अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 11
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - साम्नी बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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यदह॑रहरभि॒गच्छा॑मि॒ तस्मा॑देन॒मव॑ दये ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अह॑:ऽअह: । अ॒भि॒ऽगच्छा॑मि । तस्मा॑त् । ए॒न॒म् । अव॑ । द॒ये॒ ॥७.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यदहरहरभिगच्छामि तस्मादेनमव दये ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अह:ऽअह: । अभिऽगच्छामि । तस्मात् । एनम् । अव । दये ॥७.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जो (अहरहः) दिन-दिन (अभिगच्छामि) सामने से पाता हूँ, (तस्मात्) उसी कारण से (एनम्) इस [कुमार्गी] को (अव दये) मार गिराता हूँ ॥११॥
भावार्थ
जैसे पूर्वज विद्वान्लोग बड़े-बड़े कष्ट सहकर दुराचारी असुरों को हराते आये हैं, वैसे ही मनुष्यक्लेशें सहकर दुष्टों को हराकर शिष्टों का पालन करते रहें ॥९, १०, ११॥
टिप्पणी
११−(यत्)कष्टम् (अहरहः) प्रतिदिनम् (अभिगच्छामि) अहमाभिमुख्येन प्राप्नोमि (तस्मात्)कारणात् (एनम्) दुष्टम् (अव दये) विनाशयामि ॥
विषय
दोष-विनाश
पदार्थ
१. प्रभु-प्रेरणा को सुनकर जीव उत्तर देता है कि (यत्) = जो (अदः अदः) = अमुक-अमुक दोष (अभ्यगच्छन्) = मेरे प्रति आता हो, (यत्) = जो दोष (दोषा) = रात्रि के समय आता है, (यत्) = जो (पूर्व रात्रिम्) = रात्रि के पूर्वभाग में मुझे प्राप्त होता है। मेरे न चाहते हुए भी रात्रि के समय जिस दोष से मैं आक्रान्त हो जाता हूँ। २. अथवा (यत्) = जिस दोष को (जाग्रत्) = जागते हुए, (यत्) = जिस दोष को मैं (सुप्तः) = सोये हुए, (यत्) = जिस दोष को (दिवः) = दिन में और (यत्) = जिस दोष को (नक्तम्) = रात्रि में, ३. (यत्) = जिस दोष को (अहरहः) = प्रतिदिन (अभिगच्छामि) = मैं प्राप्त होता हूँ, (एनाम्) = इस दोष को (तस्मात्) = संयम के द्वारा [सुयामन्], आत्मनिरीक्षण के द्वारा [चाक्षुष] तथा कुलीनता के विचार के द्वारा [आमुष्यामण] (अवदये) = सुदूर विनष्ट करता हूँ। [दय हिंसायाम्]।
भावार्थ
जो दोष मुझे रात्रि के समय आक्रान्त कर लेता है, या जिस दोष के प्रति मैं सोते-जागते चला जाता हूँ, उस दोष को 'संयम, आत्मनिरीक्षण व कुलीनता' के विचार से दूर करता हूँ-विनष्ट करता हूँ।
भाषार्थ
(यद्) जिसे (अहः अहः) दिन प्रतिदिन (अभि गच्छामि) मैं प्राप्त होता रहता हूं (तस्मात्) उस दुष्वप्न्य से (एनम्) इस अपने-आप को (अवदये) मैं छुड़ाता हूं, या मार्जन विधि द्वारा [मन्त्र ८] अपने-आप को सुरक्षित करता हूं ॥११॥
विषय
शत्रुदमन।
भावार्थ
(यत्) जो (अदः अदः) अमुक अमुक अपराध (अभि-अगच्छन्) मैं इस अपराधी का देखता हूं। (यत् दोषा यत् पूर्वां रात्रिम्) जो इस रात में और जो गयी पूर्व की रात्रि में और (यत् जाग्रत्) जो जागते हुए (यत् सुप्तः) जो सोते हुए (यत् दिवा, यत् नक्तम्) जो दिन को और जो रात्रि को और (यत्) जो (अहः-अहः) प्रतिदिन (अभिगच्छामि) इसका अपराध पाता हूं (तस्मात्) इस कारण से (एनम्) इस अपराधी को (अवदये) दण्डित करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यमऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १ पंक्तिः। २ साम्न्यनुष्टुप्, ३ आसुरी, उष्णिक्, ४ प्राजापत्या गायत्री, ५ आर्च्युष्णिक्, ६, ९, १२ साम्नीबृहत्यः, याजुपी गायत्री, ८ प्राजापत्या बृहती, १० साम्नी गायत्री, १२ भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप्, १३ आसुरी त्रिष्टुप्। त्रयोदशर्चं सप्तमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atma-Aditya Devata
Meaning
Whatever the dream I suffer day by day, of all that, I cleanse this mind and soul.
Translation
what I find day in and day out, therefrom I cut him off.
Translation
Whether I meet with day by day, I throw away from the cause of that evil.
Translation
Whether I find it day by day or by night, for that I punish him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(यत्)कष्टम् (अहरहः) प्रतिदिनम् (अभिगच्छामि) अहमाभिमुख्येन प्राप्नोमि (तस्मात्)कारणात् (एनम्) दुष्टम् (अव दये) विनाशयामि ॥
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