अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - षट्पदा जगती
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
42
यथा॒ वाते॑न॒ प्रक्षी॑णा वृ॒क्षाः शेरे॒ न्यर्पिताः। ए॒वा स॒पत्नां॒स्त्वं मम॒ प्र क्षि॑णीहि॒ न्यर्पय। पूर्वा॑ञ्जा॒ताँ उ॒ताप॑रान्वर॒णस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । वाते॑न । प्रऽक्षी॑णा: । वृ॒क्षा: । शेरे॑ । निऽअ॑र्पिता: । ए॒व । स॒ऽपत्ना॑न् । त्वम् । मम॑ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । नि । अ॒र्प॒य॒ । पूर्वा॑न् । जा॒तान् । उ॒त । अप॑रान् । व॒र॒ण: । त्वा॒ । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ ॥३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा वातेन प्रक्षीणा वृक्षाः शेरे न्यर्पिताः। एवा सपत्नांस्त्वं मम प्र क्षिणीहि न्यर्पय। पूर्वाञ्जाताँ उतापरान्वरणस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । वातेन । प्रऽक्षीणा: । वृक्षा: । शेरे । निऽअर्पिता: । एव । सऽपत्नान् । त्वम् । मम । प्र । क्षिणीहि । नि । अर्पय । पूर्वान् । जातान् । उत । अपरान् । वरण: । त्वा । अभि । रक्षतु ॥३.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (वातेन) वायु से (प्रक्षीणाः) नष्ट कर दिये गये और (न्यर्पिताः) झुकाये हुए (वृक्षाः) वृक्ष (शेरे=शेरते) सो जाते हैं, (एव) वैसे ही (मम) मेरे (सपत्नान्) वैरियों को (त्वम्) तू (प्र क्षिणीहि) नाश कर दे और (नि अर्पय) झुका दे, (पूर्वान्) पहिले (जातान्) उत्पन्नों (उत) और (अपरान्) पिछलों को। (वरणः) वरण [स्वीकार करने योग्य वैदिक बोध वा वरना औषध] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥१५॥
भावार्थ
मनुष्यों को शत्रुओं के नाश करने में सदा उद्योग करना चाहिये ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(यथा) (वातेन) वायुना (प्रक्षीणाः) विनाशिताः (वृक्षाः) (शेरे) छान्दसं रूपम्। शेरते। वर्तन्ते (न्यर्पिताः) नीचीकृताः (प्र क्षिणीहि) विनाशय (न्यर्पय) नीचय। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
रोगरूप शत्रुओं का भञ्जन
पदार्थ
१. हे वरणमणे । (यथा) = जैसे (वातः) = तेज वायु (वनस्पतीन्) = बिना फूल के फल देनेवाले पीपल आदि को तथा (वृक्षान्) = अन्य वृक्षों को (ओजसा भनक्ति) = शक्ति से तोड़ डालता है, (एव) = इसी प्रकार (मे) = मेरे (पूर्वान् जातान्) = पहले पैदा हुए-हुए (उत्त) = और (अपरान्) = पीछे आनेवाले (सपत्नान्) = भङ्ग्धि रोगरूप शत्रुओं को विदीर्ण कर दे। २. (यथा) = जैसे (वता: च अग्नि च) = वायु और अग्नि (वनस्पतीन्) = वनस्पतियों को व (वृक्षान्) = वृक्षों को (प्सातः) = खा जाते हैं, एक-उसी प्रकार (मे) = मेरे (पूर्वान् जातान् उत अपरान्) = पहले पैदा हुए-हुए और पिछले (सपत्नान्) = शत्रुओं को खा डाल। ३. (यथा) = जैसे (वातेन) = तीन वायु से (प्रक्षीणा:) = पत्तों आदि के गिर जाने से क्षीण हुए (न्यर्पिता:) = नीचे अर्पित किये गये-गिराये गये (वृक्षाः) = वृक्ष (शेरे) = भूमि पर लेट जाते हैं-गिर जाते हैं, (एव) = इसी प्रकार है वरणमणे! (त्वम्) = तू (मम) = मेरे (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को (प्रक्षिणीहि) = क्षीण कर दे और उन्हें (न्यर्पय) = नीचे दबा देनेवाला हो। तेरे द्वारा मैं रोगों को पादाक्रान्त कर पाऊँ। ४. प्रभु अपने आराधक से कहते हैं कि (वरण:) = यह वरणमणि (त्वा अभि रक्षतु) = तेरे शरीर व मन दोनों क्षेत्रों को रक्षित करनेवाली हो। शरीर में यह तुझे रोगों से बचानेवाली हो तथा मन में वासनाओं से रक्षित करनेवाली हो।
भावार्थ
वरणमणि रोग व वासनारूप शत्रुओं को इसप्रकार विनष्ट कर दे जैसेकि तीववायु वृक्षों को। जिस प्रकार जंगल की आग वनस्पतियों को खा जाती है, इसी प्रकार यह वरणमणि रोगों को खा जाए। जैसे तीन वायु से वृक्ष गिर जाते हैं, उसी प्रकार इस वरणमणि द्वारा मेरे रोग समास हो जाएँ।
भाषार्थ
(यथा) जिस प्रकार (वातेन) प्रबल वायु द्वारा (प्रक्षोणाः) अत्यन्त निर्बल हुए (वृक्षाः) वृक्ष (शेरे = शेरते) सुशायी हो जाते हैं, और [भूमि के प्रति] (न्यर्पिताः) नितरां समर्पित हो जाते हैं, (एवा) इसी प्रकार [हे सेना के सर्वोच्चाधिकारिन् !] (त्वम्) तू (पूर्वान् जातान्) पूर्वकाल के (उत) और (अपरान्) उन से भिन्न अवर काल के (मम सपत्नान्) मेरे शत्रुओं को (प्रक्षिणीहि) अत्यन्त निर्बल कर, (न्यर्पय) और [मेरे प्रति] उन्हें नितरां अर्पित कर। हे राजन् ! (त्वा) तुझे (वरणः) शत्रुनिवारक सेनाध्यक्ष (अभि रक्षतु) सब ओर से सुरक्षित करे। [अभिप्राय पूर्ववत् (१३)। प्रबल वायु के चलने पर वृक्ष क्षीण होकर भूशायी हो जाते हैं]।
विषय
वीर राजा और सेनापति का वर्णन।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (वातेन) प्रबल वायु से (प्रक्षीणाः) उखाड़े और (नि अर्पिताः) नीचे गिराये वृक्ष भूमि पर लोट जाते हैं। (एवा) उसी प्रकार (त्वं) तू ‘वरण’ (मे सपत्नान् प्रक्षिणीहि) मेरे शत्रुओं का विनाश कर और (नि अर्पय) नीचे गिरा (पूर्वान् जातान् ० इत्यादि) पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वरणो, वनस्पतिश्चन्द्रमाश्च देवताः। २, ३ ६ भुरिक् त्रिष्टुभः, ८ पथ्यापंक्तिः, ११, १६ भुरिजौ। १३, १४ पथ्या पंक्ती, १४-१७, २५ षट्पदा जगत्य:, १, ४, ५, ७, ९, १०, १२, १३, १५ अनुष्टुभः। पञ्चविशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Warding off Rival Adversaries
Meaning
Just as trees bent and broken by the wind lie low on the ground, so O Ruler of the commonwealth, bend and break my enemies whether old or newly arisen, and may Varana, commander of the forces of law and defence, guard you against external and internal dangers.
Translation
Just as the trees, broken down by the wind, lie prostrate (on the ground), even so may you break my rivals down and lay them prostrate, those born before and also the latter. May the protective blessing guard you well.
Translation
As shattered by the tampast these trees lie withering ruind on the ground so let this overthrow, crush down my inimical diseases born before and afterwards. Let this mighty Varana protect you, O man!
Translation
As, shattered by the tempest trees lie withering ruined on the ground; thus overthrow my rivals thou, so crush them down and ruin them, those born before and after me. Let the Vedic knowledge protect thee well.
Footnote
Thou, thee refer to the king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(यथा) (वातेन) वायुना (प्रक्षीणाः) विनाशिताः (वृक्षाः) (शेरे) छान्दसं रूपम्। शेरते। वर्तन्ते (न्यर्पिताः) नीचीकृताः (प्र क्षिणीहि) विनाशय (न्यर्पय) नीचय। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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