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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरणमणिः, वनस्पतिः, चन्द्रमाः छन्दः - षट्पदा जगती सूक्तम् - सपत्नक्षयणवरणमणि सूक्त
    48

    यथा॑ दे॒वेष्व॒मृतं॒ यथै॑षु स॒त्यमाहि॑तम्। ए॒वा मे॑ वर॒णो म॒णिः की॒र्तिं भूतिं॒ नि य॑च्छतु। तेज॑सा मा॒ समु॑क्षतु॒ यश॑सा॒ सम॑नक्तु मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒मृत॑म् । यथा॑ । ए॒षु॒ । स॒त्यम् । आऽहि॑तम् । ए॒व । मे॒ । व॒र॒ण: । म॒णि: । की॒र्तिम् । भूति॑म् । नि । य॒च्छ॒तु॒ । तेज॑सा । मा॒ । सम् । उ॒क्ष॒तु॒ । यश॑सा । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । मा॒ ॥३.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा देवेष्वमृतं यथैषु सत्यमाहितम्। एवा मे वरणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । देवेषु । अमृतम् । यथा । एषु । सत्यम् । आऽहितम् । एव । मे । वरण: । मणि: । कीर्तिम् । भूतिम् । नि । यच्छतु । तेजसा । मा । सम् । उक्षतु । यशसा । सम् । अनक्तु । मा ॥३.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 3; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब सम्पत्तियों के पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (देवेषु) विजय चाहनेवालों में (अमृतम्) अमरपन [पुरुषार्थ] और (यथा) जैसा (एषु) इनमें (सत्यम्) सत्य (आहितम्) स्थापित है, (एव) वैसे ही (मे) मेरे लिये (मणिः) श्रेष्ठ (वरणः) वरण [स्वीकार करने योग्य वैदिक बोध वा वरना औषध] (कीर्तिम्) कीर्ति और (भूतिम्) विभूति [ऐश्वर्य, सम्पत्ति] को (नि यच्छतु) दृढ़ करे, (तेजसा) तेज के साथ (मा) मुझे (सम्) यथावत् (उक्षतु) बढ़ावे और (यशसा) यश के साथ (मा) मुझे (सम्) यथावत् (अनक्तु) प्रकाशित करे ॥२५॥

    भावार्थ

    जैसे विजयी शूरों में पुरुषार्थ और सत्य व्रत धारण होता है, वैसे ही मनुष्य ईश्वरज्ञान और शरीरबल से प्रतापी होकर संसार में अपनी कीर्ति बढ़ावे ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(देवेषु) विजिगीषुषु शूरेषु (अमृतम्) अमरणम्। पौरुषम् (सत्यम्) सत्यव्रतम्। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥

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    विषय

    सूर्यः देवः

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (सूर्यः) = सूर्य (अतिभाति)  अतिशयेन चमकता है, (यथा) = जैसे (अस्मिन) = इसमें (तेजः आहितम्) = तेज स्थापित हुआ है, (एव) = इसी प्रकार मे मेरे लिए (वरण: मणि:) = यह रोगनिवारक वीर्यमणि (कीर्तिम्) = कीर्ति [fame, glory] व (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छतु) = दे। यह (मा) = मुझे (तेजसा) = तेजस्विता से (समुक्षतु) = सिक्त करे, (यशसा) = [beauty, splendour] सौन्दर्य से (मा समनक्तु) = मुझे अलंकृत करे । २. (यथा) = जैसे( चन्द्रमसि) = चन्द्रमा में (यश:) = सौन्दर्य है, (च) = और (नृचक्षसि आदित्ये) = जैसा सौन्दर्य मनुष्यों को देखनेवाले-उनका पालन करनेवाले [look after] सूर्य में है, (यथा) = जैसा (यश:) = सौन्दर्य (प्रथिव्याम्) = इस पृथिवी में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् जातवेदसि) = इस अग्नि में है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (कन्यायाम्) = इस युवति कन्या में है, और (यथा) = जैसा सौन्दर्य इस (संभृते रथे) = सम्यक् भृत-जिसके सब अवयव सम्यक् जुड़े हुए हैं, ऐसे रथ में हैं। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (सोमपीथे) = सोम [वीर्य] के शरीर में ही सुरक्षित करने में है और (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (मधुपर्के) = अतिथि को दिये जानेवाले पूजाद्रव्य में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य अग्निहोत्रे-अग्निहोत्र में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (वषट्कारे) = स्वाहाकार के उच्चारण में है। (यथा यश:) =  जैसा सौन्दर्य (यजमाने) = यज्ञशील पुरुष में है, (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ में (आहितम्) = स्थापित हुआ है। (यथा यश:) = जैसा सौन्दर्य (प्रजापतौ) = प्रजाओं के रक्षक राजा में है और (यथा) = जैसा सौन्दर्य (अस्मिन् परमेष्ठिनि) = इस परमस्थान में स्थित प्रभु में है, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे यश [सौन्दर्य] से अलंकृत करे। ३. (यथा) = जैसे (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (अमृतम्) = नीरोगता आहित होता है, (यथा) = जैसे (एषु) = इन देवों में (सत्यं आहितम्) = सत्य स्थापित होता है। देव नीरोग होते है और कभी अनृत नहीं बोलते, इसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति व ऐश्वर्य प्राप्त कराए। यह मुझे तेज से सिक्त करे और सौन्दर्य से अलंकृत करे।

    भावार्थ

    वरणमणि [वीर्य] के रक्षण से जीवन सूर्यसम दीप्तिवाला होता है, जीवन चन्द्र की भाँति चमकता है, शरीर-रथ संभृत होता है, हमारी प्रवृत्ति यज्ञशीलतावाली होती है व हम नीरोगता तथा सत्य का धारण करते हुए देव बनते हैं।

    देववृत्ति का पुरुष अपने जीवन में 'गरुत्मान् तक्षक:'-[गरुतः अस्य सन्ति] विविध ज्ञानरूप पक्षावाला तथा निर्माता-निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसका चित्रण इसप्रकार है -

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (देवेषु) दिव्यगुणी व्यक्तियों में (अमृतम्) अमर-परमेश्वर या अमृतत्व अर्थात् मोक्ष, और (यथा) जैसे (एषु) इन में (सत्यम्) सत्यभाषण आदि व्यवहार (आहितम्) निहित होता है। (एवा) इसी प्रकार (मे) मुझ में (वरणः मणिः) श्रेष्ठरत्नरूपी शत्रुनिवारक-सेनाध्यक्ष (कीर्तिम्) कीर्ति को, और (भूतिम्) वैभव को (नि यच्छतु) नियत करे, स्थापित करें, (तेजसा) तेज से (मा) मुझे (समुक्षतु) सम्यक्-सींचे, (यशसा) यश द्वारा (मा) मुझे (समनक्तु) सम्यक्-कान्तिमान् करे।

    टिप्पणी

    [अमृतम्= न मरने वाला अमर-परमेश्वर, अ+मृ (मरणे) + क्तः, (कर्तरि)। अथवा अ+ मृ + क्तः (भावे), अर्थात् अमृतत्त्व, मोक्ष। मन्त्र में देवों में "यशः" का वर्णन नहीं किया, जैसे कि पूर्व के मन्त्रों में हुआ है। सम्भवतः मन्त्र में यह दर्शाया है कि "देवों" में अमृत और सत्य की स्थिति ही उन का "यशः" है।]

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    विषय

    वीर राजा और सेनापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (देवेषु) देव,दिव्य पदार्थ, अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश आदि ईश्वर के बनाये पदार्थों में (अमृतम्) जीवनप्रद सामर्थ्य और उनमें रहने वाला नित्य विशेष गुण और विद्वानों में परम ब्रह्मज्ञान रहता है और (यथा) जिस प्रकार (एषु) इन ‘देव’ विद्वान्, ब्रह्मज्ञ पुरुषों में (सत्यम्) सत्य (आ-हितम्) स्थिर है। (एवा मे वरणः मणिः० इत्यादि) उस प्रकार का यश कीर्त्ति और सम्पत्ति यह शत्रुवारक पुरुष मुझे प्राप्त करावे। और वह मुझे तेजस्वी और यशस्वी करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वरणो, वनस्पतिश्चन्द्रमाश्च देवताः। २, ३ ६ भुरिक् त्रिष्टुभः, ८ पथ्यापंक्तिः, ११, १६ भुरिजौ। १३, १४ पथ्या पंक्ती, १४-१७, २५ षट्पदा जगत्य:, १, ४, ५, ७, ९, १०, १२, १३, १५ अनुष्टुभः। पञ्चविशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Warding off Rival Adversaries

    Meaning

    As there is nectar and immortality in the divinities, and Truth is concentrated in these divinities, so may this Varana-mani bring me honour, fame and abundance of prosperity and good fortune. May it beatify me with light and lustre and anoint me with grace and glory.

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    Translation

    Just as there is immortality in the enlightened ones, and as the truth is set in them, even so may this protective blessing grant me fame and prosperity, sprinkle me with lustre, and anoint me with renown (glory).

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    Translation

    As immortality has been established in learned chestex men and the truth has been stored in them so this mighty Varana plant give me prosperity and fame. Let it the pour on me the lustre and unite me with fame.

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    Translation

    As enterprise and true resolve have been established in heroic persons desirous for victory, so may the Vedic knowledge give me fame and prosperity. With lustre let it sprinkle me, and balm me with magnificence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(देवेषु) विजिगीषुषु शूरेषु (अमृतम्) अमरणम्। पौरुषम् (सत्यम्) सत्यव्रतम्। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥

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