अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा प्राजापत्या पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अतो॒ वै ब्रह्म॑च क्ष॒त्रं चोद॑तिष्ठतां॒ ते अ॑ब्रूतां॒ कं प्र वि॑शा॒वेति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑: । वै । ब्रह्म॑ । च॒ । क्ष॒त्रम् । च॒ । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒ता॒म् । ते इति॑ । अ॒ब्रू॒ता॒म् । कम् । प्र । वि॒शा॒य॒ । इति॑ ॥१०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अतो वै ब्रह्मच क्षत्रं चोदतिष्ठतां ते अब्रूतां कं प्र विशावेति ॥
स्वर रहित पद पाठअत: । वै । ब्रह्म । च । क्षत्रम् । च । उत् । अतिष्ठताम् । ते इति । अब्रूताम् । कम् । प्र । विशाय । इति ॥१०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(वै) निश्चय से, (अतः) इस विद्वान् व्रात्य अतिथि से, (ब्रह्म च क्षत्रं च) ब्रह्मसम्बन्धी और क्षत्रसम्बन्धी उपदेश (उदतिष्ठताम्) उठे, प्रकट हुए। (ते) वे ब्रह्म और क्षत्र (इति अब्रूताम्) यह बोले कि (कम्) किस में (प्रविशाव) हम प्रवेश करें ?
टिप्पणी -
[मन्त्र में ब्रह्म और क्षत्र कोई व्यक्ति विशेष नहीं, जो कि वस्तुतः बोल सकें और पूछ सकें। ये दोनों भावद्योतक शब्द हैं। कविता की दृष्टि से इन अचेतन भावों को भी चेतनदृष्टया वर्णित किया है। ऐसे वर्णन वेदों में प्रायः हुए हैं, जिन्हें ऐतिहासिक मान लेना भ्रान्तिमूलक ही है। मन्त्र में यह भी दर्शाया है कि राजा द्वारा सम्मान का अधिकारी ऐसा ही विद्वान् तथा व्रात्य अतिथि होना चाहिए, जोकि ब्राह्मधर्म और क्षात्रधर्म का उपदेश दे सकें]