अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सोमो॑ मा रु॒द्रैर्दक्षि॑णाया दि॒शः पा॑तु॒ तस्मि॑न्क्रमे॒ तस्मि॑ञ्छ्रये॒ तां पुरं॒ प्रैमि॑। स मा॑ रक्षतु॒ स मा॑ गोपायतु॒ तस्मा॑ आ॒त्मानं॒ परि॑ ददे॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसोमः॑। मा॒। रु॒द्रैः। दक्षि॑णायाः। दि॒शः। पा॒तु॒। तस्मि॑न्। क्र॒मे॒। तस्मि॑न्। श्र॒ये॒। ताम्। पुर॑म्। प्र। ए॒मि॒। सः। मा॒। र॒क्ष॒तु॒। सः। मा॒। गो॒पा॒य॒तु॒। तस्मै॑। आ॒त्मान॑म्। परि॑। द॒दे॒। स्वाहा॑ ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमो मा रुद्रैर्दक्षिणाया दिशः पातु तस्मिन्क्रमे तस्मिञ्छ्रये तां पुरं प्रैमि। स मा रक्षतु स मा गोपायतु तस्मा आत्मानं परि ददे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसोमः। मा। रुद्रैः। दक्षिणायाः। दिशः। पातु। तस्मिन्। क्रमे। तस्मिन्। श्रये। ताम्। पुरम्। प्र। एमि। सः। मा। रक्षतु। सः। मा। गोपायतु। तस्मै। आत्मानम्। परि। ददे। स्वाहा ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(रुद्रैः) रौद्र विद्युतों के साथ वर्तमान (सोमः) अभिषुत जल में प्रविष्ट सोमनामक परमेश्वर (दक्षिणायाः दिशः) दक्षिण दिशा से (मा) मेरी (पातु) रक्षा करे। तस्मिन्=पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[भूमण्डल की भूमध्यरेखा से उत्तर की ओर तो भूमि है, और दक्षिण में समुद्र। वर्षा ऋतु में दक्षिण दिशा में अर्थात् समुद्र से, प्रखर सूर्य किरणों के कारण जल मानो अभिषुत (Distilled) होकर शुद्ध हुआ अन्तरिक्ष में आरोहण करता है। इस शुद्ध जल को जिसमें कि कोई पार्थिव कण नहीं होते “सोम” कहा है। इस सोम में शक्तिरूप से प्रविष्ट परमेश्वर को भी “सोम” कहा है। जैसे अग्नि में प्रविष्ट परमेश्वर अग्नि नाम वाला, और वायु में प्रविष्ट वायु नामवाला है, वैसे ही इस अभिषुत सोम में प्रविष्ट परमेश्वर सोम नाम वाला है। सोमः=षुञ् अभिषवे। अभिषवः= सुरासन्धानम्१। समुद्र में जब सोमाभिषव क्रिया सूर्य की प्रखर किरणों के कारण होती है, तब यह अभिषुत सोम विद्युत् से आविष्ट होकर अन्तरिक्ष में आरोहण करता है। यह विद्युत् “रुद्र” है। इस प्रकार दक्षिणदिशा के साथ “सोमो रुद्रैः” का सम्बन्ध समझा जा सकता है। यही विद्युत् मेघ से पतन करती हुई रौद्ररूप वाली होती है।] [१. प्रकरण की दृष्टि से अभिषव= वाष्पीकरण।]