अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 15
अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सः प्रि॒यमे॑धास एषाम्। पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑तिं वृ॒क्तब॑र्हिषो हि॒तप्र॑यस आशत ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑स: । प्रि॒यऽमे॑धास: । ए॒षा॒म् ॥ पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्रऽय॑तिम् । वृ॒क्तऽब॑र्हिष । हि॒तऽप्र॑यस: । आ॒श॒त॒ ॥९२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्। पूर्वामनु प्रयतिं वृक्तबर्हिषो हितप्रयस आशत ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । प्रत्नस्य । ओकस: । प्रियऽमेधास: । एषाम् ॥ पूर्वाम् । अनु । प्रऽयतिम् । वृक्तऽबर्हिष । हितऽप्रयस: । आशत ॥९२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(एषाम्) इन उपासकों में से जो उपासक (प्रियमेधासः) उपासनायज्ञों को प्रिय जानते हैं, इसलिए जिन्होंने (वृक्तबर्हिषः) द्रव्ययज्ञों का परित्याग कर दिया है, और जो (हितप्रयसः) हितकर आध्यात्मिकयज्ञों में प्रयासशील हैं, वे (प्रत्नस्य) अनादि (ओकसः) सर्वाश्रय परमेश्वर के दर्शाए (अनु) मार्गानुसार, (पूर्वाम् प्रयतिम्) अनादिकाल से प्रचलित आध्यात्मिक प्रयत्नों में (अनु) निरन्तर (आशत) व्याप्त रहते हैं।
टिप्पणी -
[गृहस्थियों के लिए द्रव्य-यज्ञों का विधान है, जो कि द्रव्य द्वारा साध्य हैं। परन्तु वानप्रस्थियों तथा संन्यासियों के लिए आध्यात्मिक-यज्ञ हितकर है।]