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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 99/ मन्त्र 7
    ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स मृ॑ज्यते सु॒कर्म॑भिर्दे॒वो दे॒वेभ्य॑: सु॒तः । वि॒दे यदा॑सु संद॒दिर्म॒हीर॒पो वि गा॑हते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मृ॒ज्य॒ते॒ । सु॒कर्म॑ऽभिः । दे॒वः । दे॒वेभ्यः॑ । सु॒तः । वि॒दे । यत् । आ॒सु॒ । स॒म्ऽद॒दिः । म॒हीः । अ॒पः । वि । गा॒ह॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मृज्यते सुकर्मभिर्देवो देवेभ्य: सुतः । विदे यदासु संददिर्महीरपो वि गाहते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । मृज्यते । सुकर्मऽभिः । देवः । देवेभ्यः । सुतः । विदे । यत् । आसु । सम्ऽददिः । महीः । अपः । वि । गाहते ॥ ९.९९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 99; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः) स परमात्मा (देवः) दिव्यकर्मा (देवेभ्यः, सुतः) यो विद्वद्भ्यः स्तुतः सः (यत्) यदा (विदे) साक्षात्क्रियते तदा कर्मयोगी (आसु) आसु प्रजासु (संददिः) सम्यग्धनस्य प्रदाता भवति, तदैव (महीः, अपः) महतीः कर्मविपत्तीः (वि गाहते) पारयति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः) पूर्वोक्त परमात्मा (देवः) देव (देवेभ्यः) जो विद्वानों के लिये (सुतः) स्तुत किया गया है, वह (यत्) जब (विदे) साक्षात्कार किया जाता है, तब कर्मयोगी पुरुष (आसु) प्रजाओं में (संददिः) सम्यक् धनों का प्रदाता होता है और तब (महीः, अपः) बड़े-बड़े कर्मों की विपत्तियों को (विगाहते) तैर जाता है ॥७॥

    भावार्थ

    कर्मयोगी, जो परमात्मोपासक है, वह सब बलों का आश्रय हो सकता है ॥७॥

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    विषय

    उपास्य आत्मा वा प्रभु का प्रजाओं में शक्ति-वितरण।

    भावार्थ

    (सः) वह (सुतः) वार २ उपासना किया प्रभु या आत्मा (सुकर्मभिः) उत्तम कर्मों से (देवेम्यः) विद्वानों वा प्राणों से पृथक् रूप में (मृज्यते) बराबर शुद्ध पवित्र किया जाता है (यत्) क्योंकि वह (आसु) इन समस्त प्रजाओं में (सं-ददिः) अपनी शक्ति प्रदान करता है और वही (अपः महीः) देह में जलवत् व्यापक प्राणों और रुधिर आदि द्रवों पदार्थों और यही भूमि के विकार स्थूल देह के तत्वों में (वि गाहते) विविध प्रकार से व्यापता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेभसून् काश्यपावृषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ विराड् बृहती। २, ३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४, ७, ८ निचृदनुष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    महान् कर्मों का अवगाहन

    पदार्थ

    (सः) = वह सोम (सुकर्मभिः) = उत्तम कर्मों में लगे हुए पुष्पों से (मृज्यते) = शुद्ध किया जाता है । कर्मों में लगे रहना ही हमें वासनाओं से बचाता है, और इस प्रकार सोमरक्षण का साधन हो जाता है । (देवः) = यह प्रकाशमय सोम (देवेभ्यः सुतः) = दिव्य गुणों की उत्पत्ति के लिये उत्पन्न किया गया है । यह सोम (यद्) = जब (आसु) = इन प्रजाओं में (सन्ददिः) = सम्यक् शक्ति व ज्ञान का देनेवाला (विदे) = जाना जाता है, तो यह सोम (महीः अपः) = महत्त्वपूर्ण कर्मों का (विगाहते) = अवगाहन करता है । सोमरक्षक पुरुष महत्त्वपूर्ण कर्मों का करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम कर्मों में लगे रहने से ही सोम का रक्षण होता है। सोमरक्षक शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करके महान् कर्मों को करनेवाला होता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That divine, refulgent and generous Soma, realised by sages of holy action for noble humanity, is celebrated and glorified in the human world, and when it is known as the sole giver of every thing among these people, then it releases mighty floods of living waters for life sustenance.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्मोपासक कर्मयोगी आहे तो सर्व बलांचा आश्रय बनू शकतो. ॥७॥

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