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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्न्यादयः छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    49

    त्रे॒धा जा॒तं जन्म॑ने॒दं हिर॑ण्यम॒ग्नेरेकं॑ प्रि॒यत॑मं बभूव॒ सोम॒स्यैकं॑ हिंसि॒तस्य॒ परा॑पतत्। अ॒पामेकं॑ वे॒धसां॒ रेत॑ आहु॒स्तत्ते॒ हिर॑ण्यं त्रि॒वृद॒स्त्वायु॑षे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रे॒धा । जा॒तम् । जन्म॑ना । इ॒दम् । हिर॑ण्यम् । अ॒ग्ने: । एक॑म् । प्रि॒यऽत॑मम् । ब॒भू॒व॒ । सोम॑स्य । एक॑म् । हिं॒सि॒तस्य॑ । परा॑ । अ॒प॒त॒त् । अ॒पाम् । एक॑म् । वे॒धसा॑म् । रेत॑: ।आ॒हु॒: । तत् । ते॒ । हिर॑ण्यम् । त्रि॒ऽवृत् । अ॒स्तु॒ । आयु॑षे ॥२८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रेधा जातं जन्मनेदं हिरण्यमग्नेरेकं प्रियतमं बभूव सोमस्यैकं हिंसितस्य परापतत्। अपामेकं वेधसां रेत आहुस्तत्ते हिरण्यं त्रिवृदस्त्वायुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रेधा । जातम् । जन्मना । इदम् । हिरण्यम् । अग्ने: । एकम् । प्रियऽतमम् । बभूव । सोमस्य । एकम् । हिंसितस्य । परा । अपतत् । अपाम् । एकम् । वेधसाम् । रेत: ।आहु: । तत् । ते । हिरण्यम् । त्रिऽवृत् । अस्तु । आयुषे ॥२८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रक्षा और ऐश्वर्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इदम्) यह प्रसिद्ध (हिरण्यम्) कमनीय तेज [ब्रह्म] (त्रैधा) तीन प्रकार से (जन्मना) जन्म से (जातम्) उत्पन्न हुआ, (एकम्) एक (अग्नेः) अग्नि का (प्रियतमम्) अति प्रीतिवाला (बभूव) हुआ, (एकम्) एक (हिंसितस्य) पीड़ित (सोमस्य) चन्द्रमा का [प्रियतमः] [अतिप्रिय होकर] (परा अपतत्) [सूर्य से] आकर गिरा। (एकम्) एक को (वेधसाम्) विधान करनेवाली (अपाम्) जलधाराओं का (रेतः) बीज (आहुः) वे कहते हैं। (तत्) वह (हिरण्यम्) तेजःस्वरूप ब्रह्म (ते) तेरी (आयुषे) आयु के लिये (त्रिवृत्) त्रिवृति [तीनों जीवनसाधन] (अस्तु) होवे ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा का तेज तीन प्रकार से प्रकट होता है, १−भौतिक अग्नि में जो पृथिवी के पदार्थों को पकाता है, २−अन्धकारयुक्त चन्द्रमा में जो सूर्य से प्रकाशित होता है, ३−सूर्य में, जो जल को खींचकर मेघमण्डल से बरसाता है। मनुष्य उस तेजोमय परमेश्वर का नित्य ध्यान करके उत्तम पुरुषार्थ आदि त्रिवृति [म० १] को बढ़ावें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(त्रेधा) त्रिप्रकारेण (जातम्) उत्पन्नम् (जन्मना) उत्पत्त्या (इदम्) (हिरण्यम्) अ० १।९।२। कमनीयं तेजः। ब्रह्म (अग्नेः) भौतिकाग्नेः (एकम्) (प्रियतमम्) अतिशयप्रीतिकरम् (सोमस्य) चन्द्रस्य (एकम्) तेजः (हिंसितस्य) पीडितस्य। अन्धकारयुक्तस्येत्यर्थः (परा) पृथग्भावे (अपतत्) अधोऽगच्छत् सूर्यमण्डलात् (अपाम्) जलधाराणाम् (एकम्) तेजः (वेधसाम्) विधात्रीणाम् उत्पादयित्रीणाम् (रेतः) बीजम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (तत्) पूर्वोक्तम् (हिरण्यम्) (त्रिवृत्) म– २। त्रिवृतिः। त्रिजीवनसाधनम् (अस्तु) भवतु (आयुषे) अ० १।३०।३। जीवनवर्धनाय ॥

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    विषय

    त्रिवृत् हिरण्य

    पदार्थ

    १. (इदं हिरण्यम्) = यह हिरण्य (जन्मना) = जन्म से (त्रेधा जातम्) = तीन प्रकार का हो गया है। (एकम्) = इनमें से एक (अग्नेः प्रियतमं बभूव) = अग्नि का बड़ा प्यारा है। अग्नि में पड़कर यह हिरण्य [सुवर्ण] खूब ही चमक उठता है। २. (एकम्) = एक हिंसितस्य (सोमस्य) = पीड़ित की हुई [निचोड़ी हुई] सोमलता में से (परापतत्) = निकल आता है। सोमलता का रस भी रोगों का औषध होने से हिरण्य है-हितरमणीय है। ३. (एकम्) = एक को (वेधसा) = सृष्टि का निर्माण करनेवाले (अपाम्) = जीवनों का-सन्तानों को जन्म देनेवाले जीवों का (रेत:) = वीर्य (आहुः) = कहते हैं। (तत्) = वह (त्रिवृत्) = तीनों रूपों में होनेवाला (हिरण्यम्) = हिरण्य (ते) = तेरे (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए (अस्तु) = हो।

    भावार्थ

    सुवर्ण धातु 'स्वर्ण भस्म के रूप में राजयक्ष्मा की निवृत्ति के लिए उपयुक्त होता है। सोमला का रस महान् औषध है और वीर्य तो जीवन का आधार है ही। यह त्रिविध हिरण्य हमें दीर्घायु प्रदान करे।

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    भाषार्थ

    (इदम् हिरण्यम्) यह हिरण्य (जन्मना) उत्पत्ति की दृष्टि से (त्रेधा जातम्) तीन प्रकार का पैदा हुआ है। (एकम् ) एक (अग्ने:) अग्नि का (प्रियतमम्) अत्यन्त प्रिय ( बभूव) हुआ है। (एकम् ) एक (हिंसितस्य) हिंसित हुए (सोमस्य) वीर्य के [एकांश रूप में ] (परापतत्२) परे गिरा है । (एकम् ) एक को (वेधसाम् )१ विधातृरूप (अपाम्) जलों का (रेतः) रेतस् (आहुः) कहते हैं। (ते) तेरी ( आयुष ) आयु के लिए ( मन्त्र १ ), (त्रिवृत् हिरण्यम् ) त्रिविध वर्तमान हिरण्य (अस्तु) हो। 'रेतः सोमः ' (श० ३।३।२।१)

    टिप्पणी

    [हिरण्य पद द्वारा तीन प्रकार के हिरण्य अभिधेय हैं। एक तो अग्नि का प्रियतम है, अग्नि के संयोग द्वारा उत्पादित हिरण्य है, 'हिरण्य भस्म' (मन्त्र १, तपसा) दूसरा हिरण्य है– सोम, 'वीर्यरूप' यह शरीर से एकांशरूप में हिंसित होकर, कटकर परे [अर्थात् स्त्रीयोनि में] गिरता है। सोम है वीर्य (अथर्व० १४।१।१-५) । तुतीय हिरण्य है 'अपां रेतस्' । अपाम् हैं, 'वेधसामपाम'; अर्थात् जगत् के विधाता अर्थात् निर्माता के आप: का (रेतः)। यथा "अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद् रेत:" (तैत्तिरीय उपनिषद् )। इस परम्परा द्वारा सोम अर्थात अहिंसित वीर्य है 'अपां रेतः' । मन्त्र में हिंसित वीर्य को सोम कहा है और अहिंसित वीर्य को "अपां वेधसां रेतस्" । अपाम् को वेधसाम् कहा है। "वेधा: मेधाविनाम" (निघं० ३।१५)। वेदिक वर्णन शैली में अपाम् को चेतन कल्पित कर इन्हें वेधसाम् कहा है। वैदिक साहित्य में वीर्य को हिरण्य भी कहते हैं ।] [१. अथवा, "अपामेकं वेधसां रेत आहुः"= आपः हैं शरीरस्थ, आप:, अर्थात् शरीरस्थ रक्त, रक्त से उत्पन्न होता है रेतस् अर्थात् वीर्य । यह वीर्य हिरण्यवत् है, शुद्ध हिरण्यवत् शक्ति प्रदाता है (अथर्व० १०।२।११)। शरीरस्थ ये आप: वेधस् हैं, विधातु रूप है, शरीरस्थ अङ्ग-प्रत्यङ्ग का विधान अर्थात् विधिपूर्वक निर्माण करते हैं। वेधा:= "विधाञो वेध च" (उणा ४।२२६)। २. परापतत्= तथा सोम का अवशिष्टांश जो परापतत् नहीं हुआ, शरीरस्थ रक्त में ही मिला रहता है वह हिरण्यरूप है, शुद्ध हिरण्य के रूप में शक्ति प्रदान करता है।]

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    विषय

    दीर्घ जीवन का उपाय और यज्ञोपवीत की व्याख्या।

    भावार्थ

    (इदं) यह (हिरण्यं) सुवर्ण (जन्मना) अपने जन्म से, स्वरूप से ही (त्रेधा जातम्) तीन प्रकार से उत्पन्न हुआ। (एकं) एक तो (अग्नेः) अग्नि का (प्रिय-तमम्) अति अधिक प्रिय पदार्थ (बभूव) है। और (एकं) दूसरा (हिंसितस्य सोमस्य) पीड़ित सोम के भीतर से (परा पतत्) बाहर निकलता है। और (एकम्) तीसरा (वेधसाम्) सृष्टि उत्पन्न करने हारे (अपाम्) जलों का या जीवों का (रेतः) सर्व जीवों के उत्पादक वीर्य रूप (आहुः) कहते हैं। (तत्) वह (हिरण्यम्) सुवर्ण (त्रि-वृत्) तीन प्रकार का है। वह (ते) तुझ पुरुष के (आयुषे) दीर्घ जीवन के लिये (अस्तु) हो।

    टिप्पणी

    १-अग्नि से तप्त सुवर्ण, २-औषधियों का रस, ३-शरीर का वीर्य ये तीनों हिरण्य कहाते हैं। तीनों ही आयु को बढ़ावें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। त्रिवृत देवता। १-५, ८, ११ त्रिष्टुभः। ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी। ७, ९, १०, १२ ककुम्मत्यनुष्टुप् परोष्णिक्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Longevity and the Sacred thread

    Meaning

    This golden glory of life’s strength and splendour is born three-way from the very beginning of life: One is the dearest darling of Agni and the profuse generosity of earth, the other one is born of Soma crushed, descended from the moon and reflected from the sun, and yet another one, they say, is the living essence of cosmic waters and universal intelligence of Nature. And that is the golden glory for you, threefold, the triple armour for you, for health and long age.

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    Translation

    This gold is of three types (tredhà jatam) due to methods of its production. One of them has become dearest to the fire; the other one comes out of the crushed soma plant; the other one is said to be the seed of pious waters (deeds); may that gold, worn three-fold, bring you a long life.

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    Translation

    This gold is born three-fold at its very first production. One of them is that it becomes nearest and dearest to fire, the second one that it falls from the crushed some-plant, the third one is called the seed of watery substances creating the world, let this triple of gold be for your long life.

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    Translation

    This lovely God manifests Himself by nature in three aspects His firstaspect became the most charming fire. His second aspect is the Moon, that iscovered with darkness, and receives light from the sun. His third aspect iscalled the procreative semen of human beings. May God, in His three aspects prolong our life.

    Footnote

    Man should lengthen his life by observing celibacy, preserving his semen, by beingever energetic and active like fire, and by being calm and peaceful like the moon.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(त्रेधा) त्रिप्रकारेण (जातम्) उत्पन्नम् (जन्मना) उत्पत्त्या (इदम्) (हिरण्यम्) अ० १।९।२। कमनीयं तेजः। ब्रह्म (अग्नेः) भौतिकाग्नेः (एकम्) (प्रियतमम्) अतिशयप्रीतिकरम् (सोमस्य) चन्द्रस्य (एकम्) तेजः (हिंसितस्य) पीडितस्य। अन्धकारयुक्तस्येत्यर्थः (परा) पृथग्भावे (अपतत्) अधोऽगच्छत् सूर्यमण्डलात् (अपाम्) जलधाराणाम् (एकम्) तेजः (वेधसाम्) विधात्रीणाम् उत्पादयित्रीणाम् (रेतः) बीजम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (तत्) पूर्वोक्तम् (हिरण्यम्) (त्रिवृत्) म– २। त्रिवृतिः। त्रिजीवनसाधनम् (अस्तु) भवतु (आयुषे) अ० १।३०।३। जीवनवर्धनाय ॥

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