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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 16
    ऋषिः - पुरुहन्मा देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९२
    39

    यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः। विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । राजा॑ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । याता॑ । रथे॑भि: । अध्रि॑:ऽगु: । विश्वा॑साम् । त॒रु॒ता । पृत॑नानाम् । ज्येष्ठ॑: । य: । वृ॒त्र॒ऽहा । गृ॒णे ॥९२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो राजा चर्षणीनां याता रथेभिरध्रिगुः। विश्वासां तरुता पृतनानां ज्येष्ठो यो वृत्रहा गृणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । राजा । चर्षणीनाम् । याता । रथेभि: । अध्रि:ऽगु: । विश्वासाम् । तरुता । पृतनानाम् । ज्येष्ठ: । य: । वृत्रऽहा । गृणे ॥९२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [परमेश्वर] (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का (राजा) राजा (रथेभिः) रथों [के समान रमणीय लोक] के साथ (अध्रिगुः) बे-रोक (याता) चलनेवाला, और (यः) जो (विश्वासाम्) सब (पृतनानाम्) शत्रु सेनाओं का (तरुता) हरानेवाला, (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठ (वृत्रहा) अन्धकारनाशक है, [उस की] (गृणे) मैं स्तुति करता हूँ ॥१६॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सब मनुष्य आदि प्राणियों और सूर्य आदि लोकों का स्वामी है, हम उसके गुणों को ग्रहण करके सब कष्टों से बचें ॥१६॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १६-२१ ऋग्वेद में है-८।७० [सायणभाष्य ९]।१-६। मन्त्र १६, १७ सामवेद-उ० ३।१।१, मन्त्र १६, सामवेद-पू० ३।९।१, मन्त्र १६, १७ आगे हैं-अ० २०।१०।४, ॥ १६−(यः) परमेश्वरः (राजा) ऐश्वर्यवान् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (याता) गन्ता (रथेभिः) रथसदृशै रमणीयलोकैः सह (अध्रिगुः) अ० २०।३।१। अधृतगमनः। अनिवारितगतिः (विश्वासाम्) सर्वासाम् (तरुता) ग्रसितस्कभितस्तभितो०। पा० ७।२।३४। इकारस्य उकारः। तरिता। अभिभविता (पृतनानाम्) शत्रुसेनानाम् (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठः। अतिवृद्धः (यः) (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (गृणे) स्तौमि तम् ॥

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    विषय

    'ज्येष्ठ वृत्रहा' प्रभु का स्तवन

    पदार्थ

    १. मैं उस प्रभु का गृणे-स्तवन करता हूँ य:-जोकि चर्षणीनां राजा-श्रमशील मनुष्यों के जीवन को दीस बनानेवाला है। रथेभिः याता-शरीररूप रथों से हमें प्राप्त हानेवाला है, अर्थात् हमारे लिए उत्तम शरीर-रथों को देनेवाला है। अधिगुः-अधूत गमनवाला है-प्रभु को अपने कार्यों में कोई विहत नहीं कर सकता। २. ये प्रभु ही विश्वासाम्-सब पृतनानाम्-शत्रुसैन्यों के तरुता-तैरजानेवाले हैं। हमें शत्रुसैन्यों पर विजय प्राप्त करानेवाले हैं। ज्येष्ठ: प्रशस्यतम हैं। वृत्रहा-ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें वासनारूप शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ करते हैं। वे हमें उत्तम शरीर-रथों को प्राप्त कराते हैं और हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं।

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    भाषार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (चर्षणीनाम्) सब मनुष्यों का (राजा) राजा है, जो (रथेभिः) हमारे शरीर-रथों द्वारा, तथा गतिशील और रमणीय लोकलोकान्तरों द्वारा (याता) प्राप्त होता और जाना-जाता है। (अध्रिगुः) जिसकी गतिविधि को कोई रोक नहीं सकता। (यः) जो (विश्वासां पृतनानाम्) सब विरोधी शक्तियों को (तरुता) पराजित किया हुआ, (ज्येष्ठः) पुराणपुरुष, सर्वप्रशस्त, तथा (वृत्रहा) पाप-वृत्रों का हनन करता है, (गृणे) उसके मैं स्तुतिगान गाता हूँ।

    टिप्पणी

    [रथेभिः=“शरीरं रथमेव तु” (कठ০ १.३.३)। तथा रथः=रंहतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः (निरु০ ९.२.११)। तरुता=तॄ प्लवनसंतरणयोः। अध्रिगुः=अधृतगमनः।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (यः) जो (चर्षणीनां राजा) मनुष्यों के बीच में राजा के समान (चर्षणीनां) दर्शनशील इन्द्रियों के बीच (राजा) स्वयं ज्ञान से प्रकाशित एवं उनका प्रकाशक है। (अध्रिगुः) स्वयं अधृत, अस्थिर, चंचल इन्द्रियों से युक्त होकर भी (रथेभिः याता) रमणकारी नाना देहों से जीवन पथ पर यात्रा करने वाला (विश्वासाम्) समस्त (पृतमानां) शत्रु सेनाओं के विनाशक सेनाओं के (तरुता) नाशक सेनापति के समान समस्त आभ्यन्तर शत्रुरूप वासनाओं का नाशक और (ज्येष्ठः) स्वयं सबसे श्रेष्ठ और (वृत्रहा) आवरणकारी अज्ञान का नाशक है उसका मैं (गृणे) स्तुति या उपदेश करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    I adore Indra, lord supreme, who rules the people, and who is the irresistible and universal mover by waves of cosmic energy, saviour of all humanity, supreme warrior and winner of cosmic battles of the elemental forces and who destroys the evil, darkness and poverty of the world.

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    Translation

    I praise the Almighty God who is the paramount lord of peoples who is the uninterrupted moving force with His wonderful worlds, who is pre-eminent and queller of all the calamities and slayer of vritra, the cloud.

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    Translation

    I praise the Almighty God who is the paramount lord of peoples who is the uninterrupted moving force with His wonderful worlds, who is pre-eminent and queller of all the calamities and slayer of vritra, the cloud.

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    Translation

    O learned person of great knowledge, dilate upon the qualities of the Mighty Lord of Destruction and protection, whose twofold qualities, Kind-ness and Control are held in His form of a Sustainer for the protection o the creation. For the annihilation of the wicked, the deadly weapon of the thunderbolt is kept and there is the Sun in heavens, for the great sight and guidance.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र १६-२१ ऋग्वेद में है-८।७० [सायणभाष्य ९]।१-६। मन्त्र १६, १७ सामवेद-उ० ३।१।१, मन्त्र १६, सामवेद-पू० ३।९।१, मन्त्र १६, १७ आगे हैं-अ० २०।१०।४, ॥ १६−(यः) परमेश्वरः (राजा) ऐश्वर्यवान् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (याता) गन्ता (रथेभिः) रथसदृशै रमणीयलोकैः सह (अध्रिगुः) अ० २०।३।१। अधृतगमनः। अनिवारितगतिः (विश्वासाम्) सर्वासाम् (तरुता) ग्रसितस्कभितस्तभितो०। पा० ७।२।३४। इकारस्य उकारः। तरिता। अभिभविता (पृतनानाम्) शत्रुसेनानाम् (ज्येष्ठः) अतिश्रेष्ठः। अतिवृद्धः (यः) (वृत्रहा) अन्धकारनाशकः (गृणे) स्तौमि तम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যে/যিনি [পরমেশ্বর] (চর্ষণীনাম্) মনুষ্যগণের (রাজা) রাজা (রথেভিঃ) রথাদির [রথসদৃশ রমণীয় লোক সমূহের] সহিত (অধ্রিগুঃ) অপ্রতিরোধ্য গতিতে (যাতা) গমনশীল এবং (যঃ) যিনি (বিশ্বাসাম্) সকল (পৃতনানাম্) শত্রু সেনা (তরুতা) বিনাশকারী, (জ্যেষ্ঠঃ) অতিশ্রেষ্ঠ (বৃত্রহা) অন্ধকারনাশক, সেই পরমেশ্বরের (গৃণে) আমি স্তুতি করি/করছি ॥১৬॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মা সকল মনুষ্য আদি প্রাণী এবং সূর্যাদি লোকের স্বামী, আমরা সেই পরমেশ্বরের গুণ গ্রহণ করে সকল প্রকার কষ্ট থেকে মুক্ত হই ॥১৬॥ মন্ত্র ১৬-২১ ঋগ্বেদে রয়েছে -৮।৭০ [সায়ণভাষ্য ৫৯]।১-৬। মন্ত্র ১৬, ১৭ সামবেদ-উ০ ৩।১।১৫, মন্ত্র ১৬, সামবেদ-পূ০ ৩।৯।১, মন্ত্র ১৬, ১৭ -অ০ ২০।১০৫।৪, ৫ ॥

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    भाषार्थ

    (যঃ) যে পরমেশ্বর (চর্ষণীনাম্) সব মনুষ্যদের (রাজা) রাজা, যিনি (রথেভিঃ) আমাদের শরীর-রথ দ্বারা, তথা গতিশীল এবং রমণীয় লোকলোকান্তর দ্বারা (যাতা) প্রাপ্ত হন এবং জ্ঞাত হন। (অধ্রিগুঃ) যার গতিবিধি অপ্রতিরোধ্য। (যঃ) যিনি (বিশ্বাসাং পৃতনানাম্) সকল বিরোধী শক্তি-সমূহকে (তরুতা) পরাজিত করেছেন, (জ্যেষ্ঠঃ) পুরাণপুরুষ, সর্বপ্রশস্ত, তথা (বৃত্রহা) পাপ-বৃত্রের কা হনন করেন, (গৃণে) উনার আমি স্তুতিগান করি।

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