॥ ९.८५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 85; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे जगन्नियन्तः ! (कनिक्रदत्) स्वसत्तया गर्जन् (कलशे) विदुषामन्तःकरणे (गोभिः) अन्तःकरणवृत्तिभिः (अज्यसे) साक्षाद्भवसि (अव्ययं) स्वाव्ययस्वरूपेण (समया) सह (वारं) वरणीयं ज्ञानपात्रं (अर्षसि) प्राप्तो भवसि। (मर्मृज्यमानः) साक्षात्कृतः (अत्यः, न) गत्वरपदार्थ इव (सानसिः) उपासनीयो भवान् (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (जठरे) अन्तःकरणे (सोम) हे परमात्मन् ! (समक्षरः) सम्यग् विराजमानो भवति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (कनिक्रदत्) स्वसत्ता से गर्जते हुए (कलशे) विद्वानों के अन्तःकरण में (गोभिः) अन्तःकरण की वृत्तियों से (अज्यसे) साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं। (अव्ययं) अपने अव्यय स्वरूप के (समया) साथ (वारं) वर्णनीय ज्ञान के पात्र को (अर्षसि) प्राप्त होते हैं। (मर्मृज्यमानः) साक्षात्कार को प्राप्त (अत्यो न) गतिशील पदार्थों के समान (सानसिः) उपासनायोग्य आप (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगी के (जठरे) अन्तःकरण में (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप (समक्षरः) भली-भाँति विराजमान होते हैं ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा का अविनाशीभाव जब मनुष्य के हृदय में आता है, तो मनुष्य मानों ईश्वर के समीप पहुँच जाता है। इसी का नाम परमात्मप्राप्ति है। वास्तव में परमात्मा किसी के पास चलकर नहीं आता और न किसी से दूर जाता है। इसी अभिप्राय से वेद में लिखा है कि “तद्दूरे तद्वन्तिके” अर्थात् वह अज्ञानियों से दूर और ज्ञानियों के समीप है ॥५॥
विषय
उसके अभिषेक होने की योग्यता।
भावार्थ
(कनिक्रदत्) शासन करता हुआ तू (कलशे) अभिषेक वा मङ्गल-कलश के नीचे (गोभिः) जलधाराओं और स्तुति वाणियों द्वारा (अज्यते) अभिषिक्त होता है, और (अव्ययं वारं वि अर्षसि) भेड़ के बने बालों का श्रेष्ठ वस्त्र, शास्त्र, एवं अविनाशी वा ‘अवि’ अर्थात् पृथिवी का वरणीय धन और ‘अवि’ रक्षक के योग्य (वारं) दुष्टों के वारण और प्रजा के सेवन योग्य श्रेष्ठ कार्य को (वि अर्षसि) विविध प्रकार से प्राप्त होता है। (मर्मृज्यमानः अत्यः न) स्वच्छ किये, सुभूषित अश्व के समान (सानसिः) राष्ट्र का सेवक होकर हे (सोम) शासक ! तू (इन्द्रस्य जठरे) ऐश्वर्यवान् राष्ट्र और शत्रुहननकारी सैन्य के मध्य में (सम्-अक्षरः) अच्छी प्रकार गति कर। अच्छे मार्ग वा नीति से चल।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वेनो भार्गव ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ५, ९, १० विराड् जगती। २, ७ निचृज्जगती। ३ जगती॥ ४, ६ पादनिचृज्जगती। ८ आर्ची स्वराड् जगती। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अत्यो न सानसिः
पदार्थ
[१] हे सोम ! (कनिक्रदत्) = प्रभु के नामों का उच्चारण करता हुआ तू (कलशे) = इस शरीर कलश में (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों से (अज्यसे) = अलंकृत किया जाता है । सोमरक्षण से जहाँ प्रभु- प्रवणता उत्पन्न होती है, वहाँ ज्ञानाग्नि का दीपन होकर ज्ञानवृद्धि होती है । अब तू (अव्ययम्) = उस एक रस-विविधरूपों में न जानेवाले (निर्विकारं वारम्) = वरणीय प्रभु को (समया) = समीपता से (वि अर्षसि) = विशेषरूप से प्राप्त होता है । सोमरक्षण हमें प्रभु के समीप पहुँचाता है । [२] इस प्रभु उपासना से वासना विनाश के द्वारा (मर्मृज्यमानः) = शुद्ध किया जाता हुआ तू (अत्यः न) = निरन्तर गतिशील अश्व के समान (सानसिः) = संभजनीय होता है, युद्ध विजय के लिये जैसे वह अन्य उपदेश होता है, उसी प्रकार जीवन संग्राम में विजय के लिये यह सोम उपादेय है। हे सोम ! तू (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (जठरे) = शरीर मध्य में (सम् अक्षरः) = सम्यक् क्षरित होनेवाला है। शरीर में सर्वत्र गतिवाला होता हुआ वहाँ-वहाँ की कमियों को तू दूर करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से हम प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले होते हैं, ज्ञान को प्राप्त करते हैं, जीवन संग्राम में विजयी बनते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, you vibrate voluble in the heart core of the soul. Your presence is conducted through vibrations of perception by the senses and mind and, alongwith the vibrations, you reach the imperishable soul. Adored and exalted there, the blissful presence like waves of divine energy continues to radiate and shine in the heart core of the soul as shower of ananda, ecstasy of divine bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा अविनाशी भाव जेव्हा माणसाच्या हृदयाला जाणवतो तेव्हा जणू माणूस ईश्वराजवळ पोचतो. याचेच नाव परमात्मप्राप्ती आहे. वास्तविक परमेश्वर कुणाच्या जवळ जात नाही किंवा कुणापासून दूर जात नाही. या दृष्टीने वेदात म्हटले आहे की, ‘‘तददूरे तद्वान्तिके’’ अर्थात अज्ञानी माणसापासून दूर व ज्ञानी माणसांच्या जवळ असतो. ॥५॥
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