अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 23/ मन्त्र 26
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - दैवी जगती
सूक्तम् - अथर्वाण सूक्त
प्रा॑जाप॒त्याभ्यां॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒जा॒ऽप॒त्याभ्या॑म्। स्वाहा॑ ॥२३.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राजापत्याभ्यां स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठप्राजाऽपत्याभ्याम्। स्वाहा ॥२३.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 23; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
प्रजापति-सम्बन्धी दो अनुवाकों के लिये प्रशंसायुक्त वाणी हो।
टिप्पणी -
[अथर्ववेद १६वें काण्ड के दो अनुवाक “प्राजापत्याभ्याम्” द्वारा अभिप्रेत हैं। सर्वानुक्रमणी में इन दो अनुवाकों को “प्राजापत्य” कहा है। १६वें काण्ड के प्रथम पर्याय का देवता प्रजापति है। अथवा “प्राजापत्याभ्याम्” द्वारा दो सूक्त अभिप्रेत हैं, जिनमें कि “प्राजापत्य” का वर्णन है। यथा—“कृणोमि ते प्राजापत्यमा योनिं गर्भ एतु ते” (अथर्व० ३.२३.५)। इसमें प्राजापत्य का अर्थ है—“प्रजापति बनने का कर्म,” अर्थात् गर्भाधान। तथा—“प्राजापत्यो वा एतस्य यज्ञो विततो य उपहरति” (अथर्व० ९.६(१).११)। प्रजापतेर्वा एष विक्रमाननु विक्रमते य उपहरति” (अथर्व० ९.६(२).१२)। इन मन्त्रों में “प्राजापत्य यज्ञ” का कथन है, और कहा है कि जो गृहस्थी अन्नादि द्वारा अतिथि की सेवा करता है, वह मानो प्रजापति परमेश्वर के रचाए यज्ञ का विस्तार करता है, और वह प्रजापति का पदानुगामी होता है।]