अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
वि॑षू॒वृदिन्द्रो॒ अमु॑तेरु॒त क्षु॒धः स इद्रा॒यो म॒घवा॒ वस्व॑ ईशते। तस्येदि॒मे प्र॑व॒णे स॒प्त सिन्ध॑वो॒ वयो॑ वर्धन्ति वृष॒भस्य॑ शु॒ष्मिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षु॒ऽवृत् । इन्द्र॑: । अम॑ते: । उ॒त । क्षु॒ध: । स: । इत् । रा॒य: । म॒घऽवा॑ । वस्व॑: । ई॒श॒ते॒ ॥ तस्य॑ । इत् । इ॒मे। प्र॒व॒णे । स॒प्त । सिन्ध॑व: । वय॑: । व॒र्ध॒न्ति॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । शु॒ष्मिण॑: ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
विषूवृदिन्द्रो अमुतेरुत क्षुधः स इद्रायो मघवा वस्व ईशते। तस्येदिमे प्रवणे सप्त सिन्धवो वयो वर्धन्ति वृषभस्य शुष्मिणः ॥
स्वर रहित पद पाठविषुऽवृत् । इन्द्र: । अमते: । उत । क्षुध: । स: । इत् । राय: । मघऽवा । वस्व: । ईशते ॥ तस्य । इत् । इमे। प्रवणे । सप्त । सिन्धव: । वय: । वर्धन्ति । वृषभस्य । शुष्मिण: ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(इन्द्रः) परमेश्वर (अमतेः) अज्ञान का, (उत) और (क्षुधः) क्षुधा का, (विषुवृत्) भिन्न-भिन्न प्रकार से निवारण करता है। (सः) वह (मघवा) ऐश्वर्यवान् (इद्) ही (रायः वस्वः) प्राकृतिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का (ईशते) अधीश्वर है। (वृषभस्य) सम्पत्तियों की वर्षा करनेवाले, और (शुष्मिणः) बलशाली (तस्य इत्) उसही परमेश्वर की (प्रवणे) आज्ञा में वर्तमान (सप्त सिन्धवः) सात प्रकार की नदियाँ (वयः) प्राकृतिक और आध्यात्मिक अन्न की (वर्धन्ति) उत्पत्ति तथा वृद्धि करती हैं।
टिप्पणी -
[सप्त सिन्धवः=सात प्रकार की जलमय नदियाँ पृथिवी पर प्रवाहित होकर, प्राकृतिक अन्न को उत्पन्न करतीं तथा उसकी वृद्धि करती हैं, जिसके द्वारा कि क्षुधा की निवृत्ति होती है। और ७ छन्दों से युक्त वेदवाणियाँ मुख में प्रवाहित होती हुई आध्यात्मिक-अन्न अर्थात् ज्ञान को उत्पन्न कर, और उसकी वृद्धि कर अज्ञान की निवृत्ति करती हैं। निम्नलिखित मन्त्र में “सप्त सिन्धवः” पद द्वारा ७ छन्दों से युक्त वेदवाणी का ग्रहण होता है, यथा— सु॒दे॒वा अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः। अ॒नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्म्यं॑ सुषि॒रामि॑व॥ ऋ০ ६.९.१२॥ मन्त्र में ‘काकुद’ का अर्थ है—तालु। यथा—काकुदं ताल्वित्याचक्षते। जिह्वा=कोकुवा, सास्मिन् धीयते। जिह्वा कोकुवा कोकूयमाना वर्णान् नुदतीति वा, कोकूयतेर्वा स्याच्छब्दकर्मणः’ (निरु০ ५.४.२७)।]