ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 99/ मन्त्र 8
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
सु॒त इ॑न्दो प॒वित्र॒ आ नृभि॑र्य॒तो वि नी॑यसे । इन्द्रा॑य मत्स॒रिन्त॑मश्च॒मूष्वा नि षी॑दसि ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तः । इ॒न्दो॒ इति॑ । प॒वित्रे॑ । आ । नृऽभिः॑ । य॒तः । वि । नी॒य॒से॒ । इन्द्रा॑य । म॒त्स॒रिन्ऽत॑मः । च॒मूषु॑ । आ । नि । सी॒द॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुत इन्दो पवित्र आ नृभिर्यतो वि नीयसे । इन्द्राय मत्सरिन्तमश्चमूष्वा नि षीदसि ॥
स्वर रहित पद पाठसुतः । इन्दो इति । पवित्रे । आ । नृऽभिः । यतः । वि । नीयसे । इन्द्राय । मत्सरिन्ऽतमः । चमूषु । आ । नि । सीदसि ॥ ९.९९.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 99; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! भवान् (पवित्रे) पूतेऽन्तःकरणे (सुतः) आवाहितः (नृभिः) कर्मयोगिभिः (यतः) साक्षात्कृतः सन् (वि नीयसे) विशेषेण साक्षात्त्वं लभते (इन्द्राय) कर्मयोगिने (मत्सरिन्तमः) आनन्दमयो भवान् (चमूषु) सर्वविधबलेषु (आ नि सीदसि) एत्य तिष्ठति ॥८॥ इत्येकोननवतितमं सूक्तं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (सुतः) आवाहन किये हुए (नृभिः) कर्मयोगी पुरुषों द्वारा (यतः) साक्षात्कार किये हुए आप (विनीयसे) विशेषरूप से साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं, (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (मत्सरिन्तमः) आनन्दस्वरूप आप (चमूषु) सब प्रकार के बलों में (आनिषीदसि) स्थिर होते हैं ॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य शुद्धान्तःकरण से कर्मयोगयुक्त होता है, परमात्मा उसी की सहायता करता है ॥८॥ यह निन्यानवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
देहगत हृदय व आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
हे (इन्दो) तेजःस्वरूप ! इस देह में द्रवित होने वाले (यतः) जिससे तू (नृभिः) मनुष्यों, साधकों वा प्राणों द्वारा (सुतः) अभिषिक्त अध्यक्षवत् प्रेरक होकर (पवित्रे वि नीयसे) परम पावन, स्वच्छ हृदय में विशेष रूप से प्राप्त होता है। तू (इन्द्राय मत्सरिन्तमः) उस ऐश्वर्य-वान् आत्मा के लिये हर्षप्रद होता है। तू ही (चमूषु) समस्त लोकों, प्राणों, इन्द्रियों में (निषीदसि) विराजता है। इति षड्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभसून् काश्यपावृषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ विराड् बृहती। २, ३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४, ७, ८ निचृदनुष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्।
विषय
मत्सरिन्तमः
पदार्थ
हे (इन्दो) = सोम ! (नृभिः यतः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों से संयत हुआ हुआ तू (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (पवित्रे) = पवित्र हृदय वाले इस पुरुष में (आविनीयसे) = सर्वथा ले जाया जाता है । सोम का शरीर में व्यापन ही इसका शरीर में संयम है। हे सोम ! (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मत्सरिन्तमः) = अतिशयेन आनन्द को देनेवाला तू (चमूषु) = इन शरीर पात्रों में (आनिषदसि) = चारों ओर विराजता है ।
भावार्थ
भावार्थ- संयत सोम अतिशयेन आह्लाद का जनक होता है । 'रेभसूनू काश्यपौ' ही अगले सूक्त के भी ऋषि हैं-
इंग्लिश (1)
Meaning
O spirit of divinity, brilliant and blissful, perceived, reflected and meditated with constant exercise of spiritual discipline, you are distilled from experience and realised by devoted people in the purity of heart for the soul. It is thus that, most ecstatic and exhilarating, you abide in the heart and soul of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
जो मनुष्य शुद्ध अंत:करणाने कर्मयुक्त होतो, परमात्मा त्याचीच सहायता करतो. ॥८॥
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