अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ म॒न्दिन॑श्चमू॒षदः॑। प्रैषा॒मनी॑कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्वर्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवय॑: । न । वृ॒क्षम् । सु॒ऽप॒ला॒शम् । आ । अ॒स॒द॒न् । सोमा॑स: । इन्द्र॑म् । म॒न्दिन॑: । च॒मू॒ऽसद॑: ॥ प्र । ए॒षा॒म् । अनी॑कम् । शव॑सा । दवि॑द्युतत् । वि॒दत् । स्व॑: । मन॑वे । ज्योति॑: । आर्यम् ॥१७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषदः। प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्वर्मनवे ज्योतिरार्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठवय: । न । वृक्षम् । सुऽपलाशम् । आ । असदन् । सोमास: । इन्द्रम् । मन्दिन: । चमूऽसद: ॥ प्र । एषाम् । अनीकम् । शवसा । दविद्युतत् । विदत् । स्व: । मनवे । ज्योति: । आर्यम् ॥१७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(न) जैसे (वयः) पक्षी (सुपलाशं वृक्षम्) उत्तम-पत्तोंवाले वृक्ष पर (आसदन्) आ बैठते हैं, वैसे (मन्दिनः) हर्षदायक (चमूषदः) भूलोक और द्युलोव्यापी (सोमासः) भक्तिरस (इन्द्रम्) परमेश्वर में (आसदन्) आकर स्थिर हो जाते हैं। (एषाम्) इन भक्तिरसों की (अनीकम्) प्राणदायिनी शक्ति, (शवसा) अपने-अपने पूर्ण बल में (प्र दविद्युतत्) प्रद्योतित हो रही है, चमक रही है। और इस प्राणदायिनी शक्ति ने (मनवे) मनुष्य के लिए (स्वः) सुख और (आर्यं ज्योतिः) परमेश्वरीय ज्योति (विदत्) प्राप्त कराई है।
टिप्पणी -
[चमूषदः=“यस्य विश्व उपासते प्रशिषम्” (यजुः০ २५.१३) अर्थात् संसार के सब पदार्थ जिस परमेश्वर के उत्तम-शासन की उपासना में लगे हुए हैं। उपासना पद द्वारा समग्र विश्व में भक्तिरस की सत्ता का कथन किया। तथा “तस्येमे सर्वे यातव उप प्रशिषमासते” (अथर्व০ १३.४(३).२७); अर्थात् ये सब गतिमान् पदार्थ उस परमेश्वर के उत्तम-प्रशासनकी उपासना कर रहे हैं। ‘उपासना’ पद द्वारा इन गतिमान् पदार्थों में भक्तिरस की सत्ता का कथन किया है। चमू=द्यावापृथिव्यौ (निघं০ ३.३०)। अनीकम्=अन् प्राणने। आर्यम्=अर्यः ईश्वरः (निरु০ १३.१.४), तस्य ज्योतिः।]