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यजुर्वेद अध्याय - 26

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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 4
    ऋषिः - रम्याक्षी ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - स्वराड् जगती स्वरः - निषादः
    109

    इन्द्र॒ गोम॑न्नि॒हा या॑हि॒ पिबा॒ सोम॑ꣳ शतक्रतो। वि॒द्यद्भि॒र्ग्राव॑भिः सु॒तम्।उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा॒ गोम॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा॒ गोम॑ते॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑। गोम॒न्निति॒ गोऽम॑न्। इ॒ह। आ। या॒हि॒। पिब॑। सोम॑म्। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। वि॒द्यद्भि॒रिति॒ वि॒द्यत्ऽभिः॑। ग्राव॑भि॒रिति॒ ग्राव॑ऽभिः। सु॒तम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त॒ इति॒ गोऽम॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। गोम॑त इति॒ गोऽम॑ते ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र गोमन्निहायाहि पिबा सोमँ शतक्रतो । विद्यद्भिर्ग्रावभिः सुतम् । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा गोमतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा गोमते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। गोामन्निति गोऽमन्। इह। आ। याहि। पिब। सोमम्। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। विद्यद्भिरितिः विद्यत्ऽभिः। ग्रावभिरिति ग्रावऽभिः। सुतम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। गोमत इति गोऽमते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। गोमत इति गोऽमते॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे शतक्रतो गोमन्निन्द्र त्वमिहा याहि विद्यद्भिर्ग्रावभिः सुतं सोमं पिब यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽसि तस्माद् गोमत इन्द्राय त्वा यस्यैष ते योनिरस्ति तस्मै गोमत इन्द्राय त्वां च वयं सत्कुर्मः॥४॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) विद्वन् मनुष्य! (गोमन्) प्रशस्ता गौर्वाणी विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ (इह) अस्मिन् संसारे (आ) (याहि) प्राप्नुहि (पिब) अत्र ‘द्व्यचोऽतस्तिङः’ [अ॰६.३.१३५] इति दीर्घः (सोमम्) रसम् (शतक्रतो) शतमसंख्यः क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ (विद्यद्भिः) विद्यमानैः। अत्र व्यत्ययेन परमैपदम् (ग्रावभिः) मेघैः (सुतम्) निष्पन्नम् (उपयामगृहीतः) उपयामैर्गृहीतानि जितानि इन्द्रियाणि येन सः (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्याय (त्वा) त्वाम् (गोमते) प्रशस्तपृथिवीराज्ययुक्ताय (एषः) (ते) (योनिः) निमित्तम् (इन्द्राय) प्रशस्तैश्वर्यवते (त्वा) त्वाम् (गोमते) प्रशस्तवाग्वते॥४॥

    भावार्थः

    ये वैद्यकशास्त्रविद्यासिद्धानि मेघेनोत्पन्नान्यौषधानि सेवन्ते योगं चाभ्यस्यन्ति ते सुखैश्वर्ययुक्ता जायन्ते॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (शतक्रतो) जिस की सैकड़ों प्रकार की बुद्धि और (गोमन्) प्रशंसित वाणी है सो ऐसे हे (इन्द्र) विद्वन् पुरुष! आप (आ, याहि) आइये (इह) इस संसार में (विद्यद्भिः) विद्यमान (ग्रावभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रस को (पिब) पियो, जिससे आप (उपयामगृहीतः) यम-नियमों से इन्द्रियों को ग्रहण किये अर्थात् इन्द्रियों को जीते हुए (असि) हो, इसलिए (गोमते) प्रशस्त पृथिवी के राज्य से युक्त पुरुष के लिये और (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के लिये (त्वा) आप को और जिन (ते) आप का (एषः) यह (योनिः) निमित्त है उस (गोमते) प्रशंसित वाणी और (इन्द्राय) प्रशंसित ऐश्वर्य से युक्त पुरुष के लिये (त्वा) आप का हम लोग सत्कार करते हैं॥४॥

    भावार्थ

    जो वैद्यकशास्त्र विद्या से सिद्ध और मेघों से उत्पन्न हुई औषधियों का सेवन और योगाभ्यास करते हैं, वे सुख तथा ऐश्वर्य्ययुक्त होते हैं॥४॥

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    विषय

    सभापति पद पर वाग्मी विद्वान् का वरण, उसके साथ विद्वानों का साहाय्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् ! राजन् ! हे ( गोमन् ) वाणी, आज्ञा एवं गवादि पशु और गौ = पृथ्वी के स्वामिन् ! तू (इह) यहां इस राष्ट्र में (आयाहि) प्राप्त हो, हे (शतक्रतो ) सैकड़ों प्रज्ञाओं क्रिया- सामर्थ्यौं और अधिकारों से युक्त ! तू (विद्यद्भिः) विशेष रूप से विद्यमान अथवा विविध खण्डन- मण्डन करने वाले (ग्रावभिः) विद्वानों द्वारा ( सुतम् ) सिद्धान्त रूप से प्राप्त किये ( सोमम् ) ज्ञानरस का ( पिब ) पान कर | अथवा (विद्यद्भिः) विविध शस्त्र अस्त्रों से शत्रुओं का खण्डन करने वाले (प्रावभिः) दृढ़ शस्त्रधारियों, वीरों, विद्वानों से ( सुतम् ) प्राप्त किये गये ( सोमम् ) अभिषेक द्वारा प्रदत्त सोम नाम राजपद या राष्ट्र और ज्ञान का (पिब) पान कर, उपभोग कर । हे वीर पुरुष ! तू (उपयाम-गृहीत: असि) राष्ट्र की शासन व्यवस्था द्वारा स्वीकृत या नियुक्त है । (स्वा गोमते इन्द्राय) तुमको 'गोमत् इन्द्र' अर्थात् पृथिवी के स्वामी 'इन्द्र' पद के लिये नियुक्त करता हूँ । ( एष: ते) यह तेरे योग्य (योनि) आश्रय, पदाधिकार है। (इन्द्राय त्वा गोमते) 'गोमान् इन्द्र' पद के लिये तुझे स्थापित किया जाता है । (२) विद्वान् के पक्ष में 'गोमान्' ज्ञानवाणियों का ज्ञाता शास्त्रज्ञ, वेदज्ञ, सोम, ज्ञानरस ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रम्याक्षी । इन्द्रः । स्वराड् जगती । निषादः ॥

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    विषय

    वासना-विनाश व स्तवन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का 'गृत्समद' प्रस्तुत मन्त्रों में 'रम्याक्षी:' = रमणीय आँखोंवाला बनता है। प्रभु का कुछ-कुछ आभास होने पर मानस आह्लाद का आँखों में बसना स्वाभाविक है। यह रम्याक्षि कहता है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (गोमन्) = वेदवाणियोंवाले प्रभो ! (इह) = इस मानव-जीवन में (आयाहि) = आप हमें प्राप्त हों। ३. इस प्रार्थना को सुनकर प्रभु रम्याक्षि से कहते हैं कि हे (शतक्रतो:) = सैकड़ों प्रज्ञानोंवाले व शतवर्षपर्यन्त यज्ञमय जीवन बितानेवाले रम्याक्षे ! तू (सोमं पिब) = सोम का पान कर। शरीर में उत्पन्न इस सोम को शरीर में ही सुरक्षित करनेवाला बन। यह सोम (विद्यद्भिः) [दो अवखण्डने ] = विशेषरूप से वासनाओं का खण्डन करनेवालों से तथा (ग्रावभिः) = स्तोताओं [ गृणन्ति इति - द० ] से (सुतम्) = अपने अन्दर उत्पन्न किया जाता है। सोमरक्षा के लिए हम अपने अन्दर वासनाओं को उत्पन्न न होने दें और प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें। ३. अब रम्याक्षि कहता है- हे प्रभो! (उपयामगृहीतः असि) = आप उपासना द्वारा प्राप्त यम-नियमों से जाने जाते हो। हे वेद! मैं (त्वा) = तुझे (इन्द्राय गोमते) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए ही प्राप्त करता हूँ, जोकि वेदवाणियोंवाला है। (एषः) = यह प्रभु ही (ते) = तेरा (योनिः) = उत्पत्तिस्थान है। (इन्द्राय गोमते) = मैं तुझे उस सब आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले वेदवाणियों के पति प्रभु की प्राप्ति के लिए ही स्वीकार करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के लिए वीर्य की रक्ष और सोम का पान आवश्यक है। इसके साधन हैं, वासनाओं से बचना व प्रभु का स्तवन करना । वेदज्ञान भी प्रभु प्राप्ति के लिए ही है। -

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे वैद्यकशास्त्रानुसार व पावसाच्या पाण्यापासून उत्पन्न झालेल्या वृक्षौषधींचे सेवन करून योगाभ्यास करतात ते सुखी व ऐश्वर्ययुक्त बनतात.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (शतक्रतो) शेकडों विषयात ज्यांची बुद्धी पारंगत आहे आणि (गोमन्) ज्यांची वाणी प्रशंसनीय आहे, असे हे (इन्द्र) विद्वान, आपण (आ, याहि) या (इह) या आकाशात (विद्यद्भिः) विद्यमान (ग्रावभिः) ढगांपासून (सुतम्) बरसलेल्या (सोमम्) सोम आदी औषधींचे रस आपण (तपन) प्या. आपण (उपयामगृहीतः) यम, नियमांद्वारे इंद्रियांवर विजय मिळविलेले (असि) आहात म्हणून (गोमते) विशाल पृथ्वीचर राज्य करणार्‍या आणि (इन्द्राय) उत्तम ऐश्‍वर्यशाली पुरूषासाठी (आम्ही आपला स्वीकार करतो) (त्वा) आपणाला तसेच (ते) आपले (एषः) हे जे (योनिः) निमित्त वा उदिष्ट आहे, त्याच्या पूर्ततेसाठी (गोमते) प्रशंसनीय वाणी आणि (इन्द्राय) प्रशंसनीय ऐश्‍वर्य असलेल्या पुरूषासाठी आम्ही (त्वा) आपला स्वीकार करतो (आपणास त्याचा मार्गदर्शक म्हणून नियुक्त करतो) आणि त्याबद्दल आपला सत्कार करतो ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक वैद्यकशास्त्राद्वारा प्रमाणित आणि मेघवृष्टीद्वारा उत्पन्न औषधींचे सेवन करतात. आणि जे योगाभ्यास करतात, ते सदा सुखी व ऐश्‍वर्यवान होतात ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, possessing vast wisdom and knowledge of the Vedas, come here, and drink the juice of medicines ripened by clouds. Thou hast controlled thy senses through yamas and niyamas. We accept thee as the master of worldly kingship and grand supremacy. This is thy home of knowledge. We accept thee as protector of vedic speech, and as full of glory.

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    Meaning

    Indra, lord of the earth and the divine Word, high priest of a hundred yajnas of life, come here and drink of the soma extracted by the existent scholars with the sacred stones and distilled by the clouds. Man of divine knowledge, master of your mind and senses, consecrated you are to Indra, lord of earth and Veda. I accept you for the service of Indra and education of the people. This service and dedication is now your haven and home, the end and aim of your life.

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    Translation

    O resplendent Lord, rich in divine speech, busy in hundreds of actions, come here and drink cure-juice (i. e the bliss), pressed out with crushing stones. (1) You have been duly accepted. (2) You to the resplendent Lord, rich in divine speech. (3) This is your abode. (4) You to the resplendent Lord, rich in divine speech. (5)

    Notes

    Gomān, गावः धेनवः, स्तुतयः किरणा वा विद्यन्ते यस्य, one who has cows, praises (speech) or rays. Soma, cure-juice; juice of a medicinal herb, that cures all the maladies. Yoniḥ, abode; home; place. Satakratu, one who has performed a hundred sacrifices; normally used for Indra; Lord of a hundred powers; one engaged in hundrds ofselfless deeds. Gomate, to you, who are rich in cows; or who are rich in divine speech.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্য কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (শতক্রতো) যাহার শত শত প্রকারের বুদ্ধি এবং (গোমন্) প্রশংসিত বাণী এমন, হে (ইন্দ্র) বিদ্বন্ পুরুষ! আপনি (আ, য়াহি) আসুন (ইহ) এই সংসারে (বিদ্যদ্ভিঃ) বিদ্যমান (গ্রাবভিঃ) মেঘ দ্বারা (সুতম্) উৎপন্ন (সোমম্) সোমবল্লী আদি ওষধিগুলির রসকে (পিব) পান করুন যদ্দ্বারা আপনি (উপয়ামগৃহীতঃ) যম নিয়মের দ্বারা ইন্দ্রিয় সকলকে গ্রহণ করিয়াছেন অর্থাৎ ইন্দ্রিয়গুলিকে জিতিয়া লইয়াছেন, এইজন্য (গোমতেঃ) প্রশস্ত পৃথিবী রাজ্য দ্বারা যুক্ত পুরুষের জন্য এবং (ইন্দ্রায়) উত্তম ঐশ্বর্য্যের জন্য (ত্বা) আপনাকে এবং যে (তে) আপনার (এষঃ) এই (য়োনিঃ) নিমিত্ত সেই (গোমতে) প্রশংসিত বাণী এবং (ইন্দ্রায়) প্রশংসিত ঐশ্বর্য্য দ্বারা যুক্ত পুরুষের জন্য (ত্বা) আপনার আমরা সৎকার করি ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা বৈদ্যকশাস্ত্র বিদ্যা দ্বারা সিদ্ধ এবং মেঘ দ্বারা উৎপন্ন ওষধিগুলির সেবন ও যোগাভ্যাস করেন তাহারা সুখ তথা ঐশ্বর্য্যযুক্ত হইয়া থাকে ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ইন্দ্র॒ গোম॑ন্নি॒হা য়া॑হি॒ পিবা॒ সোম॑ꣳ শতক্রতো । বি॒দ্যদ্ভি॒র্গ্রাব॑ভিঃ সু॒তম্ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা॒ গোম॑তऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॒রিন্দ্রা॑য় ত্বা॒ গোম॑তে ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইন্দ্রেত্যস্য রম্যাক্ষী ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । স্বরাড্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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