अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 18
नि येन॑ मुष्टिह॒त्यया॒ नि वृ॒त्रा रु॒णधा॑महै। त्वोता॑सो॒ न्यर्व॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठनि । येन॑ । मु॒ष्टि॒ऽह॒त्यया॑ । नि । वृ॒त्रा । रु॒णधा॑महै ॥ त्वाऽऊ॑तास: । नि । अर्व॑ता ॥७०.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यर्वता ॥
स्वर रहित पद पाठनि । येन । मुष्टिऽहत्यया । नि । वृत्रा । रुणधामहै ॥ त्वाऽऊतास: । नि । अर्वता ॥७०.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! (त्वोतासः) आप द्वारा सुरक्षित हम उपासक—(नि अर्वता) पाप-वृत्रों का नितरां हनन करनेवाले (येन) जिस आपकी सहायता द्वारा—(वृत्रा) पाप-वृत्रों का (निरुणधामहै) हम निरोध करते हैं, तथा उसका (नि) नितरां हनन करते हैं, जैसे कि (मुष्टिहत्यया) मुट्ठी के प्रहार द्वारा अल्प-कीट नष्ट किये जा सकते हैं—[अगले मन्त्र १९ के साथ अन्वय।]