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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रमा, सांमनस्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
    337

    अनु॑व्रतः पि॒तुः पु॒त्रो मा॒त्रा भ॑वतु॒ संम॑नाः। जा॒या पत्ये॒ मधु॑मतीं॒ वाचं॑ वदतु शन्ति॒वाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ऽव्रत: । पि॒तु: । पु॒त्र । मा॒त्रा । भ॒व॒तु॒ । सम्ऽम॑ना: । जा॒या । पत्ये॑ । मधु॑ऽमतीम् । वाच॑म् । व॒द॒तु॒ । श॒न्ति॒ऽवाम् ॥३०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽव्रत: । पितु: । पुत्र । मात्रा । भवतु । सम्ऽमना: । जाया । पत्ये । मधुऽमतीम् । वाचम् । वदतु । शन्तिऽवाम् ॥३०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    परस्पर मेल का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुत्रः) कुलशोधक पवित्र, बहुरक्षक वा नरक से बचानेवाला पुत्र [सन्तान] (पितुः) पिता के (अनुव्रतः) अनुकूल व्रती होकर (मात्रा) माता के साथ (संमनाः) एक मनवाला (भवतु) होवे। (जाया) पत्नी (पत्ये) पति से (मधुमतीम्) जैसे मधु में सनी और (शन्तिवाम्) शान्ति से भरी (वाचम्) वाणी (वदतु) बोले ॥२॥

    भावार्थ

    सन्तान माता पिता के आज्ञाकारी, और माता पिता सन्तानों के हितकारी, पत्नी और पति आपस में मधुरभाषी तथा सुखदायी हों। यही वैदिक कर्म आनन्दमूल है। मन्त्र १ देखो ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अनुव्रतः) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। इति वृञ् वरणे अतच्-कित्त्वाद् गुणाभावे यणादेशः। व्रतमिति कर्मनाम वृणोतीति सतः-निरु० २।१३। अनुकूलकर्मा। (पितुः) रक्षकस्य। जनकस्य (पुत्रः) अ० १।११।५ पुनातीति पुत्रः कुलशोधकः। पवित्रः। पुरुत्रात् पुतो नरकात् त्राता वा। सन्तानः। (मात्रा) अ० १।२।१। माननीयया जनन्या सह। (संमनाः) समानमनस्कः (जाया) अ० ३।४।३। जनयति वीरान्। भार्या। पत्नी। (पत्ये) भर्त्रे। (मधुमतीम्) क्षौद्रयुक्तां यथा। माधुर्यवतीम्। (शन्तिवाम्) शमु उपशमे-क्तिन्। छान्दसो ह्रस्वः। वप्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थे व प्रत्ययः। टाप्। शान्तियुक्ताम्। सुखोपेताम् ॥

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    विषय

    माता पिता के कल्याण के लिए प्रार्थना

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    मेरे प्यारे! देखो, बालक नाचिकेता से ब्रह्मचारी से आचार्य से कहा, हे ब्रह्मचारी! मैं तुम्हे तीन रात्रि और तीन दिवस तीन वरदान देता हूँतीन वचन देता हूँजो तुम्हारी इच्छा है, वह स्वीकार करोउन्होंने बालक ब्रह्मचारी नाचिकेता ने मुनिवरों! यमाचार्य से कहा हे भगवन! आपने यम को विजय कर लिया है, हे प्रभु! मेरी इच्छा यह है क्या जिस अभिलाषा से मेरे पिता विश्वश्रवा ने गऊं और द्रव्य सर्वत्र मानो देखो, याग में हूत कर दिया है, उन्होंने याग किया है, हे प्रभु! मेरे पिता की जिस अभिलाषा से उन्होंने किया है, वह उसकी पूर्ण हो जानी चाहिए।

    मेरे प्यारे! देखो, वह यमाचार्य ने उन्हें तथास्तु कह करके मेरे पुत्रों! देखो, सन्तुष्ट कर दिया।

    मेरे प्यारे! यह तो तुम्हे प्रतीत है कि मानो देखो, हमारे यहाँ महाराजा शान्तनु का वंशलज था, यह और महाराज शान्तनु के वंशलज में उनके पुत्र देवव्रत थे, और उनका संस्कार जो द्वितीय हुआ उससे विचित्र, वीर्य हुएपरन्तु विचित्र, वीर्य से दो पुत्र उत्पन्न हुए, एक तो अन्ध था, और एक पाण्डु था, धृतराष्ट्र और पाण्डु परन्तु जय अप्रतम क्योंकि देवव्रत ने अपने पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए सङ्कल्पबद्ध हो गएं

    भगवान का माता कैकेई की आज्ञा का पालन करके वन को जाना।

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    विषय

    - अनुव्रत पुत्र+मधुर पत्नी

    पदार्थ

    १. (पुत्र:) = पुत्र (पितुः) = पिता के (अनुव्रत:) = अनुकूल कर्म करनेवाला हो, (मात्रा संमनाः भवतु) = माता के साथ सामनस्यवाला हो, माता के प्रति शुभ विचारों से परिपूर्ण मनवाला हो। २. (जाया) = पत्नी (पत्ये) = पति के लिए (मधुमतीम्) = माधुर्य से भरी हुई (वाचं वदतु) = वाणी को बोले। (शान्तिवान्) = शान्तिशील पति भी पत्नी के साथ मीठी वाणी बोले।

    भावार्थ

    पुत्र माता-पिता का आज्ञाकारी हो तथा पत्नी पति के प्रति मधुर व्यवहारवाली हो |

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( पुत्रः ) = पुत्र  ( पितुः ) = पिता का  ( अनुव्रत: ) = अनुकूलव्रती हो कर  ( मात्रा ) = माता के साथ  ( संमना: ) = एक मनवाला  ( भवतु ) =  होवे ।  ( जाया ) = स्त्री  ( पत्ये ) = पति से  ( मधुमतीम् ) = मीठी  ( शन्तिवाम् ) = शान्ति देनेवाली  ( वाचम् ) = वाणी  ( वदतु ) = बोले ।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमात्मा का जीवों को उपदेश है कि पुत्र माता पिता के अनुकूल हो। स्त्री अपने पति को मधु जैसे मीठे और शान्तिदायक वचन बोला करे । घर में पिता पुत्र का और पुत्र माता का आपस में झगड़ा न हो और भार्या पति के लिए मीठे और शान्तिदायक वचन बोले, कभी कठोर शब्द का प्रयोग न करे। ऐसे बर्ताव करने से गृहस्थाश्रम स्वर्गाश्रम बन जाता है। इस गृहस्थाश्रम को स्वर्गाश्रम बनाना चाहिये ।

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    भाषार्थ

    (पुत्रः) पुत्र (पितुः अनुव्रतः) पिता के अनुकूल कर्मों को करनेवाला हो, (मात्रा संमनाः भवतु) और माता के साथ समान मनवाला हो। (जाया) पत्नी (पत्ये) पति के लिए (मधुमतीम्) मधुर अर्थात् मीठी, (शान्तिवाम्) तथा शान्तिप्रद (वाचम्) वाणी को (वदतु) बोला करे। व्रतम् कर्मनाम (निघं० २।१)

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    विषय

    परस्पर मिलकर एक चित्त होकर रहने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (पुत्रः) पुत्र (पितुः) पिता का (अनुव्रतः) आज्ञाकारी हो और (मात्रा) माता के साथ (सं मना) अनुकूल और सद्-हृदय वाला होकर (भवतु) रहे। और (जाया) स्त्री अपने (पत्ये) पति के लिये सदा (मधु-मतीम्) मधुर (शन्तिवाम् वाचम्) शान्तियुक्त, सुखमद, कल्याण वाणी को (वदतु) बोले।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘माता भवतु’ इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमाः सामनस्यञ्च देवता। १-४ अनुष्टुभः। ५ विराड् जगती। ६ प्रस्तार पंक्तिः। ७ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Love and Unity

    Meaning

    Let son be dedicated to father, one at heart and in mind, and with mother, in love and loyalty to family values and tradition. Let wife speak to husband in words sweet as honey conducive to love and peace in the family.

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    Translation

    May the son act in accordance with the father’s wishes; may he be of one mind with. the mother as well. May the wife talk to her husband in words sweet as honey, and soothing.

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    Translation

    Let the son be obedient to his father and in accordance with the mind of his mother. Let the wife speak to her husband calm gentle and sweet words.

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    Translation

    One-minded with his mother let the son be loyal to his sire. Let the wife speak to her husband words calm and gentle, and sweet as honey.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अनुव्रतः) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। इति वृञ् वरणे अतच्-कित्त्वाद् गुणाभावे यणादेशः। व्रतमिति कर्मनाम वृणोतीति सतः-निरु० २।१३। अनुकूलकर्मा। (पितुः) रक्षकस्य। जनकस्य (पुत्रः) अ० १।११।५ पुनातीति पुत्रः कुलशोधकः। पवित्रः। पुरुत्रात् पुतो नरकात् त्राता वा। सन्तानः। (मात्रा) अ० १।२।१। माननीयया जनन्या सह। (संमनाः) समानमनस्कः (जाया) अ० ३।४।३। जनयति वीरान्। भार्या। पत्नी। (पत्ये) भर्त्रे। (मधुमतीम्) क्षौद्रयुक्तां यथा। माधुर्यवतीम्। (शन्तिवाम्) शमु उपशमे-क्तिन्। छान्दसो ह्रस्वः। वप्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थे व प्रत्ययः। टाप्। शान्तियुक्ताम्। सुखोपेताम् ॥

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    बंगाली (3)

    পদার্থ

    অনুব্রতঃ পিতুঃ পুত্রো মাত্রা ভবতু সংমনাঃ।

    জায়া পত্যে মধুমতীং বাচং বদতু শন্তিবান্।।৯২।।

    (অথর্ব ৩।৩০।২)

    পদার্থঃ (পুত্রঃ) সন্তান (পিতুঃ) পিতার (অনুব্রতঃ) অনুকূলে কর্ম করুক, (মাত্রা) মাতার সাথে (সংমনাঃ) এক মন যুক্ত (ভবতু) হোক । (জায়া পত্যে) পতি পত্নী পরস্পর যেন  (মধুমতীম্) মধুর (শন্তিবান্) শান্তিদায়ক (বাচম্) বাণী (বদতু) বলে। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমাত্মা জীবদের উপদেশ দিচ্ছেন যে, সন্তান যেন মাতা পিতার অনুকূল হয়। স্ত্রী ও স্বামী দুজনেই যেন পরস্পরের  সাথে সুমিষ্ট এবং শান্তিদায়ক বচন বলে। গৃহে পিতা পুত্র ও মাতা পুত্রের নিজেদের ভেতর যেন ঝগড়া না করে। স্বামী স্ত্রী যেন মধুর ও শান্তিদায়ক বচন বলে, কখনো যেন কঠোর শব্দের প্রয়োগ না করে। এমন ব্যবহারের জন্য সেই গৃহস্থাশ্রম স্বর্গাশ্রম হয়ে যায়। আমাদের উচিত নিজ নিজ গৃহস্থাশ্রমকে স্বর্গাশ্রম বানানো।।৯২।।

     

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    भाषार्थ

    (পুত্রঃ) পুত্র (পিতুঃ অনুব্রতঃ) পিতার অনুকূল কর্মকারী/কর্তা হোক, (মাত্রা সংমনাঃ ভবতু) এবং মাতার সাথে সমান মনস্ক হোক। (জায়া) পত্নী (পত্নী) পতির জন্য (মধুমতীম্) মধুর অর্থাৎ মিষ্ট, (শন্তিবাম্) এবং শান্তিপ্রদ (বাচম্) বাণী (বদতু) বলুক। ব্রতম্ কর্মনাম (নিঘং০ ২।১)

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    मन्त्र विषय

    পরস্পরপ্রীত্যুদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুত্রঃ) কুল শোধক পবিত্র, বহুরক্ষক বা নরক থেকে রক্ষাকারী/রক্ষক/উদ্ধারকারী পুত্র [সন্তান] (পিতুঃ) পিতার (অনুব্রতঃ) অনুকূল ব্রতী হয়ে (মাত্রা) মাতার সাথে (সংমনাঃ) সমানমনস্ক (ভবতু) হোক। (জায়া) পত্নী (পত্যে) পতির সাথে (মধুমতীম্) মধুর এবং (শন্তিবাম্) শান্তির (বাচম্) বাণী (বদতু) করুক ॥২॥

    भावार्थ

    সন্তান মাতা পিতার আজ্ঞাকারী, এবং মাতা পিতা সন্তানদের হিতকারী, পত্নী ও পতি পরস্পরের সাথে মধুরভাষী এবং সুখদায়ী হোক। এই বৈদিক কর্ম আনন্দ মূল। মন্ত্র ১ দেখো ॥২॥

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