अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 7
आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑। अ॒स्मे धे॑हि॒ यव॑म॒द्गोम॑दिन्द्र कृ॒धी धियं॑ जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रात् । शत्रू॑न् । अप॑ । बा॒ध॒स्व॒ । दू॒रम् । उ॒ग्र: । य: । शम्ब॑: । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । तेन॑ ॥ अ॒स्मै इति॑ । धे॒हि॒ । यव॑ऽमत् । गोऽम॑त् । इ॒न्द्र॒ । कृ॒धि । धिय॑म् । ज॒रि॒त्रे । वाज॑ऽरत्नाम् ॥८९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
आराच्छत्रुमप बाधस्व दूरमुग्रो यः शम्बः पुरुहूत तेन। अस्मे धेहि यवमद्गोमदिन्द्र कृधी धियं जरित्रे वाजरत्नाम् ॥
स्वर रहित पद पाठआरात् । शत्रून् । अप । बाधस्व । दूरम् । उग्र: । य: । शम्ब: । पुरुऽहूत । तेन ॥ अस्मै इति । धेहि । यवऽमत् । गोऽमत् । इन्द्र । कृधि । धियम् । जरित्रे । वाजऽरत्नाम् ॥८९.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(पुरुहूत) हे बहुत प्रकार बुलाये गये ! [वीर] (यः) जो (शम्बः) तेरा वज्र (उग्रः) प्रचण्ड है, (तेन) उससे (शत्रुम्) शत्रु को (आरात्) दूर से (दूरम्) दूर (अप बाधस्व) हटा दे। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े प्रतापी वीर] (अस्मे) हमको (यवमत्) अन्नवाला (गोमत्) विद्याओं और गौओं वाला धन (धेहि) दे और (जरित्रे) स्तोता [गुण प्रसिद्ध करनेवाले] कि लिये (धियम्) बुद्धि को (वाजरत्नाम्) बलों और सुवर्ण आदि रत्नोंवाली (कृधि) कर ॥७॥
भावार्थ
वीर प्रधान पुरुष अपने प्रचण्ड दण्डदान से शत्रुओं को हटाकर प्रजागणों को विद्याद्वारा पराक्रमी और धनाढ्य बनावे ॥७॥
टिप्पणी
७−(आरात्) दूरात् (शत्रुम्) (अप बाधस्व) अपगमय (दूरम्) (उग्रः) प्रचण्डः (यः) (शम्बः) अ० ९।२।६। शम्ब इति वज्रनाम, शमयतेर्वा शाततेर्वा-निरु० ।२४। वज्रः (पुरुहूत) हे बहुविधाहूत (तेन) वज्रेण (अस्मे) अस्मभ्यम् (धेहि) देहि (यवमत्) अन्नयुक्तम् (गोमत्) गोभिर्विद्याभिर्धेनुभिश्च युक्तं धनम् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् वीर (कृधि) कुरु (धियम्) प्रज्ञाम् (जरित्रे) स्तोत्रे (वाजरत्नाम्) वाजैर्बलैः सुवर्णादिरत्नैश्च युक्ताम् ॥
विषय
रमणीय शक्ति व बुद्धि
पदार्थ
१. हे (पुरुहूत) = बहुतों-से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (यः) = जो आपका (उग्र:) = तीव्र (शम्ब:) = वज्र है, (तेन) = उस शत्रुओं को शान्त [शंब] करनेवाले वन से (आरात् शत्रुम्) = इस समीप आनेवाले शत्रु को (दूरम्) = सुदूर (अपवाधस्व) = विनष्ट करनेवाले होइए। वस्तुतः प्रभु ने हमें यह क्रियाशीलतारूप वन दिया है। इसी से हमने काम आदि शत्रुओं को दूर भगाना है। २. हे प्रभो। (अस्मे) = हमारे लिए आप (यवमत्) = जीवाले व (गोमत्) = गौओंवाले, अर्थात गोदाध से युक्त अन्न को (धेहि) = धारण कीजिए। जौ इत्यादि अन्नों से हममें प्राणशक्ति का वर्धन होगा और गोदुग्ध से हमें सात्त्विक बुद्धि प्राप्त होगी। ३. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (जरित्रे) = स्तोता के लिए (वाजरत्नाम्) = रमणीय शक्तियोंवाली (धियम्) = बुद्धि को (कृधि) = कीजिए। आपका स्तोता जहाँ बुद्धि को प्रास करे, वहाँ उसे रमणीय शक्तियों भी प्राप्त हों। शक्तियों की रमणीयता इसी में है कि वह रक्षा के कार्य में विनियुक्त होती है-ध्वंस के कार्य में नहीं।
भावार्थ
हम क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा वासना को नष्ट करें। जी व गोदुग्ध का प्रयोग करते हुए रमणीय शक्ति व बुद्धि को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(पुरुहूत) बहुतों द्वारा या बहुत नामों द्वारा पुकारे गये, हे परमेश्वर! आप का (यः) जो (शम्बः) शान्त कर देनेवाला (उग्रः) उग्र बल है, (तेन) उसके द्वारा, (आरात्) समीपवर्ती अर्थात् चित्तों में बसे (शत्रुम्) कामादि शत्रु को (दूरम् अप बाधस्व) दूर हटा दीजिए। (इन्द्र) और हे परमेश्वर! (यवमद्) जौं आदि सात्त्विक अन्न, तथा (गोमत्) सात्त्विक गोदुग्ध (अस्मे) हमें (धेहि) प्रदान कीजिए। इस प्रकार (जरित्रे) अपने स्तोता के लिए (धियम्) ऐसी बुद्धि (कृधि) प्रदान कीजिए जो कि (वाजरत्नाम्) आध्यात्मिक बलरूपी रत्न से सम्पन्न हो।
टिप्पणी
[अर्थात् हमारे पाप दूर हो जाएँ, सात्त्विक अन्न का हम सेवन करें, और हमारी बुद्धि पवित्र हो। वाजः=बलम् (निघं০ २.७)।]
विषय
राजा परमेश्वर।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! आत्मन् ! (यः) जो तेरा (शम्बः) शान्ति का साधन, तप या शत्रुशमन करने का साधन वज्र, वीर्य है, हे (पुरुहूत) बहुतों से स्तुति किये हुए ! तू (तेन) उसके बल पर (शत्रुम्) शत्रु को (आरात् दूरम्) दूर ही दूर से (अप बाधस्व) पीड़ित कर। (अस्मै) हमें (यवमत्) अन्न और (गोमत्) पशुओं से सम्पन्न ऐश्वर्य (धेहि) प्रदान कर। और (जरित्रे) विद्वान् स्तुतिकर्त्ता पुरुष को (वाजरत्नाम्) वीर्य और ज्ञान से अति रमणीय (धियं) धारणाशक्ति, बुद्धि और क्रियाशक्ति को (कृधि) उत्पन्न कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्णा ऋषिः। इन्दो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
The ruler to whom powerful creations of generous and imaginative artists and inspiring somaic achievements of peaceful projects are offered and dedicated from within the land for highly generative purposes and social values, that ruler, commanding wealth, power and majesty, does not impose any restrictions upon such veteran and generous artists, instead he provides manifold inspiring incentives to the creative minds. The ruler to whom powerful creations of generous and imaginative artists and inspiring somaic achievements of peaceful projects are offered and dedicated from within the land for highly generative
Translation
O admired by many, O mighty ruler, you with that of your fierce bolt drive to a distance the foe-men from afar. You give us wealth in corn and cattle and make your admirers praise to gain strength and riches in previous metals.
Translation
O admired by many, O mighty ruler, you with that of your fierce bolt drive to a distance the foe-men from afar. You give us wealth in corn and cattle and make your admirers praise to gain strength and riches in previous metals.
Translation
Does the Glorious Lord of Fortunes, Whom the energetic, bliss-blessed devotees, with powerful, internal ‘means of attaining Dharm-megha, having cut off all ties of darkening attachment, attain in perfect meditation (i.e., smadhi) give nothing to the perfect devotee? Surely He infests the creative devotee with profuse wealth of glory and riches.
Footnote
Pt. Jaidev has applied the verse to the king, too.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(आरात्) दूरात् (शत्रुम्) (अप बाधस्व) अपगमय (दूरम्) (उग्रः) प्रचण्डः (यः) (शम्बः) अ० ९।२।६। शम्ब इति वज्रनाम, शमयतेर्वा शाततेर्वा-निरु० ।२४। वज्रः (पुरुहूत) हे बहुविधाहूत (तेन) वज्रेण (अस्मे) अस्मभ्यम् (धेहि) देहि (यवमत्) अन्नयुक्तम् (गोमत्) गोभिर्विद्याभिर्धेनुभिश्च युक्तं धनम् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् वीर (कृधि) कुरु (धियम्) प्रज्ञाम् (जरित्रे) स्तोत्रे (वाजरत्नाम्) वाजैर्बलैः सुवर्णादिरत्नैश्च युक्ताम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(পুরুহূত) হে বহু প্রকারে আহূত ! [বীর] (যঃ) যে (শম্বঃ) তোমার বজ্র (উগ্রঃ) প্রচণ্ড, (তেন) তা দ্বারা (শত্রুম্) শত্রুদের (আরাৎ) দূর থেকে (দূরম্) দূরান্তে (অপ বাধস্ব) বিতাড়িত করো। (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম প্রতাপী বীর] (অস্মে) আমাদের (যবমৎ) অন্ন (গোমৎ) বিদ্যা এবং গৌ ধন (ধেহি) প্রদান করো এবং (জরিত্রে) স্তোতার [গুণ প্রসিদ্ধকারীর] জন্য (ধিয়ম্) বুদ্ধি (বাজরত্নাম্) বল ও সুবর্ণ আদি রত্ন ধনযুক্ত (কৃধি) করো ॥৭॥
भावार्थ
বীর পুরুষ স্বীয় প্রচণ্ড দণ্ডদান দ্বারা শত্রুদের বিতাড়িত করে প্রজাদের বিদ্যা দ্বারা পরাক্রমশালী এবং ধনাঢ্য করে/করুক॥৭॥
भाषार्थ
(পুরুহূত) অনেকের দ্বারা বা বহু নাম দ্বারা আমন্ত্রিত, হে পরমেশ্বর! আপনার (যঃ) যে (শম্বঃ) শান্তকারী (উগ্রঃ) উগ্র বল আছে, (তেন) উহার দ্বারা, (আরাৎ) সমীপবর্তী অর্থাৎ চিত্তে অধিষ্ঠিত (শত্রুম্) কামাদি শত্রুকে (দূরম্ অপ বাধস্ব) দূর করুন। (ইন্দ্র) এবং হে পরমেশ্বর! (যবমদ্) যব আদি সাত্ত্বিক অন্ন, তথা (গোমৎ) সাত্ত্বিক গোদুগ্ধ (অস্মে) আমাদের (ধেহি) প্রদান করুন। এইভাবে (জরিত্রে) নিজের স্তোতার জন্য (ধিয়ম্) এমন বুদ্ধি (কৃধি) প্রদান করুন যা (বাজরত্নাম্) আধ্যাত্মিক বলরূপী রত্নসম্পন্ন।
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