अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
इ॒यं वा उ॑पृथि॒वी बृह॒स्पति॒र्द्यौरे॒वेन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वै । ऊं॒ इति॑ । पृ॒थि॒वी । बृह॒स्पति॑ । द्यौ: । ए॒व । इन्द्र॑: ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वा उपृथिवी बृहस्पतिर्द्यौरेवेन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । वै । ऊं इति । पृथिवी । बृहस्पति । द्यौ: । एव । इन्द्र: ॥१०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(वै, उ) निश्चय से ही, (इयम्) यह (पृथिवी) पृथिवी (बृहस्पतिः) बृहस्पति है, और (द्यौः एव) द्युलोक ही (इन्द्रः) इन्द्र है।
टिप्पणी -
[बृहस्पतिः= बृहती (छन्दः) + पतिः। बृहती आदि वैदिक छन्दों से युक्त वेदवाणी की रक्षिका = पृथिवी। क्योंकि पृथिवीस्थ मनुष्यजाति, वेदों के स्वाध्याय द्वारा वेदवाणी की रक्षिका है। इन्द्रा = इदि परमैश्वर्ये। चन्द्र, तारागण और नक्षत्रादि ऐश्वर्य का आधार द्युलोक है। अतः इन्द्र=द्यौः। पृथिवी ऐश्वर्य का खजाना है। पृथिवी सूर्य से पैदा हुई है, अतः सूर्य बड़ा खजाना है, -- ऐश्वर्य का। और सूर्य द्युलोक का एक अङ्ग है, अतः द्युलोक सूर्य से भी बड़ा खजाना है, - ऐश्वर्य का। अतः इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्य का आधार है, - द्युलोक।]