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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - षट्पदा जगती सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
    47

    यथा॒ सूर्यो॑ अति॒भाति॒ यथा॑स्मि॒न्तेज॒ आहि॑तम्। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । सूर्य॑: । अ॒ति॒ऽभाति॑ । यथा॑ । अ॒स्मि॒न् । तेज॑: । आऽहि॑तम् । ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम्‌ । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सूर्यो अतिभाति यथास्मिन्तेज आहितम्। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सूर्य: । अतिऽभाति । यथा । अस्मिन् । तेज: । आऽहितम् । एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम्‌ । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (अतिभाति) बड़े प्रताप से चमकता है और (यथा) जैसे (अस्मिन्) इस [सूर्य] में (तेजः) तेज (आहितम्) स्थापित है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये (मणिः) श्रेष्ठ (वरणः) वरण [स्वीकार करने योग्य, वैदिक बोध वा वरना औषध] (कीर्तिम्) कीर्ति और (भूतिम्) विभूति [ऐश्वर्य, सम्पत्ति] को (नि यच्छतु) दृढ़ करे, (तेजसा) तेज के साथ (मा) मुझे (सम्) यथावत् (उक्षतु) बढ़ावे और (यशसा) यश के साथ (मा) मुझे (सम्) यथावत् (अनक्तु) प्रकाशित करे ॥१७॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अपने प्रताप से जगत् में विख्यात है, वैसे ही मनुष्य ईश्वरज्ञान और शरीरबल से प्रतापी होकर संसार में अपनी कीर्ति बढ़ावे ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(यथा) (सूर्यः) (अतिभाति) बहुप्रतापेन दीप्यते (यथा) (अस्मिन्) सूर्ये (तेजः) प्रतापः (आहितम्) स्थापितम् (एव) तथा (मे) मह्यम् (वरणः) म० १। स्वीकरणीयः (मणिः) श्रेष्ठः (कीर्तिम्) विख्यातिम् (भूतिम्) विभूतिम्। सम्पत्तिम् (नि यच्छतु) दृढीकरोतु। नियोजयतु (तेजसा) (मा) माम् (सम्) सम्यक् (उक्षतु) उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वर्धयतु (यशसा) (सम्) (अनक्तु) अञ्जू कान्तौ। प्रदीपयतु (मा) माम् ॥

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    विषय

    सूर्यः देवः

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति)  अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) =  जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।

    भावार्थ

    वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।

    देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (सूर्यः अतिभाति) सूर्य खूब चमकता तथा दूर-दूर तक चमकता है, (यथा) जैसे (अस्मिन्) इस सूर्य में (तेजः) तेज (आहितम्) स्थित है। (एवा) इसी प्रकार (वरणः मणिः) श्रेष्ठ तथा शत्रुनिवारक सेनाध्यक्षरूपी राज्यरत्न (मे) मुझ [राजा] में (कीर्तिम्) कीर्ति को और (भूतिम्) वैभव को (नियच्छतु) नियत करे, स्थापित करे, (तेजसा) तेज से (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक्-सींचें, (यशसा) यश से (मा) मुझे (समनक्तु) सम्यक्-कान्तिमान् करे।

    टिप्पणी

    [समुक्षतु = सम् + उक्ष (सेचने, भ्वादि)। समनक्तु = सम् + अञ्जू कान्तौ (रुधादिः)]।

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    विषय

    वीर राजा और सेनापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (सूर्यः) सूर्य (अति-भाति) सबसे अधिक चमकता है और (यथा) जिस प्रकार (अस्मिन्) इस सूर्य में (तेजः) प्रखर तेज (आहितम्) ईश्वर ने रख दिया है (एवा) उसी प्रकार (चरणः मणिः) शत्रुवारक नर-शिरोमणि पुरुष (मे) मुझे (कीर्त्तिम्) यश और (भूतिम्) सम्पत्ति (नि यच्छतु) प्रदान करे। (तेजसा) तेज से (मा) मुझे (सम् उक्षतु) पूर्ण करे। अर्थात् शत्रुरक्षक पुरुषों के बल पर मैं सूर्य के समान कान्तिमान्, समृद्धिमान्, यशस्वी, तेजस्वी राजा हो जाऊं।

    टिप्पणी

    (तृ०, च०) ‘एवा सपत्नांस्त्वं सर्वानतिभातिस्यश्वा [स्व] ‘श्वो वरुणस्त्वाभिरक्षतु’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वरणो, वनस्पतिश्चन्द्रमाश्च देवताः। २, ३ ६ भुरिक् त्रिष्टुभः, ८ पथ्यापंक्तिः, ११, १६ भुरिजौ। १३, १४ पथ्या पंक्ती, १४-१७, २५ षट्पदा जगत्य:, १, ४, ५, ७, ९, १०, १२, १३, १५ अनुष्टुभः। पञ्चविशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Warding off Rival Adversaries

    Meaning

    Just as the sun shines exceedingly, as refulgence of light is concentrated into it, so may this Varana-mani give me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre, may it bless me with glory and grandeur.

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    Translation

    Just as the sun shines extremely bright, as the brilliance is stored in him, even so may this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me- with lustre (teja), and anoint me with renown (yaša).

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    Translation

    As Sun shines with brightest splendor as the store of light and scorching heat has been stored in it so this mighty Varana plant give me the prosperity and fame. Let it pour on me the lustre and unite me with fame.

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    Translation

    As the Sun shines with brightest sheen, as splendor hath been stored in him, so may the excellent Vedic knowledge give me fame and prosperity. With luster let it sprinkle me, and balm me with magnificence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(यथा) (सूर्यः) (अतिभाति) बहुप्रतापेन दीप्यते (यथा) (अस्मिन्) सूर्ये (तेजः) प्रतापः (आहितम्) स्थापितम् (एव) तथा (मे) मह्यम् (वरणः) म० १। स्वीकरणीयः (मणिः) श्रेष्ठः (कीर्तिम्) विख्यातिम् (भूतिम्) विभूतिम्। सम्पत्तिम् (नि यच्छतु) दृढीकरोतु। नियोजयतु (तेजसा) (मा) माम् (सम्) सम्यक् (उक्षतु) उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वर्धयतु (यशसा) (सम्) (अनक्तु) अञ्जू कान्तौ। प्रदीपयतु (मा) माम् ॥

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