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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८९
    32

    प्र यम॒न्तर्वृ॑षस॒वासो॒ अग्म॑न्ती॒व्राः सोमा॑ बहु॒लान्ता॑स॒ इन्द्र॑म्। नाह॑ दा॒मानं॑ म॒घवा॒ नि यं॑स॒न्नि सु॑न्व॒ते व॑हति॒ भूरि॑ वा॒मम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यम् । अ॒न्त: । वृ॒ष॒ऽस॒वास॑: । अज्म॑न् । ती॒व्रा: । सोमा॑: । ब॒हु॒लऽअ॑न्तास: । इन्द्र॑म् ॥ न । अह॑ । दा॒मान॑म् । म॒घऽवा॑ । नि । यं॒स॒त् । नि । सु॒न्व॒ते । व॒ह॒ति॒ । भूरि॑ । वा॒मम् ॥८९.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यमन्तर्वृषसवासो अग्मन्तीव्राः सोमा बहुलान्तास इन्द्रम्। नाह दामानं मघवा नि यंसन्नि सुन्वते वहति भूरि वामम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यम् । अन्त: । वृषऽसवास: । अज्मन् । तीव्रा: । सोमा: । बहुलऽअन्तास: । इन्द्रम् ॥ न । अह । दामानम् । मघऽवा । नि । यंसत् । नि । सुन्वते । वहति । भूरि । वामम् ॥८९.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े प्रतापी मनुष्य] को (वृषसवासः) बलवानों को ऐश्वर्य देनेवाले, (तीव्राः) तीक्ष्ण स्वभाववाले और (बहुलान्तासः) बहुत ज्ञान को अन्त [सिद्धान्त] में रखनेवाले (सोमाः) सोम [तत्त्वरस] (अन्तः) भीतर [हृदय में] (प्र अग्मन्) प्राप्त हो गये हैं। (मघवा) वह धनवान् पुरुष (अह) निश्चय करके (दामानम्) दान को (न) नहीं (नि यंसत्) रोक सकता है वह (सुन्वते) तत्त्वरस निचोड़नेवाले को (भूरि) बहुत (वामम्) उत्तम धन (नि) नित्य (वहति) पहुँचाता है ॥८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य निश्चित सिद्धान्तों पर दृढ़ होकर चले, उस वीर से दूसरे विद्वान् शिक्षा लेकर बहुत धन प्राप्त करें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(प्र) प्रकर्षेण (यम्) (अन्तः) मध्ये। हृदये (वृषसवासः) वृषभ्यो बलवद्भ्यः सवाः ऐश्वर्याणि सकाशात् ते तथाभूताः (अग्मन्) प्राप्तवन्तः (तीव्राः) तीक्ष्णाः (सोमाः) तत्त्वरसाः (बहुलान्तासः) बहुलं बहुज्ञानम् अन्ते सिद्धान्ते येषां ते (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (न) निषेधे (अह) एव (दामानम्) ददातेः-मनिन्। दानम् (मघवा) धनवान् (नि) (यंसत्) यमु उपरमे-लेट्। उपरतं निरुद्धं कुर्यात् (नि) नित्यम् (सुन्वते) तत्त्वं निष्पादयते पुरुषाय (वहति) प्रापयति (भूरि) प्रभूतम् (वामम्) वननीयं धनम् ॥

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    विषय

    बहुलान्त सोम

    पदार्थ

    १. (यम् इन्द्रम्) = जिस जितेन्द्रिय पुरुष को (सीना:) = रोगकृमिरूप शत्रुओं के लिए उन (बहुलान्तास:) = मानव-जीवन में कृष्णपक्ष का अन्त और शुक्लपक्ष को लानेवाले (वृषसवास:) = शक्तिशाली पुरुष को जन्म देनेवाले (सोमा:) = सोमकण (अन्तःअग्मन्) = अन्दर प्राप्त होते हैं, अर्थात् जिस जितेन्द्रिय पुरुष के शरीर में ये सोमकण व्याप्त होते हैं उस (दामानम्) = कटिबन्धनवाले [दामन् girdle], नियमित जीवनवाले पुरुष को (अह) = निश्चय से (मघवा) = ऐश्वर्यशाली प्रभु न (नियंसत) = कैद में नहीं डालते, अर्थात् यह पुरुष बारम्बार बन्धन में नहीं पड़ता। यह सोम-रक्षण जहाँ उसे शक्तिशाली व नीरोग बनाता है, वहाँ उसे उज्ज्वल जीवनवाला भी बनाता है। शुक्लमार्ग से चलता हुआ यह व्यक्ति उस लोक को प्राप्त करता है, जहाँ से इसे फिर इस मानव आवर्त के बन्धन में नहीं आना पड़ता। २. सुन्वते-इस सोमाभिषव करनेवाले पुरुष के लिए भूरि-पालन-पोषण के लिए पर्याप्त वामम्-सुन्दर धन निवहति-निश्चय से प्राप्त कराते हैं। सोम-रक्षण से जहाँ परलोक में निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, वहाँ यह सोम-रक्षण इस लोक के अभ्युदय को भी प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    सोम-रक्षण 'अभ्युदय व नि:श्रेयस' दोनों का साधक है।

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    भाषार्थ

    (यम्) जिस (इन्द्रम् अन्तः) परमेश्वर के भीतर—(वृषसवासः) वर्षा सी करनेवाले, (बहुलान्तासः) अति रमणीय (तीव्राः सोमाः) तीव्र प्रवाही भक्तिरस (प्र अग्मन्) प्राप्त हो चुके हैं, वह (मघवा) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर, उपासक पर, (अह) निश्चय से, (दामानम्) कर्मों की रस्सी के फंदे को (न) नहीं (नियंसत्) जकड़ता, अपितु (नि सुन्वते) भक्तिरस के निष्पादक के लिए (भूरि) प्रभूत (वामम्) तथा प्रशस्त आध्यात्मिक-सम्पत्ति (वहति) प्राप्त कराता है। [अन्तः=रम्य (आप्टे)।]

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    विषय

    राजा परमेश्वर।

    भावार्थ

    (यम्) जिस (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् आत्मा के (अन्तः) भीतर ही भीतर (वृषसवासः) बलवान् प्राणों द्वारा उत्पन्न, (बहुलान्ता सः) प्रभूत बल और सत्यज्ञान को धारण करने वाले (तीव्राः) तीव्र अति प्रबल स्वरूप में (सोमाः) ब्रह्मानन्दरस (प्र अग्मन्) प्राप्त होते हैं। वह (मघवा) ऐश्वर्यवान् आत्मा (दामानं) उन रसों के देने वाले को क्या (नअह) कुछ भी नहीं (नियं सत्) देता ? नहीं, उसको तो वह (भूरि) बहुतसा (वामम्) सुन्दर ऐश्वर्य (नि वहति) प्रदान करता है। परमात्मा के पक्ष में—जिस परमेश्वर के भीतर उसके आश्रित (वृषसवासः) बलवान् साधनों से उत्पन्न ‘बहुल’, अन्धकारमय मोह रात्रि का अन्त कर देने वाले (तीव्राः सोमरसाः) तीव्र, तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी प्राप्त हैं क्या वह परमेश्वर (दामानं) आत्म समर्पण शील भक्त जीव को कुछ नहीं देता ? नहीं। वह उसको बहुत ऐश्वर्य देता है। राजा के पक्ष में—(वृषसवासः तीव्राः सोमाः) बलवान् पुरुषों से अभिषिक्त, तीव्र स्वभाव के राजा जिस महान् राजा के वश में हैं क्या वह महान् सम्राट् अपने समर्पण करने वाले आश्रित को कुछ नहीं देता ? नहीं, वह उसको बड़ा ऐश्वर्य देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कृष्णा ऋषिः। इन्दो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    purposes and social values, that ruler, commanding wealth, power and majesty, does not impose any restrictions upon such veteran and generous artists, instead he provides manifold inspiring incentives to the creative minds.

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    Translation

    The wealthy bold king to whose heart strong Soma-juice (the juice of the herbs of Soma-group) giving strength to strong ones and accompanied with thick resideue go, does not restrict his bounty to giver of these juices and he gives much wealth to Soma-presser.

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    Translation

    The wealthy bold king to whose heart strong Some-juice (the juice of the herbs of Soma-group) giving strength to strong ones and accompanied with thick residue go, does not restrict his bounty to giver of these juices and he gives much wealth to Soma-presser.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(प्र) प्रकर्षेण (यम्) (अन्तः) मध्ये। हृदये (वृषसवासः) वृषभ्यो बलवद्भ्यः सवाः ऐश्वर्याणि सकाशात् ते तथाभूताः (अग्मन्) प्राप्तवन्तः (तीव्राः) तीक्ष्णाः (सोमाः) तत्त्वरसाः (बहुलान्तासः) बहुलं बहुज्ञानम् अन्ते सिद्धान्ते येषां ते (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं पुरुषम् (न) निषेधे (अह) एव (दामानम्) ददातेः-मनिन्। दानम् (मघवा) धनवान् (नि) (यंसत्) यमु उपरमे-लेट्। उपरतं निरुद्धं कुर्यात् (नि) नित्यम् (सुन्वते) तत्त्वं निष्पादयते पुरुषाय (वहति) प्रापयति (भूरि) प्रभूतम् (वामम्) वननीयं धनम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যম্) যে (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরম্ প্রতাপী মনুষ্য] (বৃষসবাসঃ) বলবানদের ঐশ্বর্য প্রদানকারী, (তীব্রাঃ) দৃঢ় স্বভাবযুক্ত এবং (বহুলান্তাসঃ) বহু জ্ঞান নিশ্চিত সিদ্ধান্তে স্থাপনকারী (সোমাঃ) সোম [তত্ত্বরস] (অন্তঃ) অভ্যন্তরে [হৃদয়ে] (প্র অগ্মন্) প্রাপ্ত হয়েছে। (মঘবা) সেই ধনবান্ পুরুষ (অহ) নিশ্চিতরূপে (দামানম্) দানকে (ন) না (নি যংসৎ) রোধ করতে সক্ষম, সেই ধনবান্ পুরুষ (সুন্বতে) তত্ত্বরস নিষ্পাদনকারীকে (ভূরি) বহু (বামম্) উত্তম ধন (নি) নিত্য (বহতি) পৌঁছে দেন ॥৮॥

    भावार्थ

    যে বীর মনুষ্য নিশ্চিত সিদ্ধান্তে দৃঢ়, সেই বীরের নিকট অন্য বিদ্বান্ শিক্ষা গ্রহণ করে পর্যাপ্ত ধন প্রাপ্ত করুক॥৮॥

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    भाषार्थ

    (যম্) যে (ইন্দ্রম্ অন্তঃ) পরমেশ্বরের ভেতর—(বৃষসবাসঃ) বর্ষণকারী, (বহুলান্তাসঃ) অতি রমণীয় (তীব্রাঃ সোমাঃ) তীব্র প্রবাহী ভক্তিরস (প্র অগ্মন্) প্রাপ্ত, সেই (মঘবা) ঐশ্বর্যশালী পরমেশ্বর, উপাসকের ওপর, (অহ) নিশ্চিতরূপে, (দামানম্) কর্মের রজ্জুর বন্ধনকে (ন) না (নিয়ংসৎ) বাঁধেন/নিবন্ধ করেন, অপিতু (নি সুন্বতে) ভক্তিরসের নিষ্পাদকের জন্য (ভূরি) প্রভূত (বামম্) তথা প্রশস্ত আধ্যাত্মিক-সম্পত্তি (বহতি) প্রাপ্ত করান। [অন্তঃ=রম্য (আপ্টে)।]

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