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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 17
    सूक्त - पुरुहन्मा देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९२

    इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑। हस्ता॑य॒ वज्रः॒ प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । तम् । शु॒म्भ॒ । पु॒रु॒ऽह॒न्म॒न् । अव॑से । यस्य॑ । द्वि॒ता । वि॒ऽध॒र्तरि॑ ॥ हस्ता॑य । वज्र॑: । प्रति॑ । धा॒यि॒ । द॒र्शत: । म॒ह: । दि॒वे । न । सूर्य॑: ॥९२.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं तं शुम्भ पुरुहन्मन्नवसे यस्य द्विता विधर्तरि। हस्ताय वज्रः प्रति धायि दर्शतो महो दिवे न सूर्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । तम् । शुम्भ । पुरुऽहन्मन् । अवसे । यस्य । द्विता । विऽधर्तरि ॥ हस्ताय । वज्र: । प्रति । धायि । दर्शत: । मह: । दिवे । न । सूर्य: ॥९२.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 17

    भाषार्थ -
    (पुरुहन्मन्) हे पापों का अति हनन करनेवाले उपासक! (अवसे) पापों से आत्मरक्षार्थ, तू (तम्) उस (इन्द्रम्) परमेश्वर की (शुम्भ) स्तुतियों और कीर्तनों द्वारा शोभा बढ़ाया कर, (यस्य) जिस के कि (विधर्तरि) विशेष-धारण-सामर्थ्य पर (द्विता) दो प्रकार के—द्युलोक तथा भूलोक, इहलोक तथा परलोक स्थित हैं; तथा जिस परमेश्वर ने (हस्ताय) पापियों और पापों के हनन के लिए, (दर्शतः) दर्शनीय (वज्रः) ज्ञानरूपी वज्र (प्रतिधायि) धारण किया हुआ है, (न) जैसे कि उसने (दिवे) प्रकाश के लिए अर्थात् अन्धकार के हनन के लिए (महः सूर्यः) प्रकाशमय महा सूर्य धारण किया हुआ है।

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