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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८९
    43

    दोहे॑न॒ गामुप॑ शिक्षा॒ सखा॑यं॒ प्र बो॑धय जरितर्जा॒रमिन्द्र॑म्। कोशं॒ न पू॒र्णं वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्ट॒मा च्या॑वय मघ॒देया॑य॒ शूर॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दोहे॑न । गाम् । उप॑ । श‍ि॒क्ष॒ । सखा॑यम् । प्र । बो॒ध॒य॒ । ज॒रि॒त॒: । जा॒रम् । इन्द्र॑म् ॥ कोश॑म् । न । पू॒र्णम् । वसु॑ना । निऽऋ॑ष्टम् । आ । च्य॒व॒य॒ । म॒घ॒ऽदेया॑य । शूर॑म् ॥८९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दोहेन गामुप शिक्षा सखायं प्र बोधय जरितर्जारमिन्द्रम्। कोशं न पूर्णं वसुना न्यृष्टमा च्यावय मघदेयाय शूरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दोहेन । गाम् । उप । श‍िक्ष । सखायम् । प्र । बोधय । जरित: । जारम् । इन्द्रम् ॥ कोशम् । न । पूर्णम् । वसुना । निऽऋष्टम् । आ । च्यवय । मघऽदेयाय । शूरम् ॥८९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (जरितः) हे स्तुति करनेवाले विद्वान् ! (दोहेन) दूध दोहने के लिये (गाम्) गाय को [जैसे, वैसे] (जारम्) स्तुतियोग्य (सखायम्) मित्र (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े प्रतापी पुरुष] को (उप शिक्ष) तू ग्रहण कर और (प्र) अच्छे प्रकार (बोधय) जगा (वसुना) धन से (पूर्णम्) भरे हुए (कोशं न) कोश [धनागार] के समान (न्यृष्टम्) निश्चय को प्राप्त हुए (शूरम्) शूर को (मघदेयाय) पूजनीय पदार्थ के दान के लिये (आ च्यवय) आगे बढ़ा ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे अन्न आदि देकर प्रीति के साथ गाय से दूध लेते हैं, वैसे मनुष्य आदर सत्कार के साथ कर्मवीर पुरुष से पूजनीय व्यवहार की शिक्षा ग्रहण करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(दोहेन) दुग्धदोहनार्थम् (गाम्) धेनुम् (उप शिक्ष) शिक्षतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। उपपूर्वक आदाने। गृहाण (सखायम्) प्रियम् (प्र बोधय) प्रबुद्धं जागृतं कुरु (जरितः) हे स्तोतः (जारम्) जॄ स्तुतौ-घञ्, अर्शआद्यच्। स्तुतियोग्यम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (कोशम्) धनागारम् (न) यथा (पूर्णम्) पूरितम् (वसुना) धनेन (न्यृष्टम्) ऋषी गतौ-क्त। निश्चयगतम् (आ) अभिमुखम् (च्यवय) गमय (मघदेयाय) पूजनीयपदार्थस्य दानाय (शूरम्) वीरम् ॥

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    विषय

    गोदोहन-इन्द्र प्रबोधन

    पदार्थ

    १. (गां दोहेन) = वेदवाणीरूप गौ के दोहन से, अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा तू (सखायम्) = उस सनातन मित्र प्रभु को (उपशिक्षा) = समीपता से जाननेवाला हो। ज्ञानीभक्त बनकर तू प्रभु को आत्मतुल्य प्रिय हो 'ज्ञानी त्वात्मैव में मतम् । २. इस ज्ञान के द्वारा (जारित:) = स्तवन करनेवाले जीव| तू (जारम्) = विषय-वासनाओं को जीर्ण करनेवाले (इन्द्रम्) = उस असुरों के संहारक प्रभु को (प्रबोधय) = अपने हृदय में जागरित कर। इस प्रभुरूप सूर्य के उदय के साथ सब वासनान्धकार विलीन हो जाएगा। ३. ये प्रभु (कोशं न पूर्णम्) = एक पूर्ण कोश के समान हैं-प्रभु की प्राप्ति से तेरी सब कामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी। (वसुना) = निवास के लिए आवश्यक सब धनों से (न्यृष्टम्) = ये प्रभु निश्चय से युक्त हैं। सम्पूर्ण वसु उस प्रभु की ओर ही प्रवाहवाले हैं [ऋष् to flow]| प्रभु को प्राप्त कर लेने पर इनकी प्राति तो हो ही जाती है, इसलिए तू (शूरम्) = सब धनों के विजेता तथा सब बुराइयों को शीर्ण करनेवाले उसे प्रभु को (मघदेयाय) = ऐश्वयों के देने के लिए (आच्यावय) = अपने अभिमुख कर। प्रभु की प्राप्ति में ही सब धनों की प्राप्ति है।

    भावार्थ

    हम ज्ञानधेनु का दोहन करें। प्रभु के प्रकाश को हदय में प्राप्त करने का प्रयत्न करें। प्रभु ही सब धनों के कोश है-प्रभु-प्राप्ति में सब धनों की प्राप्ति है।

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    भाषार्थ

    हे उपासक! (गाम्) वेदवाणी से (दोहने) दुहे ज्ञान द्वारा तू (सखायम्) अपने साथी उपासक को (उप शिक्ष) उपासना की शिक्षा दिया कर। और (जरितः) हे स्तुति करनेवाले! अपनी स्तुतियों द्वारा, (जारम्) आसुरी-प्रवृत्तियों को जीर्ण-शीर्ण कर देनेवाले (इन्द्रम्) परमेश्वर को, (प्रबोधय) अपनी और सदा जागरूक रखा कर। (न) जैसे (वसुना पूर्णम्) धन से परिपूर्ण (कोशम्) खजाने को (न्यृष्टम्) लुढ़का कर धन प्राप्त कर लिया जाता है, वैसे (शूरम्) दानशूर परमेश्वर को, (मघदेयाय) आध्यात्मिक-धन के देने के लिए, (आ च्यावय) अपनी ओर पूर्णतया प्रेरित कर ले।

    टिप्पणी

    [न्यृष्टम्=नि+ऋष् (गतौ)+क्त।]

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    विषय

    राजा परमेश्वर।

    भावार्थ

    हे (जरितः) स्तुतिशील विद्वन् ! (दोहेन) दुग्धदोहन के निमित्त जिस प्रकार (गाम्) गौ को प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार आन्तरिक रस प्राप्त करने के लिये भी (गाम्) व्यापक, या सूर्यस्वरूप आत्मा को (उपशिक्ष) प्राप्त कर। और (जारम्) अपने चिर निवास से देहों और इन्द्रियों को कालवश जीर्ण कर देने वाले (इन्द्रम्) भीतरी साक्षात् प्रत्यक्ष होने वाले, स्वयंद्रष्टा भोक्ता (सखायम्) अपने समान नाम वाले मित्र स्वरूप सखा, आत्मा को (प्र बोधय) ज्ञानवान् कर। और (वसुना पूर्णं) धन से भरे पूरे (कोशम्) खजाने को जिस प्रकार ऐश्वर्य को सुरक्षित करने के लिये सेवन किया जाता है उसी प्रकार (मघ देयाय) ऐश्वर्य की रक्षा के लिये (न्यृष्टम्) सबके आश्रयभूत, (शूरम्) शूरवीर इन्द्र को (आ च्यावय) नियुक्त कर राजा के पक्ष में—दोहन के लिये गौ के समान उपगन्तव्य राजा का आश्रय लो. (जारम्) शत्रुओं के नाशक (इन्द्रम्) सेनापति को जागृत करो, सदा सावधान करो। खजाने के समान धन से पूर्ण राजा को ही ऐश्वर्य के संग्रह के लिये नियुक्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कृष्णा ऋषिः। इन्दो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    mind, refine and energise your voice of adoration, send it in to your friend Indra, the soul within, and, like a treasurehold overflowing with wealth of light, stir it, wake up the brave soul for the gift of excellence and grandeur.

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    Translation

    O praising man, you draw the mighty ruler, your friend to you like a cow at the time of milking, you make this praiseworthy one alert in his dutiés and you make this bold one haste to give us the riches even as a vessal filled with treasure to the brina.

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    Translation

    O praising man, you draw the mighty ruler, your friend to you like a cow at the time of milking, you make this praiseworthy one alert in his duties and you make this bold one haste to give us the riches even as a vassal filled with treasure to the brina.

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    Translation

    O Dear Lord of fortunes, why do the people call Thee the Bounteous nourisher or Protector? (Because Thou feedest all and protectest all) I (Thy devotee) hear Thee as the Latent Inspirer of all, pleasest Thou to sharpen my intellect. Let my intelligence be active and smart. O Powerful Lord of fortunes, fully invest us with fortunes, full of all sorts of riches and wealth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(दोहेन) दुग्धदोहनार्थम् (गाम्) धेनुम् (उप शिक्ष) शिक्षतिर्दानकर्मा-निघ० ३।२०। उपपूर्वक आदाने। गृहाण (सखायम्) प्रियम् (प्र बोधय) प्रबुद्धं जागृतं कुरु (जरितः) हे स्तोतः (जारम्) जॄ स्तुतौ-घञ्, अर्शआद्यच्। स्तुतियोग्यम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (कोशम्) धनागारम् (न) यथा (पूर्णम्) पूरितम् (वसुना) धनेन (न्यृष्टम्) ऋषी गतौ-क्त। निश्चयगतम् (आ) अभिमुखम् (च्यवय) गमय (मघदेयाय) पूजनीयपदार्थस्य दानाय (शूरम्) वीरम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (জরিতঃ) হে স্তুতিকারী বিদ্বান্ ! (দোহেন) দুগ্ধ দোহনের জন্য (গাম্) গাভীকে [যেভাবে, সেভাবে] (জারম্) স্তুতিযোগ্য (সখায়ম্) মিত্র (ইন্দ্রম্) ইন্দ্রকে [শ্রেষ্ঠ প্রতাপী পুরুষকে] (উপ শিক্ষ) তুমি গ্রহণ করো এবং (প্র) উত্তম প্রকারে (বোধয়) জাগ্রত করো, (বসুনা) ধন দ্বারা (পূর্ণম্) পূর্ণ (কোশং ন) কোশের [ধনাগার] সমান (ন্যৃষ্টম্) সুনিশ্চিত/নিশ্চয় প্রাপ্ত (শূরম্) বীরকে (মঘদেয়ায়) পূজনীয় পদার্থ দানের জন্য (আ চ্যবয়) সম্মুখে অগ্রসর করাও/প্রেরণ করো॥২॥

    भावार्थ

    যেভাবে অন্নাদি প্রদানপূর্বক প্রীতির সহিত দুগ্ধবতী গাভী থেকে দুগ্ধ দোহন করা হয়, তেমনই মনুষ্য আদর-সৎকারপূর্বক কর্মবীর পুরুষ হতে পূজনীয় ব্যবহারের শিক্ষা গ্রহণ করে/করুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    হে উপাসক! (গাম্) বেদবাণী দ্বারা (দোহনে) দুহিত জ্ঞান দ্বারা তুমি (সখায়ম্) নিজের সাথী উপাসককে (উপ শিক্ষ) উপাসনার শিক্ষা প্রদান করো। এবং (জরিতঃ) হে স্তোতা! নিজের স্তুতি দ্বারা, (জারম্) আসুরিক-প্রবৃত্তি-সমূহকে জীর্ণ-শীর্ণকারী (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরকে, (প্রবোধয়) নিজের দিকে সদা জাগরূক রাখো। (ন) যেমন (বসুনা পূর্ণম্) ধন দ্বারা পরিপূর্ণ (কোশম্) কোশকে (ন্যৃষ্টম্) নিঃশেষ করে ধন প্রাপ্ত করা হয়, তেমনই (শূরম্) দানবীর পরমেশ্বরকে, (মঘদেয়ায়) আধ্যাত্মিক-ধন প্রদানের জন্য, (আ চ্যাবয়) নিজের দিকে পূর্ণরূপে প্রেরিত করো।

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