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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - सूक्त-९२
    43

    अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सः प्रि॒यमे॑धास एषाम्। पूर्वा॒मनु॒ प्रय॑तिं वृ॒क्तब॑र्हिषो हि॒तप्र॑यस आशत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑स: । प्रि॒यऽमे॑धास: । ए॒षा॒म् ॥ पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्रऽय॑तिम् । वृ॒क्तऽब॑र्हिष । हि॒तऽप्र॑यस: । आ॒श॒त॒ ॥९२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्। पूर्वामनु प्रयतिं वृक्तबर्हिषो हितप्रयस आशत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । प्रत्नस्य । ओकस: । प्रियऽमेधास: । एषाम् ॥ पूर्वाम् । अनु । प्रऽयतिम् । वृक्तऽबर्हिष । हितऽप्रयस: । आशत ॥९२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (एषाम्) इन प्राणियों के बीच (प्रियमेधासः) प्यारी बुद्धिवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले (हितप्रयसः) हितकारी अन्नवाले पुरुषों ने (प्रत्नस्य) सनातन (ओकसः) आश्रय [परमात्मा] के (अनु) पीछे होकर (पूर्वाम्) पहिली (प्रयतिम्) प्रयत्न रीति को (अनु) निरन्तर (आशत) पाया है ॥१॥

    भावार्थ

    इन प्राणियों के बीच सर्वहितैषी विद्वान् लोग परमात्मा का आश्रय लेकर आनन्द पावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अनु) अनुकृत्य (प्रत्नस्य) पुराणस्य (ओकसः) आश्रयस्य परमेश्वरस्य (प्रियमेधासः) हितकरमेधायुक्ताः (एषाम्) मनुष्याणां मध्ये (पूर्वाम्) प्रथमाम् (अनु) निरन्तरम् (प्रयतिम्) यती प्रयत्ने-इन्। प्रयत्नरीतिम् (वृक्तबर्हिषः) अ० २०।२।१। त्यक्तहिंसाः (हितप्रयसः) हितकरान्नयुक्ताः (आशत) प्राप्तवन्तः ॥

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    विषय

    प्रियमेधासः, वृक्तबर्हिषः, हितप्रयसः

    पदार्थ

    १. (प्रियमेधास:) = बुद्धि के साथ प्रेमवाले लोग (एषाम्) = इनके, अर्थात् अपने (प्रत्नस्य ओकसः अनु) = सनातन गृह का लक्ष्य करके (वृक्तबर्हिषः) = हृदयरूप क्षेत्र को वासनारूप घास से रहित करनेवाले होते हैं। २. ये (हितप्रयस:) = सदा हितकर उद्योगों में लगे हुए (पूर्वाम्) = सर्वमुख्य अथवा पालन व पूरण करनेवाली (प्रयतिम्) = दान की प्रक्रिया को (अनु आशत) = व्याप्त करते हैं, अर्थात् सदा दानशील होते हैं।

    भावार्थ

    ब्रह्मलोकरूप अपने सनातन गृह को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम "प्रियमेध', बुद्धिप्रिय बनें। हृदयक्षेत्र में से हम वासनाओं के घास-फूस को उखाड़ डालें। सदा हितकर उद्योगों में लगे रहें।

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    भाषार्थ

    (एषाम्) इन उपासकों में से जो उपासक (प्रियमेधासः) उपासनायज्ञों को प्रिय जानते हैं, इसलिए जिन्होंने (वृक्तबर्हिषः) द्रव्ययज्ञों का परित्याग कर दिया है, और जो (हितप्रयसः) हितकर आध्यात्मिकयज्ञों में प्रयासशील हैं, वे (प्रत्नस्य) अनादि (ओकसः) सर्वाश्रय परमेश्वर के दर्शाए (अनु) मार्गानुसार, (पूर्वाम् प्रयतिम्) अनादिकाल से प्रचलित आध्यात्मिक प्रयत्नों में (अनु) निरन्तर (आशत) व्याप्त रहते हैं।

    टिप्पणी

    [गृहस्थियों के लिए द्रव्य-यज्ञों का विधान है, जो कि द्रव्य द्वारा साध्य हैं। परन्तु वानप्रस्थियों तथा संन्यासियों के लिए आध्यात्मिक-यज्ञ हितकर है।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (प्रियमेधास:) पवित्र ब्रह्मज्ञान के प्रिय, (हित-प्रयसः) ज्ञान को प्राप्त कर लेने वाले (पूर्वाम् प्रयतिम् अनु) अपने पूर्व जन्म के किये उत्कृष्ट यत्न के अनुकूल (वृक्तबर्हिषः) यज्ञ में जिस प्रकार कुशादि बिछाये जाते हैं उसी प्रकार अध्यात्म यज्ञ के लिये प्राणों का आयमन करने वाले विद्वान् साधक जन (एषाम्) इन में जीव के रहने योग्य समस्त लोकों में से सबसे (प्रत्नस्य ओकसः) पुरातन पुण्य स्थान या आश्रय परम ब्रह्म को ही (अनु आशत) निरन्तर उपभोग करते, उसमें रमते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Of these devotees of yajna and lovers of meditative communion, those who sit on the holy grass with a clean mind and offer oblations of spiritual love in the style of the sages of old as ever achieve union with the universal presence of the eternal Spirit.

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    Translation

    The men for whom the wisdom and Yajna are dear and who have left the intent and practice of violence and are engaged in doing good among these people, folllowing (command) of the eternal abode of people, the All-abiding God act according to previous course of perseverance.

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    Translation

    The men for whom the wisdom and Yajna are dear and who have left the intent and practice of violence and are engaged in doing good among these people, following (command) of the eternal abode of people, the All-abiding God act according to previous course of perseverance.

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    Translation

    I (i.e., devotee) praise the qualities of Him, Who shines like a king amongst the people (or who is the enlightener of all the sense-organs), who moves unrestrained amongst the moving spheres, who is the subduer of all forces of evil and darkness, the mightiest of all and is the Dispeller of Ignorance.

    Footnote

    (16-18) Pt. Jaidev has applied these verses to the well-versed yogi.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अनु) अनुकृत्य (प्रत्नस्य) पुराणस्य (ओकसः) आश्रयस्य परमेश्वरस्य (प्रियमेधासः) हितकरमेधायुक्ताः (एषाम्) मनुष्याणां मध्ये (पूर्वाम्) प्रथमाम् (अनु) निरन्तरम् (प्रयतिम्) यती प्रयत्ने-इन्। प्रयत्नरीतिम् (वृक्तबर्हिषः) अ० २०।२।१। त्यक्तहिंसाः (हितप्रयसः) हितकरान्नयुक्ताः (आशत) प्राप्तवन्तः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (এষাম্) এই সকল মনুষ্যদের মধ্যে (প্রিয়মেধাসঃ) হিতকর বুদ্ধিযুক্ত, (বৃক্তবর্হিষঃ) হিংসা পরিত্যাগকারী/অহিংসক (হিতপ্রয়সঃ) হিতকারী অন্নযুক্ত পুরুষগণ (প্রত্নস্য) সনাতন (ওকসঃ) আশ্রয়ের [পরমাত্মার] (অনু) অনুবর্তী হয়ে (পূর্বাম্) প্রথম (প্রয়তিম্) প্রয়ত্ন রীতিকে (অনু) নিরন্তর (আশত) প্রাপ্ত করেছেন ॥১৫॥

    भावार्थ

    এই সকল প্রাণীদের মধ্যে সর্বহিতৈষী বিদ্বানগণ পরমাত্মার আশ্রয় গ্রহণ করে আনন্দ প্রাপ্ত করে/করুক ॥১৫॥

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    भाषार्थ

    (এষাম্) এই উপাসকদের মধ্যে যে উপাসক (প্রিয়মেধাসঃ) উপাসনাযজ্ঞকে প্রিয় জানে, এইজন্য যারা (বৃক্তবর্হিষঃ) দ্রব্যযজ্ঞের পরিত্যাগ করেছে, এবং যে (হিতপ্রয়সঃ) হিতকর আধ্যাত্মিকযজ্ঞে প্রয়াসশীল, সে (প্রত্নস্য) অনাদি (ওকসঃ) সর্বাশ্রয় পরমেশ্বরের প্রদর্শিত (অনু) মার্গানুসারে, (পূর্বাম্ প্রয়তিম্) অনাদিকাল থেকে প্রচলিত আধ্যাত্মিক প্রচেষ্টায় (অনু) নিরন্তর (আশত) ব্যাপ্ত থাকে।

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