अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
ऋषिः - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः, सांमनस्यम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
164
स॑ध्री॒चीना॑न्वः॒ संम॑नसस्कृणो॒म्येक॑श्नुष्टीन्त्सं॒वन॑नेन॒ सर्वा॑न्। दे॒वा इ॑वा॒मृतं॒ रक्ष॑माणाः सा॒यंप्रा॑तः सौमन॒सो वो॑ अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ध्री॒चीना॑न् । व॒: । सम्ऽम॑नस: । कृ॒णो॒मि॒ । एक॑ऽश्नुष्टीन् । स॒म्ऽवन॑नेन । सर्वा॑न् । दे॒वा:ऽइ॑व । अ॒मृत॑म् । रक्ष॑माणा: । सा॒यम्ऽप्रा॑त: । सौ॒म॒न॒स: । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥३०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्। देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठसध्रीचीनान् । व: । सम्ऽमनस: । कृणोमि । एकऽश्नुष्टीन् । सम्ऽवननेन । सर्वान् । देवा:ऽइव । अमृतम् । रक्षमाणा: । सायम्ऽप्रात: । सौमनस: । व: । अस्तु ॥३०.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर मेल का उपदेश।
पदार्थ
(संवननेन) यथावत् सेवन वा व्यापार से (वः सर्वान्) तुम सबको (सध्रीचीनान्) साथ-साथ गति [उद्योग वा ज्ञान] वाले, (संमनसः) एक मन वाले और (एकश्नुष्टीन्) एक भोजनवाले (कृणोमि) मैं करता हूँ। (देवाः इव) विजय चाहनेवाले पुरुषों के समान (अमृतम्) अमरपन [जीवन की सफलता] को (रक्षमाणाः) रखते हुए तुम [बने रहो] (सायं प्रातः) सायंकाल और प्रातःकाल में (सौमनसः) चित्त की प्रसन्नता (वः) तुम्हारे लिये (अस्तु) होवे ॥७॥
भावार्थ
‘देव’ पुरुषार्थी विजयी पुरुष मिलकर मृत्यु के कारण आलस्य आदि छोड़ने से अमर अर्थात् यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार सब मनुष्य आपस में मिलकर उद्योग करके सुखी रहें और सायं प्रातः दो काल परमेश्वर की आराधना करके चित्त प्रसन्न करें ॥७॥
टिप्पणी
७−(एकश्नुष्टीन्) ष्णसु अदने, आदाने, च-क्तिन्। एकभुक्तीन्। समानभोजनान्। (संवननेन) वन संभक्तौ-ल्युट्। सम्यक् सेवनेन व्यापारेण। (देवाः) विजिगीषवः। पुरुषार्थिनः। (अमृतम्) अमरत्वम्। जीवनसाफल्यम्। (रक्षमाणाः) पालयन्तो भवत-इति शेषः (सायंप्रातः) उभयसंध्याकाले। (सौमनसः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति सुमनस्-भावे अण्। सुमनसो भावः। सुहृद्भावः। चित्तप्रसादः। अन्यद्गतम् ॥
विषय
प्रात:-सायं परस्पर प्रेम से मिलना
पदार्थ
१. मैं (वः) = तुम सबको (सधीचीनान) = एक कार्य के करने में साथ-साथ (उद्युक्त संमनस:) = समान मनवाला (कृणोमि) = करता हूँ, (सर्वान्) = तुम सबको (संवननेन) = सम्यक् विभागपूर्वक (एकश्नुष्टीन्) = एक प्रकार के ही अन्नों का भोजनवाला करता हूँ। २. (अमृतं रक्षमाणा देवाः इव) = नीरोगता का रक्षण करनेवाले देवों के समान (व:) = तुम्हारा (सायं-प्रात:) = सायं-प्रात: (सौमनसः अस्तु) = सौमनस्य-शोभन मनस्कता हो, तुम परस्पर प्रेमयुक्त मनवाले होकर परस्पर बात करनेवाले होओ।
भावार्थ
घर में सब मिलकर कार्य करें, समान भोजनवाले हों, नीरोग रहते हुए प्रात: सायं परस्पर प्रेम से मिलें।
विशेष
इसप्रकार उत्तम वातावरणवाले घरों के अन्दर ज्ञानप्रधान वृत्ति के कारण 'ब्रह्मा' का प्रादुर्भाव होता है। उन्नति करते-करते मनुष्य ब्रह्मा बनता है, ज्ञानाग्नि में सब पापों को भस्म करनेवाला 'पाप्महा' होता है। अगले सूक्त में इस 'पाप्महा' का ही वर्णन है।
भाषार्थ
गृहकार्यों के सम्पादन में (व:) तुम्हें, (सध्रीचीनान्) साथ-साथ चलनेवालों अर्थात् सहोद्योगियों को (संमनसः) एकमनवाले, एकविचारवाले (कृणोमि) मैं परमेश्वर करता हूँ, (संवननेन) तथा पारस्परिक मेल, सहमति द्वारा (सर्वान्) सबको (एकश्नुष्टीन्) एकविध अन्न का भोजन करनेवाला करता हूँ। (देवाः) मातृदेव तथा पितृदेव या अन्य दिव्यगुणी (इव) जैसे (अमृतम्) निज अमरपन की (रक्षमाणाः) रक्षा करते हुए (सौमनसः) प्रसन्नचित्त होते हैं, वैसे (सायम् प्रातः) सायम् तथा प्रातः काल (व:) तुम्हारे (सौमनसः) चित्त की प्रसन्नता (अस्तु) हो।
टिप्पणी
[देवा: अमृतम्=गृहस्थ में रहते मातृदेव तथा पितृ देव, गृहकार्यों में व्यापृत रहते हुए भी, निज अमरपन को न भूलें, उसकी सदा रक्षा करते रहें। श्नुष्टीन्=अश भोजने (क्र्यादिः)। एकश्नुष्टिम्= एकविधस्य अन्नस्य भुक्तिम् (सायण)।]
विषय
परस्पर मिलकर एक चित्त होकर रहने का उपदेश ।
भावार्थ
(सध्रीचीनान्) एक कार्य में उद्योग करने वाले एवं एक स्थान पर एकत्र होने वाले (वः सर्वान्) आप सब लोगों को (संचननेन) एक दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न करके और आप लोगों को समान द्रव्यभाग देकर (एकश्नुष्टीन्) एक जैसा भोजन करने और (संमनसः) समान चित्त वाले होने का (कृणोमि) उपदेश करता हूं। आप सब लोग (अमृतं) अमृत = सत्य आत्मा की (रक्षमाणाः) रक्षा करते हुए (देवा-इव) इन इन्द्रियगणों के समान रहो और (वः) आप लोगों का (सायं-प्रातः) सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय (सौमनसः) उत्तम हृदय परस्पर आदर प्रेमयुक्त चित्त (अस्तु) रहे।
टिप्पणी
‘सध्रीचो वः’ इति लैन्मन् कामितः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमाः सामनस्यञ्च देवता। १-४ अनुष्टुभः। ५ विराड् जगती। ६ प्रस्तार पंक्तिः। ७ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Love and Unity
Meaning
The Benediction: I join you all in one common love with one common loyalty as one community under one command, working together in unison with one heart and mind. Like brilliant, illuminative, generous and creative divinities protecting and promoting the nectar spirit of life’s joy, be all of you happy at heart day and night, celebrating the joyous unity of life.
Translation
With this harmonization, I make all of you one-aimed, oneminded and one-fooded (sharing a common meal). Like the guarding immortality, enlightened ones, let you be friendly to each other in the morning as well as in the evening.
Translation
O, Ye mankind; I (God) Prescribe to all of you to be mutually helping one another, to be united in your mind and to have common ideal of life for benefitting one another. Like the prudent persons who always take care immortal principle, may the friendly sentiments dawn amongst you every morning and evening.
Translation
With binding charm, I make you all united, obeying one sole leader and On-minded. Likethe sages who watch and guard the eternal soul, a, mornand evemay ye worship God with one mind.
Footnote
I refers to God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(एकश्नुष्टीन्) ष्णसु अदने, आदाने, च-क्तिन्। एकभुक्तीन्। समानभोजनान्। (संवननेन) वन संभक्तौ-ल्युट्। सम्यक् सेवनेन व्यापारेण। (देवाः) विजिगीषवः। पुरुषार्थिनः। (अमृतम्) अमरत्वम्। जीवनसाफल्यम्। (रक्षमाणाः) पालयन्तो भवत-इति शेषः (सायंप्रातः) उभयसंध्याकाले। (सौमनसः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति सुमनस्-भावे अण्। सुमनसो भावः। सुहृद्भावः। चित्तप्रसादः। अन्यद्गतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
গৃহকার্য সম্পাদনে (বঃ) তোমাদের, (সধ্রীচীনান্) একসাথে গমনকারী অর্থাৎ সহোদ্যোগীদের (সমনসঃ) সম-মনস্ক, সমবিচারসম্পন্ন (কৃণোমি) আমি পরমেশ্বর করি, (সংবননেন) এবং পারস্পরিক মেল, সহমতি দ্বারা (সর্বান্) সকলকে (একশ্নুষ্টীন্) একবিধ অন্নের ভোজনকারী করি। (দেবাঃ) মাতৃদেব ও পিতৃদেব বা অন্য দিব্যগুণী (ইব) যেমন (অমৃতম্) নিজ অমরত্বের (রক্ষমাণাঃ) রক্ষা করে (সৌমনসঃ) প্রসন্নচিত্ত হয়, তেমনই (সায়ম্ প্রাতঃ) সায়ং ও প্রাতঃকালে (বঃ) তোমাদের (সৌমনসঃ) চিত্তের প্রসন্নতা (অস্তু) হোক।
टिप्पणी
[দেবাঃ অমৃতম্= গৃহস্থে থাকা মাতৃদেব, পিতৃ দেব, গৃহকার্যে মগ্ন থেকেও, নিজের অমরত্ব যেন ভুলে, তার সদা যেন রক্ষা করতে থাকে। শ্নুষ্টীন্= অশ ভোজনে (ক্র্যাদিঃ)। একশ্নুষ্টিম্ =একবিধস্য অন্নস্য ভুক্তিম্ (সায়ণ)।]
मन्त्र विषय
পরস্পরপ্রীত্যুদেশঃ
भाषार्थ
(সংবননেন) যথাবৎ সেবন বা বানিজ্যের দ্বারা (বঃ সর্বান্) তোমাদের সকলকে (সধ্রীচীনান্) এক সাথে গতি [উদ্যোগ বা জ্ঞান] সম্পন্ন, (সংমনসঃ) সমানমনস্ক এবং (একশ্নুষ্টীন্) সমান ভোজনকারী (কৃণোমি) আমি করি। (দেবাঃ ইব) বিজয়াকাঙ্ক্ষী পুরুষদের সমান (অমৃতম্) অমরত্ব [জীবনের সফলতা] কে (রক্ষমাণাঃ) রক্ষণ করে তোমরা [থাকো] (সায়ং প্রাতঃ) সায়ংকাল এবং প্রাতঃকালে (সৌমনসঃ) চিত্তের প্রসন্নতা (বঃ) তোমাদের জন্য (অস্তু) হোক ॥৭॥
भावार्थ
‘দেব’ পুরুষার্থী বিজয়ী পুরুষ পরস্পর মৃত্যুর কারণ আলস্য আদি ত্যাগ করলে অমর অর্থাৎ যশস্বী হয়। এইভাবে সমস্ত মনুষ্য একসাথে উদ্যোগ করে সুখী থাকুক এবং সায়ং প্রাতঃ দুই সময় পরমেশ্বরের আরাধনা করে চিত্ত প্রসন্ন করুক ॥৭॥
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