अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 23/ मन्त्र 21
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - दैवी पङ्क्तिः
सूक्तम् - अथर्वाण सूक्त
क्षु॒द्रेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक्षु॒द्रेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२३.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षुद्रेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठक्षुद्रेभ्यः। स्वाहा ॥२३.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 23; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
क्षुद्र अर्थात् अल्प संख्या वाले सूक्तों के लिये प्रशंसायुक्त वाणी हो।
टिप्पणी -
[इस २३ वें सूक्त का प्रारम्भ “चतुऋर्चेभ्यः” द्वारा किया गया है, क्योंकि अथर्ववेद का प्रथम सूक्त चतुऋर्चात्मक है, चार ऋचाओं वाला है, जैसे कि २२ वें सूक्त का प्रारम्भ “आद्यैः पञ्चानुवाकैः” द्वारा किया है। अर्थात् अथर्ववेद के आदि के= प्रारम्भ के ५ अनुवाकों द्वारा किया है। “चतुऋर्चेभ्यः” से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर क्रमशः एक-एक ऋचा की वृद्धि वाले “अष्टादशर्चेभ्यः” तक २३ वें सूक्त में कथन हुआ है। “एकोविंशतिः स्वाहा” (मन्त्र १६) में स्वाहा शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति नहीं है। यही परिस्थिति “विंशतिः स्वाहा” (मन्त्र १७) की है। यह भेद सम्भवतः यह दर्शाता है कि “एकोनविंशतिः, तथा विंशतिः” मन्त्र १९ तथा २० ऋचाओं वाले सूक्तों के लिये अभिप्रेत नहीं। अतः इन पदों के अर्थ क्रमशः १ से १९ काण्ड तथा १ से २० काण्ड ही प्रतीत होते हैं। अथर्ववेद में २० काण्ड ही हैं। अथवा इनका अभिप्राय है केवल १९ वां काण्ड, तथा केवल २०वां काण्ड। “चतुऋर्चेभ्यः” से पूर्व तत्संलग्न तृचेभ्यः द्व्यृचेभ्यः एकर्चेभ्यः तथा एकानृचेभ्यः का कथन शेष है, जिन्हें कि मन्त्र १९,२०,२१,२२ द्वारा निर्दिष्ट किया है। ये चार मन्त्र सूक्तों में ऋक्-संख्या के उत्तरोत्तर ह्रास के सूचक हैं। समग्र अथर्ववेद में “तृच” सूक्त लगभग १७३, “द्व्यृच” सूक्त ४६, “एकर्च” सूक्त ७५, तथा “एकानृच” सूक्त १ है। इस संख्या के क्रम से इसलिए “तृचेभ्यः, एकर्चेभ्य, क्षुद्रेभ्यः और एकानृचेभ्यः”—यह क्रम रखा प्रतीत होता है। वर्तमान २३ वें सूक्त में “द्व्यृचेभ्यः” का वर्णन नहीं। इसलिए सम्भवतः “क्षुद्रेभ्यः” द्वारा “द्व्यृ चेभ्यः” सूक्तों का कथन हुआ है। क्योंकि अथर्ववेद में “द्व्यृ च” सूक्त संख्या में तृच और एकर्च सूक्तों की अपेक्षया अल्प अर्थात् क्षुद्र हैं।]