अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
ऋषिः - दुःस्वप्ननासन
देवता - आर्ची उष्णिक्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
63
योस्मान्द्वेष्टि॒ तमा॒त्मा द्वे॑ष्टु॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः स आ॒त्मानं॑ द्वेष्टु॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । तम् । आ॒त्मा । द्वे॒ष्टु॒ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । आ॒त्मान॑म् । द्वे॒ष्टु॒ ॥७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
योस्मान्द्वेष्टि तमात्मा द्वेष्टु यं वयं द्विष्मः स आत्मानं द्वेष्टु॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्मान् । द्वेष्टि । तम् । आत्मा । द्वेष्टु । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । आत्मानम् । द्वेष्टु ॥७.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [कुमार्गी] (अस्मान्) हम से (द्वेष्टि) बैर करता है, (तम्) उससे [उस का] (आत्मा) आत्मा (द्वेष्टु) बैर करे, (यम्) जिस [कुमार्गी] से (वयम्) हम (द्विष्मः) वैर करतेहैं, (सः) वह (आत्मानम्) [अपने] आत्मा से (देष्टु) वैर करे ॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! कुमार्गीपुरुष धर्मात्माओं का मार्ग छोड़ने से आप ही अपना वैरी बन जाता है ॥५॥
टिप्पणी
५−(यः)कुमार्गी (अस्मान्) धार्मिकान् (द्वेष्टि) वैरयति (तम्) दुष्टम् (आत्मा)तस्यात्मा (द्वेष्टु) वैरयतु (यम्) (वयम्) धार्मिकाः (द्विष्मः) वैरयामः (सः)दुराचारी (आत्मानम्) स्वकीयमात्मानम् (द्वेष्टु) ॥
विषय
समाज-विद्वेष-आत्मविद्वेष
पदार्थ
१. हे प्रभो! (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति द्वेष करता है, (तम्) = उसको (आत्मा द्वेष्टु) = आत्मा प्रीति न करनेवाला हो। (यं वयं द्विष्मः) = जिसको हम सब प्रीति नहीं कर पाते (सः आत्मानं द्वेष्टु) = वह अपने से प्रीति करनेवाला न हो। वस्तुत: जो एक व्यक्ति सारे समाज के प्रति प्रीतिवाला न होकर स्वार्थसिद्धि को ही महत्त्व देता है, वह सारे समाज का अप्रिय होकर अन्तत: अपनी ही दुर्गति कर बैठता है। यह समाजविद्वेष आत्म-अवनति का मार्ग है, अत: यह समाज के प्रति द्वेष करनेवाला व्यक्ति आत्मा का ही द्वेष कर रहा होता है। २. (द्विषन्तम्) = इस द्वेष करनेवाले को (दिवः निर्भजाम) = द्युलोक से दूर भगा दें[भज to put to flight]| केवल धुलोक से ही नहीं, (पृथिव्या निर्) [भजाम] = पृथिवीलोक से भी भगा दें तथा (अन्तरिक्षात् नि:) = अन्तरिक्ष से भी दूर भगा दें। इस द्वेष करनेवाले का इस त्रिलोकी में स्थान न हो। त्रिलोकी में कोई भी इसका न हो। त्रिलोकी से दूर भगाने का यह भी भाव है कि इसका मस्तिष्क. [धुलोक], हृदय [अन्तरिक्ष] व शरीर [पृथिवी] सभी विकृत हो जाएँ। इसके मस्तिष्क हृदय व शरीर की शक्ति का भंग हो जाए। द्वेष का यह परिणाम स्वाभाविक है।
भावार्थ
समाजविद्वेष्य पुरुष वस्तुत: आत्मा की अवनति करता हुआ अपने से ही द्वेष करता है। इसके लिए त्रिलोकी में स्थान नहीं रहता। यह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' सभी को विकृत कर लेता है।
भाषार्थ
अथवा (यः) जो द्वेष्टा और शप्ता आदि (अस्मान्) हम प्रजाजनों के साथ (द्वेष्टि) द्वेष करता है (तम्) उस के साथ (आत्मा) उस की निज आत्मा (द्वेष्टु) द्वेष करने लगे, और (यम्) जिस प्रजाद्वेष्टा के साथ (वयम्) हम प्रजाजन (द्विष्मः) द्वेष करते हैं (सः) वह (आत्मानम्) अपने-आप के साथ (द्वेष्टु) स्वयं द्वेष करने लगे।
टिप्पणी
[मन्त्र ४ में "अनेव" द्वारा कठोर-विधि से भिन्न-विधि का निर्देश किया है, अपराधी को अपराध से हटाने के लिये। यह शिक्षा की विधि है। अपराधी को बन्दीकृत कर, उस की नैतिक तथा आत्मिक-शिक्षा के द्वारा उस की आत्मा को जागरित कर पवित्र करना चाहिये, ताकि द्वेष्टा की आत्मा द्वेष्टा के साथ स्वयं द्वेष करने लगे, और द्वेष्टा का सुधार इस विधि से हो जाय। या शिक्षा के कारण द्वेष्टा यह समझने लग जाये कि प्रजाजनों का बहुपक्ष जिस कर्म को बुरा समझता है उस कर्म का त्याग वह स्वयं कर दे, अर्थात् उस कर्म को घृणित जान कर वह उसे अपने-आप त्याग दे। यह शिक्षा विधि भी दंष्ट्रारूप है। क्योंकि यह विधि अपराधी के अपराध को तो पीस देती है, परन्तु उस के व्यक्तित्व को नहीं पीसती।
विषय
शत्रुदमन।
भावार्थ
(यः) जो (अस्मान्) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करता है (तम्) उसको (आत्मा) उसका अपना आत्मा (द्वेष्टु) द्वेष करे और (यं वयं द्विष्मः) जिससे हम द्वेष करते हैं (सः आत्मानं द्वेष्टु) वह भी अपने ही साथ द्वेष करे। शत्रु के राज्य में भेद नीति का प्रयोग करना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यमऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १ पंक्तिः। २ साम्न्यनुष्टुप्, ३ आसुरी, उष्णिक्, ४ प्राजापत्या गायत्री, ५ आर्च्युष्णिक्, ६, ९, १२ साम्नीबृहत्यः, याजुपी गायत्री, ८ प्राजापत्या बृहती, १० साम्नी गायत्री, १२ भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप्, १३ आसुरी त्रिष्टुप्। त्रयोदशर्चं सप्तमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atma-Aditya Devata
Meaning
Whoever hates us, his own conscience would reject him in that, and whoever we hate would arraign his own conscience.
Translation
Whoever hates us, may his own self hate him; may he whom we hate, hate his own self.
Translation
May his soul hate him who hates us and may he whom we hate, hate himself.
Translation
Him who hates us may his soul hate, and may he whom we hate, hate himself.
Footnote
Him: The offender, culprit. Us: Virtuous people. An offender should be rebuked by his soul for hating good people. He should be ashamed and curs? himself on seeing that he incurs and the displeasure of godly persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यः)कुमार्गी (अस्मान्) धार्मिकान् (द्वेष्टि) वैरयति (तम्) दुष्टम् (आत्मा)तस्यात्मा (द्वेष्टु) वैरयतु (यम्) (वयम्) धार्मिकाः (द्विष्मः) वैरयामः (सः)दुराचारी (आत्मानम्) स्वकीयमात्मानम् (द्वेष्टु) ॥
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