अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
56
यथा॒ यश॑श्च॒न्द्रम॑स्यादि॒त्ये च॑ नृ॒चक्ष॑सि। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । यश॑: । च॒न्द्रम॑सि । आ॒दि॒त्ये । च॒ । नृ॒ऽचक्ष॑सि । ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम् । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा यशश्चन्द्रमस्यादित्ये च नृचक्षसि। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । यश: । चन्द्रमसि । आदित्ये । च । नृऽचक्षसि । एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम् । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसा (यशः) यश (चन्द्रमसि) चन्द्रमा में (च) और (नृचक्षसि) मनुष्यों को देखनेवाले (आदित्ये) सूर्य में है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये.... मन्त्र १७ ॥१८॥
भावार्थ
मन्त्र १७ के समान है ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(यथा) (यशः) (चन्द्रमसि) चन्द्रमण्डले (आदित्ये) अ० १।९।१। आदीप्यमाने सूर्ये (च) (नृचक्षसि) मनुष्याणां दर्शके। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सूर्यः देवः
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति) अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।
भावार्थ
वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।
देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -
भाषार्थ
(यथा) जैसे (यशः) यश (चन्द्रमसि, आदित्ये च नृचक्षसि) मनुष्यों पर दृष्टि रखने वाले चन्द्रमा और आदित्य में है। (एवा) इसी प्रकार (वरणः मणिः) श्रेष्ठ तथा शत्रुनिवारक सेनाध्यक्षरूपी राज्यरत्न (मे) मुझ राजा में (कीर्त्तिम्) कीर्ति को, और (भूतिम्) वैभव को (नि यच्छतु) नियत करे, स्थापित करे, (तेजसा) तेज से (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक् सींचे, (यशमा) यश से (मा) मुझे (समनक्तु) सम्यक्-कान्तिमान् करे।
टिप्पणी
["नृचक्षसि" का अन्वय चन्द्रमा और आदित्य दोनों के साथ है। आदित्य दिन के समय और चन्द्रमा रात्रि के समय "नृचक्षाः" है। मन्त्र में राजा भी यश की प्राप्ति का इच्छुक है। राजा भी चन्द्रमा१ और आदित्य के दृष्टान्त द्वारा "नृचक्षाः" होने के यश का अभिलाषी है। वह भी चाहता है कि प्रजाजनों पर उस की सदा दृष्टि रहें, प्रजाजनों के सुख-दुःख तथा समुन्नति उस की दृष्टि में सदा रहें]। [१. चन्द्रमा शीतल है, और आदित्य तीक्ष्ण। राजा भी इन दोनों दृष्टियों द्वारा शासन करना चाहता है।]
विषय
वीर राजा और सेनापति का वर्णन।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (चन्द्रमसि) चन्द्रमा में और (नृ चक्षसि) समस्त मनुष्यों के देखने वाले या सब के दर्शनीय (आदित्ये च) आदित्य में (यशः) यश-कीर्ति है। (एवा मे वरणो मणिः०) इत्यादि। इसी प्रकार शत्रु वारक शिरोमणि पुरुष भी मुझे कीर्त्ति और भूति प्रदान करे, वह मुझे तेज और यश से युक्त अर्थात् तेजस्वी और यशस्वी करे।
टिप्पणी
(प०) ‘समनक्तु माम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वरणो, वनस्पतिश्चन्द्रमाश्च देवताः। २, ३ ६ भुरिक् त्रिष्टुभः, ८ पथ्यापंक्तिः, ११, १६ भुरिजौ। १३, १४ पथ्या पंक्ती, १४-१७, २५ षट्पदा जगत्य:, १, ४, ५, ७, ९, १०, १२, १३, १५ अनुष्टुभः। पञ्चविशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Warding off Rival Adversaries
Meaning
As there is beauty in the moon and splendour in the all-watching sun, so may this Varana-mani give me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre, may it bless me with glory and grandeur.
Translation
Just as there is graciousness (glory) in the moon and the sun, who watches over men, even so may this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me with lustre, and anoint me with renown (glory).
Translation
As glory dwells in the moon and the Sun which are the source of man’s sight so this mighty Varana plant give me prosperity and fame. Let it pour on me the lustre and unite me with fame.
Translation
As glory dwelleth in the Moon and in the sun who vieweth men, so may the excellent Vedic knowledge give me fame and prosperity. With luster let it sprinkle me and balm me with magnificence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(यथा) (यशः) (चन्द्रमसि) चन्द्रमण्डले (आदित्ये) अ० १।९।१। आदीप्यमाने सूर्ये (च) (नृचक्षसि) मनुष्याणां दर्शके। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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