अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 8
ऋषिः - प्रियमेधः
देवता - विश्वेदेवाः, वरुणः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-९२
48
अपा॒दिन्द्रो॒ अपा॑द॒ग्निर्विश्वे॑ दे॒वा अ॑मत्सत। वरु॑ण॒ इदि॒ह क्ष॑य॒त्तमापो॑ अ॒भ्यनूषत व॒त्सं सं॒शिश्व॑रीरिव ॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑त् । इन्द्र॑: । अपा॑त् । अ॒ग्नि: । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒म॒त्स॒त॒ ॥ वरु॑ण: । इत् । इह । क्ष॒य॒त् । तम् । आप॑: । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । व॒त्सम् । सं॒शिश्व॑री:ऽइव ॥९२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे देवा अमत्सत। वरुण इदिह क्षयत्तमापो अभ्यनूषत वत्सं संशिश्वरीरिव ॥
स्वर रहित पद पाठअपात् । इन्द्र: । अपात् । अग्नि: । विश्वे । देवा: । अमत्सत ॥ वरुण: । इत् । इह । क्षयत् । तम् । आप: । अभि । अनूषत । वत्सम् । संशिश्वरी:ऽइव ॥९२.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र [प्रतापी सूर्य] ने [पृथिवी आदि के जल को] (अपात्) पिया है, (अग्निः) अग्नि ने [काठ हव्य आदि के रस को] (अपात्) पिया है, [उस से] (विश्वे) सब (देवाः) व्यवहार करनेवाले प्राणी (अमत्सत) तृप्त हुए हैं। (इह) इस [सब कर्म] में (वरुणः) श्रेष्ठ परमात्मा (इत्) ही (क्षयत्) समर्थ हुआ है, (तम्) उस [परमात्मा] को (आपः) प्राप्त प्रजाओं ने (अभि) सब प्रकार (अनूषत) [प्रीति से] सराहा है, (इव) जैसे (संशिश्वरीः) मिलती हुई गौएँ (वत्सम्) बछड़े को [प्रीति करती हैं] ॥८॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के नियम से सूर्य जल को खींचकर वृष्टि द्वारा अन्न आदि उत्पन्न करने में, और आग लकड़ी, घी आदि पदार्थों को जलाकर अशुद्धि हटाने और भोजन आदि बनाने में उपकार करता है, उस परमेश्वर से सब मनुष्य आपा छोड़कर इस प्रकार प्रीति करें, जैसे गौ आपा छोड़कर अपने छोटे बच्चे से प्रीति करती है ॥८॥
टिप्पणी
८−(अपात्) पा पाने-लुङ्। पीतवान् पृथिव्यादिजलम् (इन्द्रः) प्रतापी सूर्यः (अपात्) पीतवान् काष्ठहव्यादिरसम् (अग्निः) प्रसिद्धः (विश्वे) (देवाः) व्यवहारिणः प्राणिनः (अमत्सत) मदी हर्षे। तृप्ता अभवन् (वरुणः) श्रेष्ठः परमात्मा (इत्) एव (इह) अस्मिन् सर्वस्मिन् कर्मणि (क्षयत्) क्षि ऐश्वर्ये। समर्थोऽभवत् (तम्) वरुणम् (आपः) प्राप्ताः प्रजाः (अभि) (अनूषत) अ० २०।१७।१। अस्तुवन् (वत्सम्) गोशिशुम् (संशिश्वरीः) स्नामदिपद्यर्त्ति०। उ० ४।११३। सम्+शश प्लुतगतौ-वनिप्। अकारस्य इकारः। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। संशिश्वर्यः संगच्छमाना गावः (इव) यथा ॥
विषय
'इन्द्र-अग्नि -देव'
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (अपात्) = इस सोम का पान करता है। (अग्नि:) = प्रगतिशील पुरुष (अपात्) = इसको पीता है। (विश्वेदेवाः) = सब देव इस सोमपान में (अमत्सत) = हर्ष का अनुभव करते हैं। २. (वरुण:) = वह पापनिवारक प्रभु (इत्) = निश्चय से (इह) = इस सोमपान करनेवाले के जीवन में (क्षयत्) = निवास करता है। (तम्) = उस प्रभु को (आपः) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली प्रजाएँ (अभ्यनूषत) = स्तुत करती है। उसी प्रकार स्तुत करती है, (इव) = जैसेकि (संशिश्वरी:) = उत्तम बछड़ोंवाली गाएँ (वत्सम्) = बिछड़े के प्रति जाती हुई शब्द करती हैं। इसी प्रकार प्रेम से पूर्ण होकर कर्मों में व्याप्त होनेवाली ये प्रजाएँ अपने प्रिय प्रभु के प्रति स्तुति शब्दों को बोलती हैं।
भावार्थ
सोमपान हमें 'इन्द्र, अग्नि व देव' बनता है-शरीर में सबल [इन्द्र], मस्तिष्क में प्रकाशमय [अग्नि] तथा मन में 'देव'। सोमपान करनेवालों में ही परमात्मा का निवास होता है। ये कर्मों में व्यास रहकर सदा प्रभु का स्मरण करते हैं।
भाषार्थ
जब (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर (अपात्) स्थिर-भक्तिरस (पूर्व मन्त्र ७) का पान कर लेता है, जब (अग्निः) सर्वाग्रणी परमेश्वर (अपात्) स्थिर तथा निश्चल भक्तिरस का पान कर लेता है, तब (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य-उपासक (अमत्सत) प्रसन्न और तृप्त हो जाते हैं। जब (वरुणः) वरण करनेवाला या वरण किया गया परमेश्वर (इह) इन हमारे हृदयों में (क्षयत्) निवास कर ही लेता है, तब (आपः) हमारे प्राण तक (तम्) उस परमेश्वर की (अभि अनूषत) साक्षात् स्तुतियाँ करने लगते हैं, (इव) जैसे (संशिश्वरीः) मिल कर शिशु की वृद्धि करनेवाली माताएँ (वत्सम्) शिशु की स्तुतियाँ और प्रशंसाएँ करती हैं।
टिप्पणी
[सं शिश्वरीः=सम्+श्वि (वृद्धौ)+यङ् लुक्। आपः=“आपनानि षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी” (निरु০ १२.४.३७)।]
विषय
ईश्वर स्तुति।
भावार्थ
(संशिश्वरीः) गौएं (वत्सम् इव) बछड़े को देखकर जिस प्रकार हंभारती हैं उसी प्रकार (तम् अभि) उस आत्मा को लक्ष्य करके (आपः) समस्त प्राण एवं समस्त ‘आप्त’ या ब्रह्मपद प्राप्त विद्वान् एवं समस्त ज्ञान वाणी और कर्मपद्धतियां भी (अभि अनूषत) साक्षात् स्तुति करते हैं। (इन्द्र: अपात्) इन्द्र जीवात्मा उसी के रस का पान करता है (अग्निः अपात्) सबके अग्रणी ज्ञानी पुरुष या मुख्य प्राण भी उसी का पान करता है। (विश्वे देवाः) समस्त विद्वान्-गण एवं विषयों में क्रीड़ाशील इन्द्रियगण उसी में तृप्त होते हैं। (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ वरण योग्य, आत्मा या अध्यात्म में अपान भी (इह क्षयत्) इसी में स्थिर निवास करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Indra, the soul, seeking honour, fame and power, loves the soma of ananda. Agni, leading scholar advancing into the light of knowledge, loves the soma of ananda. All brilliancies of nature and humanity love the ecstasy of soma. Varuna, powers of love and justice, all abide in the ecstasy of soma. All seekers of yajnic action and divine dedication love the soma of spiritual ananda of their creation like the mother loving her child.
Translation
The mighty sun drinks the waters of this world, also the fire drinks the libations of Yajna and all the cosmic forces fill them with worldy glamour. In all these activities verily Divine power becomes capable and responsible. The subjects of the world worship Him like the cows to their calf.
Translation
The mighty sun drinks the waters of this world, also the fire drinks the libations of Yajna and all the cosmic forces fill them with worldy glamour. In all these activities verily Divine power becomes capable and responsible. The subjects of the world worship Him like the cows to their calf.
Translation
O the noblest soul (i.e., Yogin) thou art a divine Personality, whose seven vital breaths combined into one well-formed stream flow towards the palate. [Note: The seven vital breaths of a practicing yogi trickle as nectar from the palate, as if flowing into one stream.]
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(अपात्) पा पाने-लुङ्। पीतवान् पृथिव्यादिजलम् (इन्द्रः) प्रतापी सूर्यः (अपात्) पीतवान् काष्ठहव्यादिरसम् (अग्निः) प्रसिद्धः (विश्वे) (देवाः) व्यवहारिणः प्राणिनः (अमत्सत) मदी हर्षे। तृप्ता अभवन् (वरुणः) श्रेष्ठः परमात्मा (इत्) एव (इह) अस्मिन् सर्वस्मिन् कर्मणि (क्षयत्) क्षि ऐश्वर्ये। समर्थोऽभवत् (तम्) वरुणम् (आपः) प्राप्ताः प्रजाः (अभि) (अनूषत) अ० २०।१७।१। अस्तुवन् (वत्सम्) गोशिशुम् (संशिश्वरीः) स्नामदिपद्यर्त्ति०। उ० ४।११३। सम्+शश प्लुतगतौ-वनिप्। अकारस्य इकारः। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। संशिश्वर्यः संगच्छमाना गावः (इव) यथा ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [প্রতাপী সূর্য] [পৃথিব্যাদির জল] (অপাৎ) শোষণ/পান করেছে, (অগ্নিঃ) অগ্নি [কাঠ, হব্যাদির রস] (অপাৎ) শোষণ/পান করেছে, [ফলে] (বিশ্বে) সকল (দেবাঃ) ব্যবহারশীল প্রাণীসমূহ (অমৎসত) তৃপ্ত হয়েছে। (ইহ) এই সকল কর্মে (বরুণঃ) শ্রেষ্ঠ পরমাত্মা নিশ্চিত রূপে (ইৎ) ই (ক্ষয়ৎ) সমর্থ হয়েছেন, (তম্) সেই [পরমাত্মা]কে (আপঃ) প্রাপ্ত প্রজাগণ (অভি) সর্ব প্রকারে (অনূষত) [প্রীতিপূর্বক] প্রশংসা করেছে, (ইব) যেভাবে (সংশিশ্বরীঃ) গাভী তার শিশু (বৎসম্) বৎসকে/বাছুরের প্রতি [প্রীতি করে] ॥৮॥
भावार्थ
যে পরমাত্মার নিয়ম দ্বারা সূর্য জল শোষণ করে বৃষ্টি দ্বারা অন্নাদি উৎপন্ন করার ক্ষেত্রে এবং অগ্নি কাষ্ঠ, ঘৃতাদি পদার্থকে ভস্মীভূত করে অশুদ্ধি দূর করার ক্ষেত্রে এবং ভোজন আদি প্রস্তুত করার জন্য সহায়ক হয়, সেই প্রসিদ্ধ পরমেশ্বরের প্রতি সকল মনুষ্য নিজেদের অভিমান/অহংবোধ ত্যাগ পূর্বক এমনভাবে প্রীতি করে/করুক, যেমন গাভী নিজের অহংকার ত্যাগ করে নিজের শিশু বৎস/বাছুরের প্রতি প্রীতি করে ॥৮॥
भाषार्थ
যখন (ইন্দ্রঃ) পরমৈশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর (অপাৎ) স্থির-ভক্তিরস (পূর্ব মন্ত্র ৭) এর পান করেন, যখন (অগ্নিঃ) সর্বাগ্রণী পরমেশ্বর (অপাৎ) স্থির তথা নিশ্চল ভক্তিরসের পান করেন, তখন (বিশ্বে) সব (দেবাঃ) দিব্য-উপাসক (অমৎসত) প্রসন্ন এবং তৃপ্ত হয়। যখন (বরুণঃ) বরণকারী বা বরণীয় পরমেশ্বর (ইহ) এই আমাদের হৃদয়ে (ক্ষয়ৎ) নিবাস করেন, তখন (আপঃ) আমাদের প্রাণ পর্যন্ত (তম্) সেই পরমেশ্বরের (অভি অনূষত) সাক্ষাৎ স্তুতি করে, (ইব) যেমন (সংশিশ্বরীঃ) একসাথে শিশুর পালনকারী মাতাগণ (বৎসম্) শিশুর স্তুতি এবং প্রশংসা করে।
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