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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 45
    ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अपे॑त॒ वीत॒ वि च॑ सर्प॒तातो॒ येऽत्र॒ स्थ पु॑रा॒णा ये च॒ नूत॑नाः। अदा॑द्य॒मोऽव॒सानं॑ पृथि॒व्याऽअक्र॑न्नि॒मं पि॒तरो॑ लो॒कम॑स्मै॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑। इ॒त॒। वि। इ॒त॒। वि। च॒। स॒र्प॒त॒। अतः॑। ये। अत्र॑। स्थ। पु॒रा॒णाः। ये। च॒। नूत॑नाः। अदा॑त्। य॒मः। अ॒व॒सान॒मित्य॑व॒ऽसान॑म्। पृ॒थि॒व्याः। अक्र॑न्। इ॒मम्। पि॒तरः॑। लो॒कम्। अ॒स्मै॒ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेत वीत वि च सर्पतातो ये त्र स्थ पुराणा ये च नूतनाः । अदाद्यमो वसानम्पृथिव्या अक्रन्निमम्पितरो लोकमस्मै ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप। इत। वि। इत। वि। च। सर्पत। अतः। ये। अत्र। स्थ। पुराणाः। ये। च। नूतनाः। अदात्। यमः। अवसानमित्यवऽसानम्। पृथिव्याः। अक्रन्। इमम्। पितरः। लोकम्। अस्मै॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 45
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    Translation -
    Go away, depart and move off from this place, old and new, whosoever have been here. The ordainer Lord has provided shelter on the earth to this sacrificer and the elders have provided this world for him. (1)

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