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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    अच्छा॑ म॒ इन्द्रं॑ म॒तयः॑ स्व॒र्विदः॑ स॒ध्रीची॒र्विश्वा॑ उश॒तीर॑नूषत। परि॑ ष्वजन्ते॒ जन॑यो॒ यथा॒ पतिं॒ मर्यं॒ न शु॒न्ध्युं म॒घवा॑नमू॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । मे॒ । इन्द्र॑म् । म॒तय॑: । स्व॒:ऽविद॑: । स॒ध्रीची॑: । विश्वा॑: । उ॒श॒ती: । अ॒नू॒ष॒त॒ ॥ परि॑ । स्व॒ज॒न्ते॒ । जन॑य: । यथा॑ । पति॑म् । मर्य॑म् । न । शु॒न्ध्युम् । म॒घऽवा॑नम् । ऊ॒तये॑ ॥१७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा म इन्द्रं मतयः स्वर्विदः सध्रीचीर्विश्वा उशतीरनूषत। परि ष्वजन्ते जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । मे । इन्द्रम् । मतय: । स्व:ऽविद: । सध्रीची: । विश्वा: । उशती: । अनूषत ॥ परि । स्वजन्ते । जनय: । यथा । पतिम् । मर्यम् । न । शुन्ध्युम् । मघऽवानम् । ऊतये ॥१७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (मे) मेरी (विश्वाः) सब प्रकार की (मतयः) मतियों ने (इन्द्रम्) परमेश्वर की (अच्छ) प्रत्यक्ष रूप में (अनूषत) स्तुतियाँ की हैं। मतियाँ जो कि (स्वर्विदः) सुख प्राप्त करातीं, (सध्रीचीः) जो कि परमेश्वर के साथ विचरतीं, (उशतीः) और परमेश्वर की ही कामना करती हैं। मेरी मतियाँ (परिष्वजन्ते) परमेश्वर का आलिङ्गन करती हैं। (यथा) जैसे कि (जनयः) पत्नियाँ (पतिम्) अपने-अपने पति का आलिङ्गन करती हैं। अर्थात् (शुन्ध्युं मर्यं न) शुद्धाचारी मानुष-पति का आलिङ्गन करती हैं, वैसे ही मेरी मतियाँ (मघवानम्) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर का आलिङ्गन करती हैं, (ऊतये) ताकि मेरी रक्षा हो सके।

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