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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
    50

    यथा॒ यशो॒ यज॑माने॒ यथा॒स्मिन्य॒ज्ञ आहि॑तम्। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । यश॑: । यज॑माने । यथा॑ । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । आऽहि॑तम् । ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम्‌ । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा यशो यजमाने यथास्मिन्यज्ञ आहितम्। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । यश: । यजमाने । यथा । अस्मिन् । यज्ञे । आऽहितम् । एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम्‌ । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसा (यशः) यश (यजमाने) यजमान [देवपूजक, सङ्गतिकारक और दानी] में और (यथा) जैसा [यश] (अस्मिन्) इस (यज्ञे) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] में (आहितम्) स्थापित है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये.... म० १७ ॥२३॥

    भावार्थ

    स्पष्ट है ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(यजमाने) देवपूजासंगतिकारकदानशीले (यज्ञे) देवपूजासंगतिकारकदानकर्मणि (आहितम्) स्थापितम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सूर्यः देवः

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति)  अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) =  जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।

    भावार्थ

    वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।

    देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसा (यशः) यश (यजमाने) यजमान में तथा (यथा) जैसा (अस्मिन् यज्ञे) इस यज्ञ में (आहितम्) निहित है, स्थापित है। (एवा) इसी प्रकार (मे) मुझ में (वरणः मृणिः) श्रेष्ठ तथा रत्नरूप शत्रुनिवारक-सेनाध्यक्ष (कीर्तिम्) कीर्ति को, (भूतिम्) वैभव को (नियच्छतु) नियत करे, स्थापित करे, (तेजसा) तेज से (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक्-सींचे, (यशसा) यश द्वारा (मा) मुझे (समनक्तु) सम्यक्-कान्तिमान करे।

    टिप्पणी

    [यजमान का अर्थ है यज्ञ करने वाला, अर्थात् देवपूजा, सत्संगति, तथा दान करने वाला। यश का भी अर्थ है वह कर्म, जिस में कि देवों की पूजा हो, सत्संगति हो, तथा दान दिया जाय। राजा भी यजमान बन कर, राष्ट्र यज्ञ को रचाने का संकल्प कर के, राष्ट्र के देव की पूजा, उनके सत्संग, तथा उन्हें दान देने का अभिलाषी है]।

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    विषय

    वीर राजा और सेनापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार का (यजमाने) यजमान, यज्ञ करने वाले पुरुष में और (यथा) जिस प्रकार का यश (अस्मिन् यज्ञे) इस यज्ञ में (आ-हितम्) रखा है। (एवा मे वरणः० इत्यादि) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वरणो, वनस्पतिश्चन्द्रमाश्च देवताः। २, ३ ६ भुरिक् त्रिष्टुभः, ८ पथ्यापंक्तिः, ११, १६ भुरिजौ। १३, १४ पथ्या पंक्ती, १४-१७, २५ षट्पदा जगत्य:, १, ४, ५, ७, ९, १०, १२, १३, १५ अनुष्टुभः। पञ्चविशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Warding off Rival Adversaries

    Meaning

    As there is honour in the Yajamana and it is in this yajna concentrated, so may this Varana-mani bring me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre and anoint me with grace and glory.

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    Translation

    Just as there is graciousness (glory) in the sacrificer and as is laid in this sacrifice, even so may this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me with lustre and anoint me with renown (glory).

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    Translation

    As glory dwells in performer of Yajna and as fame dwells in Yajna so this mighty Varana plant give me prosperity and fame. Let it pour on me the lustre and unite me with fame.

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    Translation

    As glory is bestowed upon the patron and this sacrifice (Yajna) so may the Vedic knowledge give me fame and prosperity. With lustre let it sprinkle me, and balm me with magnificence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(यजमाने) देवपूजासंगतिकारकदानशीले (यज्ञे) देवपूजासंगतिकारकदानकर्मणि (आहितम्) स्थापितम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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