अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
उज्जा॑यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ पुराण॒वत्। वि रो॑चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचिः॒ स्वर्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । जा॒य॒ता॒म् । प॒र॒शु: । ज्योति॑षा । स॒ह । भू॒या: । ऋ॒तस्य॑ । सु॒ऽदुघा॑ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् ॥ वि । रो॒च॒ता॒म् । अ॒रु॒ष: । भा॒नुना॑ । शुचि॑: । स्व॑: । न । शु॒क्रम् । शु॒शु॒ची॒त॒ ।सत्ऽप॑ति: ॥१७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्। वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्वर्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । जायताम् । परशु: । ज्योतिषा । सह । भूया: । ऋतस्य । सुऽदुघा । पुराणऽवत् ॥ वि । रोचताम् । अरुष: । भानुना । शुचि: । स्व: । न । शुक्रम् । शुशुचीत ।सत्ऽपति: ॥१७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
हे उपासक! (ज्योतिषा सह) परमेश्वरी ज्योति के साथ-साथ (परशुः) तेरा परशु भी (उद् जायताम्) ऊँचा उठे। तू (पुराणवत्) प्राचीन अर्थात् अनादिकाल के ऋषियों की तरह (ऋतस्य) सच्चाई का (सुदुघा) सुगमता से दोहनेवाला (भूयाः) हो जा। ताकि (भानुना) परमेश्वरीय-प्रभा द्वारा तू (अरुषः) चमकता हुआ (वि रोचताम्) खूब अधिक चमके। और (सत्पतिः) सच्चा-पति परमेश्वर तुझे (स्वः न) सूर्य के समान (शुचिः) पवित्र तथा (शुक्रं शुशुचीत) ज्योतिर्मय रूप में चमका दे।
टिप्पणी -
[परशुः=“प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते” (मुण्डक २.५.४) में ओ३म्-जप को धनुष् कहा है। इसी ओ३म्-जप को मन्त्र में परशु कहा है। परशु=कुल्हाड़ा। अथवा परशु का अभिप्राय है तीव्र प्रयत्न।]