अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋषि: - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः, सांमनस्यम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
86
सहृ॑दयं सांमन॒स्यमवि॑द्वेषं कृणोमि वः। अ॒न्यो अ॒न्यम॒भि ह॑र्यत व॒त्सं जा॒तमि॑वा॒घ्न्या ॥
स्वर सहित पद पाठसऽहृ॑दयम् । सा॒म्ऽम॒न॒स्यम् । अवि॑ऽद्वेषम् । कृ॒णो॒मि॒ । व॒: । अ॒न्य: । अ॒न्यम् । अ॒भि । ह॒र्य॒त॒ । व॒त्सम् । जा॒तम्ऽइ॑व । अ॒घ्न्या ॥३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ॥
स्वर रहित पद पाठसऽहृदयम् । साम्ऽमनस्यम् । अविऽद्वेषम् । कृणोमि । व: । अन्य: । अन्यम् । अभि । हर्यत । वत्सम् । जातम्ऽइव । अघ्न्या ॥३०.१॥
विषय - परस्पर मेल का उपदेश।
पदार्थ -
(सहृदयम्) एकहृदयता, (सांमनस्यम्) एकमनता और (अविद्वेषम्) निर्वैरता (वः) तुम्हारे लिये (कृणोमि) मैं करता हूँ। (अन्यो अन्यम्) एक दूसरे को (अभि) सब ओर से (हर्यत) तुम प्रीति से चाहो (अघ्न्या इव) जैसे न मारने योग्य, गौ (जातम्) उत्पन्न हुए (वत्सम्) बछड़े को [प्यार करती है] ॥१॥
भावार्थ - ईश्वर उपदेश करता है, सब मनुष्य वेदानुगामी होकर सत्य ग्रहण करके एकमतता करें और आपा छोड़कर सच्चे प्रेम से एक दूसरे को सुधारें, जैसे गौ आपा छोड़कर तद्रूप होकर पूर्ण प्रीति से उत्पन्न हुए बच्चे को जीभ से चाटकर शुद्ध करती और खड़ा करके दूध पिलाती और पुष्ट करती है ॥१॥
टिप्पणी -
१−तैत्तिरीयारण्यक में पाठ है−ओ३म्। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। तैत्ति० आ० १०।१ ॥ ओ३म्। (सह) वही (नौ) हम दोनों को (अवतु) बचावे। (सह) वही (नौ) हम दोनों को (भुनक्तु) पाले। हम दोनों (सह) मिलकर (वीर्यम्) उत्साह (करवावहै) करें। (नौ) हम दोनों का (अधीतम्) पढ़ा हुआ (तेजस्वि) तेजस्वी (अस्तु) होवे। (मा विद्विषावहै) हम दोनों झगड़ा न करें ॥ भगवान् यास्क मुनि कहते हैं। (अघ्न्या) गौ का नाम है−निघ० २।११। वह अहन्तव्या, [अवध्या न मारने योग्य] अथवा, अघघ्नी [पाप अर्थात् शारीरिक दुःख अथवा दुर्भिक्षादि पीड़ा नाश करनेवाली] होती है−निरुक्त ११।४३ ॥ श्रीमान् महीधर यजुर्वेदभाष्य अ० १ म० १ में लिखते हैं−अघ्न्या गौएँ हैं। गोवध उपपातक ‘भारी पाप’ है, इसलिये वे न मारने योग्य ‘अघ्न्या’ कही जाती हैं ॥ १−(सहृदयम्) वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१०। इति हृञ् हरणे=स्वीकारे कयन्, दुक् च। सहस्य सभावः। सहग्रहणम्। सहवीर्यम्। (सांमनस्यम्) सम्+मनस्-भावे ष्यञ्। समानमननत्वम्। ऐकमत्यम् (अविद्वेषम्)। द्विष वैरे-घञ्। अशत्रुताम्। सख्यम् (कृणोमि) उत्पादयामि। (वः) युष्मभ्यम्। (अन्यो अन्यम्) छान्दसं द्विपदत्वम्। परस्परम्। (अभि) सर्वतः। (हर्यत) हर्य गतिकान्त्योः। कामयध्वम्। (वत्सम्) अ० ३।१२।३। गोशिशुम्। (जातम्) नवोत्पन्नम्। (इव) यथा। (अघ्न्या) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। नञि अघे वोपपदे हन्तेर्यगन्तो निपातः। गौः-निघ० २।११। अघ्न्याहन्तव्या भवत्यघघ्नीति वा-निरु० ११।४३। अघ्न्याः। गावः। गोवधस्योपपानकरूपत्वाद्धन्तुमयोग्या अघ्न्या उच्यन्ते-इति श्रीमन्महीधरे यजुर्वेदभाष्ये १।१ ॥
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Subject - Love and Unity
Meaning -
I create you as a community with love at heart, unity of mind and freedom from hate and jealousy. Let everyone love everyone and all others as the sacred, inviolable mother cow loves and caresses the new born baby calf.
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