अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 10
अ॑त्रि॒वद्वः॑ क्रिमयो हन्मि कण्व॒वज्ज॑मदग्नि॒वत्। अ॒गस्त्य॑स्य॒ ब्रह्म॑णा॒ सं पि॑नष्म्य॒हं क्रिमी॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒त्त्रि॒ऽवत् । व॒: । क्रि॒म॒य॒: । ह॒न्मि॒ । क॒ण्व॒ऽवत् । ज॒म॒द॒ग्नि॒ऽवत् । अ॒गस्त्य॑स्य । ब्रह्म॑णा । सम् । पि॒न॒ष्मि॒ । अ॒हम् । क्रिमी॑न् ॥२३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रिवद्वः क्रिमयो हन्मि कण्ववज्जमदग्निवत्। अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन् ॥
स्वर रहित पद पाठअत्त्रिऽवत् । व: । क्रिमय: । हन्मि । कण्वऽवत् । जमदग्निऽवत् । अगस्त्यस्य । ब्रह्मणा । सम् । पिनष्मि । अहम् । क्रिमीन् ॥२३.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
छोटे-छोटे दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(क्रिमयः) हे कीड़ो ! (वः) तुमको (अत्त्रिवत्) दोषभक्षक वा गतिशील, मुनि के समान, (कण्ववत्) स्तुतियोग्य मेधावी पुरुष के समान, (जमदग्निवत्) आहुति खानेवाले अथवा प्रज्वलित अग्नि के सदृश तेजस्वी पुरुष के समान, (हन्मि) मैं मारता हूँ। (अगस्त्यस्य) कुटिल गतिवाले पाप के छेदने में समर्थ परमेश्वर के (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से (अहम्) मैं (क्रिमीन्) कीड़ों को (सम् पिनष्मि) पीसे डालता हूँ ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्यों को ऋषि, मुनि, धर्मात्माओं के अनुकरण से वेदज्ञान द्वारा पाप का नाश करना चाहिये ॥१०॥ मन्त्र १०-१२ अथर्ववेद का० २ सू० ३२ मन्त्र ३-५ में आ चुके हैं ॥
टिप्पणी
१०−व्याख्यातं यथा−अ० २।३२।३। (अत्त्रिवत्) दोषभक्षको गतिशीलो वा मुनिर्यथा (वः) युष्मान् (क्रिमयः) हे क्षुद्रजन्तवः (हन्मि) नाशयामि (कण्ववत्) स्तुत्यो मेधावी तथा (जमदग्निवत्) हुताशनः प्रज्वलितोऽग्निरिव तेजो येषां ते जमदग्नयः। तत्सदृशः पुरुषः (अगस्त्यस्य) अगस्य कुटिलगतेः पापस्य असने उत्पाटने समर्थस्य परमेश्वरस्य (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (सम् पिनष्मि) संचूर्णयामि (अहम्) (क्रिमीन्) क्षुद्रजन्तून् ॥
विषय
'अत्रि, कण्व, जमदग्नि व अगस्त्य' की भाँति
पदार्थ
१. हे (क्रिमय:) = कृमयो! (व:) = तुम्हें मैं इसप्रकार (हन्मि) = नष्ट करता हूँ (अत्रिवत्) = जैसेकि एक (अत्रि) = काम, क्रोध व लोभ से ऊपर उठा हुआ पुरुष नष्ट करता है [अ-त्रि], (कण्ववत्) = एक मेधावी की भाँति तुम्हें नष्ट करता हूँ और (जमदग्निवत्) = दीप्त जाठर अनिवाले [जमत अग्नि] पुरुष की भाँति तुम्हारा विनाश करता हूँ। काम-क्रोध व लोभ में फंसने से, नासमझी से, आहार विहार की गलतियों से व जाठर अग्नि के मन्द हो जाने से विविध रोग-कृमियों की उत्पत्ति हो जाती है। २. (अगस्त्यस्य) = [अगं स्त्यायति, संघाते] पाप का संहनन करनेवाले पुरुष के (ब्रह्मणा) = ज्ञान से (अहम्) = मैं (क्रिमीन् संपिनष्मि) = कृमियों को पीस डालता हूँ-विनष्ट कर डालता हूँ।
भावार्थ
हम 'अत्रि, कण्व, जमदग्नि व अगस्त्य' बनें और इन रोगकृमियों के शिकार न हों।
भाषार्थ
(क्रिमयः) हे क्रिमियो! (वः) तुम्हें (अत्रिवत्) अत्रि के सदृश, (कण्ववत्) कण्व के सदृश, (जमदग्निवत्) जमदग्नि के सदृश (हन्मि) मैं मारता हूँ। (अगस्त्यस्य ब्रह्मणा) अगस्त्य के महान् अस्त्र या शस्त्र द्वारा (अहम्) मैं (क्रिमीन्) क्रिमियों को (सं पिनष्मि) सम्यक् रूप में पीसता हूँ।
टिप्पणी
[अत्रि है भक्षणकर्ता परमेश्वर, जोकि प्रलयकाल में सबका अदन करता है, भक्षण करता है। इसलिए इसे अत्ता और अन्नाद भी कहते हैं। प्रलयकाल१ में जगत् इसके लिए अन्नरूप हो जाता है, जिससे परमेश्वर अन्नाद कहलाता है। ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि प्राणी भी इसके लिए ओदनरूप हो जाते हैं। इस अत्रि ने (दिवम्) द्युलोक को या द्युतिमान् सूर्य को (उन्निनाय) ऊर्ध्वदिशा में स्थापित किया है (अथर्व० १३.२.४) । मानुषशक्ति ऊर्ध्वदिशा में द्युलोक या सूर्य को स्थापित नहीं कर सकती। अत्रि, तक्मा आदि रोगों तथा तदुत्पादक क्रिमियों को भी पीस डालता है, निवारित करता है। इसलिए वह 'भेषज' भी है (यजु:० ३.५९)। वैदिक वैद्य कहता है कि अत्रिवत् मैं भी क्रिमियों को पीसता हूँ। कण्व=कण्व है मेधावी (निघं० ३.१५) । कण्वः= कण+वः, कणवत् सूक्ष्म कीटाणुओं और जीवाणुओं का मेधावी अर्थात् विज्ञ। यह भी तक्मा आदि रोगों तथा तदुत्पादक क्रिमियों को पीस देता है, तद्वत् वैदिक वैद्य भी पीसता है। जमदग्नि=सदा प्रज्वलित यज्ञाग्निवाला, यज्ञकर्ता। यह यज्ञियाग्नि द्वारा तक्मा आदि रोगों तथा तदुत्पादक क्रिमियों को पीसता है, तद्वत् वैदिक वैद्य भी इन्हें पीसता है। अगस्त्यस्य ब्रह्मणा= अगस्त्य है अग+स्त्य सूर्य। अग=वृक्ष (उणादि ४.१८१, दयानन्द तथा वृक्षश्च, दशपाद्युणादिवृत्तिः ९.७५), स्त्य=स्त्यै शब्दसंघातयोः (भ्वादिः), वृक्षों के संघात अर्थात् संघ या समूह को वनरूप में करनेवाला सूर्य। सूर्य के ताप और प्रकाश द्वारा तथा तत्कृत वर्षा द्वारा वृक्षों में संघीभवन होता है, वनरूपता होती है। इस अगस्त्य नामक सूर्य की ब्रह्मणा अर्थात् बृहत्या१ दृषदा रश्मिसमूहरूपया "अहम् क्रिमीन् संपिनष्मि"। देखें मन्त्र ३, ७ की व्याख्या।] [१. "बृहर्नोऽच्च" (उणा० ४.१४७)। ब्रह्मणा=बृहत्या (इन्द्रस्य दृषदा; रश्मिसमूहेन) (अथर्व० २.३१.१)। ]
विषय
रोगकारी जन्तुओं के नाश का उपदेश।
भावार्थ
हे (क्रिमयः) रोगजनक कीड़ो ! (अत्रि-वद्) अत्रि के समान (कण्व-वत्) मेधावी पुरुष के समान (जमदग्नि-वत्) प्रज्वलित अग्नि के समान मैं (वः हन्मि) तुम को विनाश करता हूं और (अगस्त्यस्य) सूर्य की (ब्रह्मणा) विशाल शक्ति या ज्ञान से (क्रि-मीन् संपिनष्मि) इन क्रिमियों को विनष्ट करता हूं। अथवा त्रि= अग्नि, कण्व = वायु, जमदग्नि आदित्य इनकी शक्ति से सम्पन्न होकर रोग-जन्तुओं का नाश करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्व ऋषिः। क्रिमिजम्भनाय देवप्रार्थनाः। इन्द्रो देवता। १-१२ अनुष्टुभः ॥ १३ विराडनुष्टुप। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Germs
Meaning
O worms and germs, I destroy you as Atri, a devourer, like Kanva, intelligent planner, like Jamadagni, lighted fire. I destroy you with the knowledge and formula of Agastya, veteran scientist, and thus I destroy and wholly eliminate the worms and germs that cause disease.
Translation
I kill you worms, as old sages and seers like Atri ( free from triple bondage); as Kanva (seer, an embodiment of wisdom), and Jamadagni (flaring like fire), had killed in the past. I crush the worms to a fine powder, with the same contrivance, once introduced by Agastya, the renowned physician (Also see Av.II. 32.3)
Translation
I kill these worms like attri, the thundering of cloud, like Knva the gust of wind, like jomdagni, the blazing fire and I crush these worms to pieces by the prescribed means of scientist.
Translation
I kill you worms, like fire, air and sun. I crush the worms to pieces with the Vedic knowledge of God.
Footnote
Atri, Kanva and Jamadagni and Agastya, are not proper nouns. They are not the names of Rishis. Atri means fire, Kanva means air, Jamadagni means the sun. Agastya means God. Just as fire, air and sun kill worms, so does a physician with his Vedic knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−व्याख्यातं यथा−अ० २।३२।३। (अत्त्रिवत्) दोषभक्षको गतिशीलो वा मुनिर्यथा (वः) युष्मान् (क्रिमयः) हे क्षुद्रजन्तवः (हन्मि) नाशयामि (कण्ववत्) स्तुत्यो मेधावी तथा (जमदग्निवत्) हुताशनः प्रज्वलितोऽग्निरिव तेजो येषां ते जमदग्नयः। तत्सदृशः पुरुषः (अगस्त्यस्य) अगस्य कुटिलगतेः पापस्य असने उत्पाटने समर्थस्य परमेश्वरस्य (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (सम् पिनष्मि) संचूर्णयामि (अहम्) (क्रिमीन्) क्षुद्रजन्तून् ॥
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