अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
42
इ॒ममा॑दित्या॒ वसु॑ना॒ समु॑क्षते॒मम॑ग्ने वर्धय वावृधा॒नः। इ॒ममि॑न्द्र॒ सं सृ॑ज वी॒र्ये॑णा॒स्मिन्त्रि॒वृच्छ्र॑यतां पोषयि॒ष्णु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । आ॒दि॒त्या॒: । वसु॑ना । सम् । उ॒क्ष॒त॒ । इ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । वर्ध॒य॒ । व॒वृ॒धा॒न:। इ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वी॒र्ये᳡ण । अ॒स्मिन् । त्रि॒ऽवृत् । श्र॒य॒ता॒म् । पो॒ष॒यि॒ष्णु ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इममादित्या वसुना समुक्षतेममग्ने वर्धय वावृधानः। इममिन्द्र सं सृज वीर्येणास्मिन्त्रिवृच्छ्रयतां पोषयिष्णु ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । आदित्या: । वसुना । सम् । उक्षत । इमम् । अग्ने । वर्धय । ववृधान:। इमम् । इन्द्र । सम् । सृज । वीर्येण । अस्मिन् । त्रिऽवृत् । श्रयताम् । पोषयिष्णु ॥२८.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रक्षा और ऐश्वर्य का उपदेश।
पदार्थ
(आदित्याः) हे तेजस्वी पुरुषो ! (इमम्) इस पुरुष को (वसुना) धन से (सम्) अच्छे प्रकार (उक्षत) सींचो, (अग्ने) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (वावृधानः) बढ़ता हुआ तू (इमम्) पुरुष को (वर्धय) बढ़ा, (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! (इमम्) इस पुरुष को (वीर्येण) वीरता से (सं सृज) संयुक्त कर। (अस्मिन्) इस पुरुष में (पोषयिष्णु) पुष्टि देनेवाली (त्रिवृत्) त्रिवृति [म० १] (श्रयताम्) ठहरी रहे ॥४॥
भावार्थ
विद्वान् जन उपदेश करें कि सब मनुष्य उत्तम पुरुषार्थ, उत्तम प्रबन्ध और उत्तम कर्म से अन्न पुरुष और पशुओं को प्राप्त करके आनन्द भोगें ॥४॥
टिप्पणी
४−(इमम्) पुरुषम् (आदित्याः) अ० १।८।१। तेजस्विनः पुरुषाः (वसुना) धनेन (सम्) सम्यक् (उक्षत) सिञ्चत (अग्ने) सर्वज्ञ परमेश्वर (वर्धय) समर्धय (वावृधानः) अ० १।८।४। प्रवृद्धः (इमम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (सं सृज) संयोजय (वीर्येण) वीरभावेन (अस्मिन्) पुरुषे (त्रिवृत्) हरितरजतायोरूपा त्रिवृतिः (श्रयताम्) तिष्ठतु (पोषयिष्णु) अ० ३।१४।६। पोषकम् ॥
विषय
आदित्य, अनि, इन्द्र
पदार्थ
१. हे (आदित्या:) = आदित्य विद्वानो! प्रकृति, जीव, परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करनेवाले विद्वानो! (इमम्) = इसे (वसुना) = निवास के लिए साधनभूत ज्ञान-धन से (समुक्षत) = सिक्त कर दो-इसे जीवन को उत्तम बनानेवाले ज्ञान से परिपूर्ण का दो। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (वावृधानाः) = स्तुतियों के द्वारा बढ़ाये जाते हुए आप (इमम्) = इस स्तोता को (वर्धय) = बढ़ाइए। प्रभु-स्तवन से प्रभु की भावना हममें बढ़े और हम वृद्धि को प्राप्त हों। २. हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो! (इमम्) = इस उपासक को (वीर्येण संसूज) = वीर्य से संसृष्ट करो। (अस्मिन्) = इस उपासक में (पोषयिष्णु) = पोषण को प्राप्त कराता हुआ (त्रिवृत्) = प्रथम मन्त्र में विर्णत 'हरित, रजत व अयस्' में विष्ठित इन्द्रिय-त्रिक (श्रयताम्) = आश्रय करें।
भावार्थ
आदित्यों की कृपा से हमें ज्ञान-धन प्राप्त हो। अग्निरूप प्रभु हमारा वर्धन करें। शत्रु-विद्रावक प्रभु हमें वीर्य-संसृष्ट करें।
भाषार्थ
(आदित्याः) [१२ मासों सम्बन्धी १२ प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न १२] हे आदित्यो ! (इमम्) इस मनुष्य को (वसुना) निज सम्पत्ति रूप रश्मिसमूह द्वारा (समुक्षत) सम्यक् प्रकार से सींचो, (अग्ने) हे यज्ञियाग्नि ! (वावृधानः) बढ़ती हुई तू (इमम् ) इस मनुष्य को ( वर्धय) बढ़ा । (इन्द्र) हे जीवात्मन् ! (इमम् ) इस मनुष्य को ( वीर्येण) वीर्य के साथ (संसृज) सम्बद्ध कर, (अस्मिन्) इस मनुष्य में (पोषयिष्णुः) पुष्टिकारक (त्रिवृत्) त्रिवत् (श्रयताम् ) आश्रय पाएँ ।
विषय
दीर्घ जीवन का उपाय और यज्ञोपवीत की व्याख्या।
भावार्थ
हे (आदित्याः) आदित्यो ! वर्ष के १२ मासो ! तुम (इमम्) इस पुरुष को (वसुना) वास के हेतु, जीवनीय पदार्थों से (सम् उक्षत) सींचो ! हे (अग्ने) अग्ने ! (वावृधानः) तू स्वयं बढ़ता हुआ (इमम्) इस पुरुष को (वर्धय) बढ़ा। हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (इमं) इस पुरुष को (वीर्येण) वीर्य द्वारा (सं सृज) पुष्ट कर। और (अस्मिन्) इस पुरुष में (त्रि-वृत्) तीनों प्रकार का (पोषयिष्णु) पुष्टिकारक अन्न (श्रयतां) निवास करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। त्रिवृत देवता। १-५, ८, ११ त्रिष्टुभः। ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी। ७, ९, १०, १२ ककुम्मत्यनुष्टुप् परोष्णिक्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Longevity and the Sacred thread
Meaning
O Adityas, lights of the sun over the year, shower this soul with the wealth of light and vitality. O Agni, energy and fertility of mother earth, growing, rising and raising, advance this soul in prosperity. O Indra, cosmic energy of the middle regions of the sky, strengthen and exhilarate this soul with valour and creative splendour. O Lord Supreme, let the triple armour of light, power and prosperity of the three cosmic regions abide here in the soul, advancing and exalting the person. (The yajnopavita also has been interpreted as the triple armour.)
Translation
O suns (of twelve months), may you sprinkle this person with riches. O sacrificial fire, growing yourself, may you exalt this person. O resplendent Lord, may you infuse him with manly vigour. May this nourishing triple combination (tri-vrta) be (well) established.
Translation
Let the twelve months of year enrich this triple with wealth, let fire increase this triple strengthening itself, let powerful electricity invigorate it with strength and vigour, let the trio of fostering powers remain in it.
Translation
O noble persons fill this child with wealth. O magnificent God, magnifythis child. O Mighty God, endow him with heroic strength. May this three-threaded yajnopavit, the releaser of griefs and miseries rest on him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(इमम्) पुरुषम् (आदित्याः) अ० १।८।१। तेजस्विनः पुरुषाः (वसुना) धनेन (सम्) सम्यक् (उक्षत) सिञ्चत (अग्ने) सर्वज्ञ परमेश्वर (वर्धय) समर्धय (वावृधानः) अ० १।८।४। प्रवृद्धः (इमम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (सं सृज) संयोजय (वीर्येण) वीरभावेन (अस्मिन्) पुरुषे (त्रिवृत्) हरितरजतायोरूपा त्रिवृतिः (श्रयताम्) तिष्ठतु (पोषयिष्णु) अ० ३।१४।६। पोषकम् ॥
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