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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिघ्न सूक्त
    68

    येवा॑षासः॒ कष्क॑षास एज॒त्काः शि॑पवित्नु॒काः। दृ॒ष्टश्च॑ ह॒न्यतां॒ क्रिमि॑रु॒तादृष्ट॑श्च हन्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येवा॑षास: । कष्क॑षास: । ए॒ज॒त्ऽका: । शि॒प॒वि॒त्नु॒का: । दृ॒ष्ट: । च॒ । ह॒न्यता॑म् । क्रिमि॑: । उ॒त । अ॒दृष्ट॑: । च॒ । ह॒न्य॒ता॒म् ॥२३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येवाषासः कष्कषास एजत्काः शिपवित्नुकाः। दृष्टश्च हन्यतां क्रिमिरुतादृष्टश्च हन्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येवाषास: । कष्कषास: । एजत्ऽका: । शिपवित्नुका: । दृष्ट: । च । हन्यताम् । क्रिमि: । उत । अदृष्ट: । च । हन्यताम् ॥२३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    छोटे-छोटे दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (येवाषासः=एवाषाः) शीघ्र गतिवाले, (कष्कषासः=कष्कषाः) अत्यन्त पीड़ा देनेवाले, (एजत्काः) चमकने वा थरथरानेवाले और (शिपवित्नुकाः) तीक्ष्ण स्वभाववाले हैं। (दृष्टः) दीखता हुआ (क्रिमिः) कीड़ा (च) अवश्य (हन्यताम्) मारा जावे, (उत) और (अदृष्टः) न दीखता हुआ (च) भी (हन्यताम्) मारा जावे ॥७॥

    भावार्थ

    मन्त्र ४ के समान ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(येवाषासः) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति इण् गतौ−वन्+अष गतौ−दीप्तौ च−अच्। आदौ छान्दसो यकारः। एवश्चासौ अषश्च एवाषः। जसि असुक्। शीघ्रगामिनः (कष्कषासः) कष हिंसायम्−क्विप्+कष−अच्, असुक् च। कट् चासौ कषश्चेति समासः। अतिशयेन हिंसकः (एजत्काः) वर्तमाने पृषद्बृहन्०। उ० २।८४। इति एजृ दीप्तौ कम्पने च−अति, स्वार्थे कन्। दीप्यमानाः। कम्पनशीलाः (शिपवित्नुकाः) च्युवः किच्च। उ० ३।२४। इति शिञ् निशाने−प। स्तनिहृषिपुषि०। उ० ३।२९। इति वा गतौ−इत्नुच्, स्वार्थे−कन्। तीक्ष्णस्वभावाः (दृष्टः) गोचरः (च) अवश्य (हन्यताम्) नाश्यताम् (क्रिमिः) कीटः (उत) अपि (अदृष्टः) अगोचरः (च) ॥

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    विषय

    कष्कषास: शिपवित्नुकाः

    पदार्थ

    १. (येवाषास:) = [इण गती, अज गती] गतिवाले व खूब ही गतिवाले कई कृमि हैं, (कष्कषास:) = [कष्-हिंसायाम्]अतिशयेन पीड़ा देनेवाले ये दूसरे कृमि हैं। (एजत्का:) = [एज़ दीती कम्पने च] कई कृमि दीप्यमान व कम्पनशील हैं, (शिपवित्रुका:) = [शिपि-Skin, वितन्-to cover, to stretch] सारी त्वचा में फैल जानेवाले कई कृमि हैं। २. ये सब (दृष्टः च) = जो देखे गये हैं वे (क्रिमि:) = कृमि (हन्यताम्) = मारे जाएँ (उत) = और (अदृष्टः च) न दिखा हुआ कृमि भी मारा जाए।

    भावार्थ

    'तीव्र गतिवाले, बड़ी पीड़ा प्राप्त करनेवाले, चमकते हुए कम्पायमान, सारी त्वचा पर फैल जानेवाले'-ये सब दृष्ट व अदृष्ट कृमि मारे जाएँ।



     

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    भाषार्थ

    (येवाषास:, कष्कषासः एजत्काः शिपवित्नुकाः) येवाषास, कष्कषास, एजत्क, शिपिवित्नुक क्रिमि (दृष्टः च) चाहे ज्ञात हों (हन्यताम्) नष्ट हो जाए, (उत) तथा (अदृष्टः च) चाहे अज्ञात हों (हन्यताम्) नष्ट हो जाए।

    टिप्पणी

    [इन चतुर्विध क्रिमियों के स्वरूपों का निश्चय कठिन है। धात्वर्थ द्वारा यत्किंचित् प्रकाश निम्नरूप है। येवाषासः, कष्कषासः= इन दो पदों में 'षास:' पद समान है। षस स्वप्ने (अदादिः); तथा 'येवा'= यु जुगुप्सायाम् (चुरादिः); कष्क= कष हिंसार्थ: (भ्वादिः), अत: दो पदों के अर्थ हैं "जुगुप्सित, परन्तु स्वप्नावस्था में तथा हिंसक परन्तु स्वप्नावस्था में". अर्थात् जो क्रिमि शरीर में तो उपस्थित हैं, परन्तु स्वप्नावस्था में हैं, जिन्होंने अभी रोगरूप में निज प्रभाव नहीं दर्शाया। एजत्का: शिपवित्नुकाः=ये दो प्रकार के क्रिमि जाग्रदवस्था के हैं, जिन्होंने कि रोगरूप में निज प्रभाव प्रकट किया हुआ है। एजत्का:= एजृ कम्पने (भ्वादिः) तथा एज़ृ दीप्तौ (भ्वादिः), जोकि कम्पित अवस्था में हैं, सक्रिय हैं, या प्रदीप्तावस्था में हैं, स्वप्नान्धकार की अवस्था में नहीं। शिपवित्नुकाः= शिपविघ्नुकाः, शेप अर्थात् लिङ्गेन्द्रिय को वैंधनेवाले, लिङ्ग के रोगों के उत्पादक। ये चतुर्विध क्रिमि, चाहे ज्ञात हों चाहे अज्ञात, नष्ट कर दिए जाएँ। एजत्का: और शिपवित्नुकाः में 'क' या 'कर' स्वार्थ में हैं। ये सब अनुसंधेय हैं।]

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    विषय

    रोगकारी जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    (येवाषासः) येवाष, (कष्कषासः) कष्कष, (एजत्काः) एजक और (शिपिवित्नुकाः) शिपिवित्नुक, ये नाना प्रकार की रोगकीट जातियां और (दृष्टः च) दिखाई देने वाला (उत) और (अदृष्टः च) न दीखने वाला रोग-कीट भी (हन्यताम्) मार दिया जाय। येवाष = सरक सरक कर चलने वाले, जैसे गिण्डोये, कष्कषासः = देह को घिस २ कर चलने वाले, (एजत्काः) थोड़ा कांपने वाले (शिपवित्नुकाः) मूल भाग, जघन भाग से वस्तु को पकड़ने वाले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्व ऋषिः। क्रिमिजम्भनाय देवप्रार्थनाः। इन्द्रो देवता। १-१२ अनुष्टुभः ॥ १३ विराडनुष्टुप। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs

    Meaning

    Those that grow and move too fast, those too painful, those that give the shivers, and those that are intensely penetrative, the seen as well as unseen, all of them should be killed and eliminated.

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    Translation

    Yavasa, kaskasa, ejatka and sipavitnuka, are the various kinds of worms. Let such a worm be killed when seen; even when unseen let it be killed. (worms : yevásasah, kaskasah, Sipavintukah-visible to eyes and non-visible)

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    Translation

    Evashasah, swift in speed; Kaskasah, troublesome in biting; Ejatkah, shining and trembling; shipavitnukah having stingy wings are the worms. Let anyone visible among worms be killed and anyone invisible among worms be killed.

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    Translation

    Let the fast-moving, highly painful, shining, trembling, and injurious worms, let both the worm that we can see, and that we see not, be destroyed.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(येवाषासः) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति इण् गतौ−वन्+अष गतौ−दीप्तौ च−अच्। आदौ छान्दसो यकारः। एवश्चासौ अषश्च एवाषः। जसि असुक्। शीघ्रगामिनः (कष्कषासः) कष हिंसायम्−क्विप्+कष−अच्, असुक् च। कट् चासौ कषश्चेति समासः। अतिशयेन हिंसकः (एजत्काः) वर्तमाने पृषद्बृहन्०। उ० २।८४। इति एजृ दीप्तौ कम्पने च−अति, स्वार्थे कन्। दीप्यमानाः। कम्पनशीलाः (शिपवित्नुकाः) च्युवः किच्च। उ० ३।२४। इति शिञ् निशाने−प। स्तनिहृषिपुषि०। उ० ३।२९। इति वा गतौ−इत्नुच्, स्वार्थे−कन्। तीक्ष्णस्वभावाः (दृष्टः) गोचरः (च) अवश्य (हन्यताम्) नाश्यताम् (क्रिमिः) कीटः (उत) अपि (अदृष्टः) अगोचरः (च) ॥

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