अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 13
आ तू सु॑शिप्र दम्पते॒ रथं॑ तिष्ठा हिर॒ण्यय॑म्। अध॑ द्यु॒क्षं स॑चेवहि स॒हस्र॑पादमरु॒षं स्व॑स्ति॒गाम॑ने॒हस॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । सु॒ऽशि॒प्र॒ । इ॒म्ऽप॒ते॒ । रथ॑म् । ति॒ष्ठ॒ । हि॒र॒ण्यय॑म् ॥ अध॑ । द्यु॒क्षम् । स॒चे॒व॒हि॒ । स॒हस्र॑ऽपादम् । अ॒रु॒षम् । स्व॒स्ति॒ऽगाम् । अ॒ने॒हस॑म् ॥९२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तू सुशिप्र दम्पते रथं तिष्ठा हिरण्ययम्। अध द्युक्षं सचेवहि सहस्रपादमरुषं स्वस्तिगामनेहसम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तु । सुऽशिप्र । इम्ऽपते । रथम् । तिष्ठ । हिरण्ययम् ॥ अध । द्युक्षम् । सचेवहि । सहस्रऽपादम् । अरुषम् । स्वस्तिऽगाम् । अनेहसम् ॥९२.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(सुशिप्र) हे बड़े ज्ञानी ! [दम्पते] हे दमनरक्षक [जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी] (हिरण्ययम्) प्रकाशमय [ज्ञानरूपी] (रथम्) रथ पर (तु) शीघ्र (आ तिष्ठ) चढ़। (अध) फिर (द्युक्षम्) व्यवहारों में समर्थ, (सहस्रपादम्) सहस्रों [असीम] गति शक्तिवाले, (अरुधम्) व्यापक (स्वस्तिगाम्) आनन्द पहुँचानेवाले, (अनेहसम्) निर्दोष परमात्मा को (सचेवहि) हम दोनों [आचार्य और ब्रह्मचारी] मिल जावें ॥१३॥
भावार्थ
जब ब्रह्मचारी ब्रह्मविद्या में पूरी निष्ठा करता है, तब आचार्य और ब्रह्मचारी परमात्मा के आश्रय में पूरा आनन्द पाते हैं ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(आ तिष्ठ) आरोह (तु) क्षिप्रम् (सुशिप्र) अ० २०।७१।९। हे बहुज्ञानयुक्त ब्रह्मचारिन् (दम्पते) दमु उपशमे-क्विप्। हे दमनरक्षक जितेन्द्रिय (रथम्) (हिरण्ययम्) तेजोमयज्ञानरूपम् (अध) अनन्तरम् (द्युक्षम्) अ० २०।९।२। दिवु व्यवहारे-डिवि+क्षि ऐश्वर्ये-ड। व्यवहारेषु समर्थम् (सचेवहि) आवामाचार्यब्रह्मचारिणौ संगच्छेवहि। संगती भवेव (सहस्रपादम्) अ० ७।४१।२। असीमगतिशक्तियुक्तम् (अरुषम्) अर्तिपॄवपि०।२।११७। ऋ गतौ-उसि। व्यापकम् (स्वस्तिगाम्) आनन्दस्य गमयितारं प्रापकम् (अनेहसम्) निर्दोषं परमात्मानम् ॥
विषय
मिलकर प्रभु की ओर
पदार्थ
१. पत्नी पति से कहती है कि हे (सशिप्र) = शोभन हनुओं व नासिकावाले उत्तम भोजन व प्राणायाम करनेवाले (दम्पते) = शरीररूप गृह का रक्षण करनेवाले जीव! (हिरण्ययं रथम्) = ज्योतिर्मय शरीर-रथ पर (आतिष्ठ उ) = निश्चय से स्थित हो। इस शरीर-रथ को तू ज्ञानज्योति से परिपूर्ण कर। २. (अध) = अब-जीवन को इसप्रकार [क] सात्त्विक भोजनवाला [ख] प्राणसाधना सम्पन्न [ग] व ज्ञानयुक्त बनाकर, हम उस प्रभु को (सेचवहि) = प्राप्त हों, जो (द्यक्षम्) = सदा प्रकाश में निवास करनेवाले हैं। (सहस्त्रपादम्) = हजारों पाँवोंवाले हैं-सर्वत्र गतिमय हैं। (अरुषम्) = आरोचमान व [अ-रुष] क्रोधरहित हैं। (स्वस्तिगाम्) = कल्याण की ओर गतिवाले हैं-हमें कल्याणपथ पर ले-चलनेवाले हैं और (अनेहसम्) = निष्पाप हैं।
भावार्थ
हम सात्त्विक भोजन करते हुए शरीररूप रथ का रक्षण करें। इसे ज्योतिर्मय बनाएँ। पति-पत्नी मिलकर प्रकाशमय प्रभु का उपासन करें। वे हमें कल्याण के मार्ग से ले चलते हुए निष्पाप जीवनवाला बनाएंगे।
भाषार्थ
(सुशिप्र) सत्कर्मों के करने से हे शोभन मुखोंवाले (दंपते) सद्गृहस्थी पति-पत्नी! तुम दोनों (हिरण्ययम्) सुवर्णसमान बहुमूल्य (रथम्) शरीर रथों में (आ तिष्ठ) आ स्थित हुए हो। (अध) तदनन्तर यह संकल्प करो कि हम दोनों (द्युक्षम्) द्युलोक-निवासी, (सहस्रपादम्) हजारों पैरोंवाले अर्थात् सर्वगत, तथा हजारों लोकलोकान्तरों के प्रतिष्ठानरूप, (अरुषम्) द्युतिमान् रोष-क्रोध से रहित, (स्वस्तिगाम्) कल्याणमार्गी, (अनेहसम्) अपापविद्ध परमेश्वर का (सचेवहि) संग किया करेंगे।
टिप्पणी
[द्युक्षम्=द्युलोक की विभूतियों और द्युलोक के असंख्येय तारागणों की दृष्टि से उनके नियामकरूप में, परमेश्वर को “द्युलोकवासी” कहा है। सहस्रपादम्=यजुर्वेद पुरुषसूक्त (अध्या০ ३१) में परमेश्वर को सहस्रपाद् कहा है। पैरों का काम है एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाना। इस द्वारा परमेश्वर को सर्वगतरूप में वर्णित किया है। तथा पैरों का काम “प्रतिष्ठा,” अर्थात् शरीर को दृढ़ स्थित रखना है। “पादयोः प्रतिष्ठा” (अथर्व০ १९.६०.२)। अनेहसम्=पापरहित, अपापविद्ध (यजुः০ ४०.८)। पूर्व मन्त्र १२ में कुकर्मों के दुष्परिणाम का वर्णन है, और मन्त्र १३ में सुकर्मों का वर्णन हुआ है। रथम्=रथ का अभिप्राय “गृहस्थ-रथ” भी सम्भव है।]
विषय
ईश्वर स्तुति।
भावार्थ
हे (सुशिप्र) उत्तम बलशालिन् ! हे (दम्पते) जाया के पति के समान समस्त सुखों के उत्पादक प्रकृति के स्वामिन् ! परमेश्वर ! एवं चिति शक्ति या बुद्धि के स्वामिन् ! आत्मन् ! तू (हिरण्ययम्) सेनापति के समान सुवर्ण के समान तेजोमय कान्तिमान् (रथम्) रथ, या परम रमणीय रस रूप परब्रह्म का (आतिष्ठ) आश्रय ले, उस पर आरूढ़ हो। (अध) उसके बाद हम दोनों जीव और परमात्मा (सहस्रपादम्) सहस्त्रों पादों से युक्त (अरुषं) अति तेजोयुक्त, (स्वस्तिगाम्) सुखमय,कल्याणमय सत्ता या स्थिति मोक्षपद को प्राप्त कराने वाले (अनेहसम्) पाप रहित या राजस कर्म में प्रवृत्ति रहित (द्युक्षम्) अतितेजोमय उस परमपद को (सचेवहि) प्राप्त करें। ‘सहस्रपादम्’ विशेषण से ‘रथ’ शब्द इस स्वरूप परब्रह्म का वाचक है ‘सहस्राक्षः सहस्रपात्’। इसी का आगे भी वर्णन करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
O lord of golden grace, father and sustainer of the house-hold of the universe, come and seat yourself in the golden chariot of this human body and, together as friends and companions, we shall ride this chariot of heavenly light, thousand wheeled, invincible and immaculate, moving on the road to peace and ultimate good.
Translation
O Lord of home. O possessor of beautiful chins you have mountedon the car of body endowed with all the luminous organs. Let you and all of us attain the self—refulgent Divinity who has thousands of movements, who is all-bliss, free from evils and luminous among all luminaries.
Translation
O Lord of home. O possessor of beautiful chins you have mounted on the car of body endowed with all the luminous organs. Let you and all of us attain the self—refulgent Divinity who has thousands of movements, who is all-bliss, free from evils and luminous among all luminaries.
Translation
In this way, the reverent devotees come to Him alone, who is self-radiant, when they, to achieve the highest object of His (i.e., salvation) well-placed protected, revert to him again and again for self-devotion and self-abnegation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(आ तिष्ठ) आरोह (तु) क्षिप्रम् (सुशिप्र) अ० २०।७१।९। हे बहुज्ञानयुक्त ब्रह्मचारिन् (दम्पते) दमु उपशमे-क्विप्। हे दमनरक्षक जितेन्द्रिय (रथम्) (हिरण्ययम्) तेजोमयज्ञानरूपम् (अध) अनन्तरम् (द्युक्षम्) अ० २०।९।२। दिवु व्यवहारे-डिवि+क्षि ऐश्वर्ये-ड। व्यवहारेषु समर्थम् (सचेवहि) आवामाचार्यब्रह्मचारिणौ संगच्छेवहि। संगती भवेव (सहस्रपादम्) अ० ७।४१।२। असीमगतिशक्तियुक्तम् (अरुषम्) अर्तिपॄवपि०।२।११७। ऋ गतौ-उसि। व्यापकम् (स्वस्तिगाम्) आनन्दस्य गमयितारं प्रापकम् (अनेहसम्) निर्दोषं परमात्मानम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(সুশিপ্র) হে মহান জ্ঞানী ! (দম্পতে) হে দমনরক্ষক [জিতেন্দ্রিয় ব্রহ্মচারী] (হিরণ্যয়ম্) প্রকাশময় [জ্ঞানরূপী] (রথম্) রথে (তু) শীঘ্রই (আ তিষ্ঠ) আরোহন করো। (অধ) তদনন্তর (দ্যুক্ষম্) ব্যবহারে সমর্থ, (সহস্রপাদম্) সহস্র [অসীম] গতি শক্তিযুক্ত, (অরুধম্) ব্যাপক (স্বস্তিগাম্) আনন্দ প্রদানকারী, (অনেহসম্) দোষহীন পরমাত্মাকে (সচেবহি) আমরা [আচার্য এবং ব্রহ্মচারী] উভয় প্রাপ্ত হই ॥১৩॥
भावार्थ
যখন ব্রহ্মচারী ব্রহ্মবিদ্যায় সম্পূর্ণ নিষ্ঠা করে, তখন আচার্য এবং ব্রহ্মচারী পরমাত্মার আশ্রয়ে পূর্ণ আনন্দ প্রাপ্ত হয় ॥১৩॥
भाषार्थ
(সুশিপ্র) সৎকর্ম করার মাধ্যমে হে শোভন মুখযুক্ত (দম্পতে) সদ্গৃহস্থী পতি-পত্নী! তোমরা দুজন (হিরণ্যয়ম্) সুবর্ণসমান বহুমূল্য (রথম্) শরীর রথে (আ তিষ্ঠ) এসে স্থিত হয়েছো। (অধ) তদনন্তর এই সঙ্কল্প করো যে, আমরা দুজন (দ্যুক্ষম্) দ্যুলোক-নিবাসী, (সহস্রপাদম্) সহস্র পদযুক্ত অর্থাৎ সর্বগত, তথা সহস্র লোকলোকান্তরের প্রতিষ্ঠানরূপ, (অরুষম্) দ্যুতিমান্ রোষ-ক্রোধ রহিত, (স্বস্তিগাম্) কল্যাণমার্গী, (অনেহসম্) অপাপবিদ্ধ পরমেশ্বরের (সচেবহি) সঙ্গ করবো।
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