अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदार्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
श्रेयां॑समेनमा॒त्मनो॑ मानये॒त्तथा॑ क्ष॒त्राय॒ ना वृ॑श्चते॒ तथा॑ रा॒ष्ट्राय॒ना वृ॑श्चते ॥
स्वर सहित पद पाठश्रेयां॑सम् । ए॒न॒म् । आ॒त्मन॑: । मा॒न॒ये॒त् । तथा॑ । क्ष॒त्राय॑ । न । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । तथा॑ । रा॒ष्ट्राय॑ । न । आ । वृ॒श्च॒ते॒ ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रेयांसमेनमात्मनो मानयेत्तथा क्षत्राय ना वृश्चते तथा राष्ट्रायना वृश्चते ॥
स्वर रहित पद पाठश्रेयांसम् । एनम् । आत्मन: । मानयेत् । तथा । क्षत्राय । न । आ । वृश्चते । तथा । राष्ट्राय । न । आ । वृश्चते ॥१०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(एनम्) इस अतिथि को (आत्मनः) अपने से (श्रेयांसम्) श्रेष्ठ जान कर (मानयेत्) इसका मान करे । (तथा) इस प्रकार राजा (क्षत्राय) क्षात्रधर्म से (न आवृश्चते) अपने आप को वञ्चित नहीं करता, (तथा) इस प्रकार (राष्ट्राय) राष्ट्र से (न आवृश्चते) अपने-आप को वञ्चित नहीं करता।
टिप्पणी -
[क्षत्राय=क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः, (कालिदास, रघुवंश २।५३)। सब की रक्षा और पालन करना क्षत्रियों का धर्म है। राष्ट्राय नावृश्चते= रक्षा से विपरीतवृत्ति राजा राष्ट्रशासन से अपने को वञ्चित कर लेता है, प्रजा द्वारा च्युत कर दिया जाता है (द्र० अथर्व० ६।८७।१)]