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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९२
    82

    सु॑दे॒वो अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः। अ॑नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्यं सुषि॒रामि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽदे॒व: । अ॒सि॒ । व॒रु॒ण॒ । यस्य॑ । ते॒ । स॒प्त । सिन्ध॑व: ॥ अ॒नु॒ऽक्षर॑न्ति । का॒कुद॑म् । सू॒र्म्य॑म्‌ । स॒सु॒विराम्ऽइ॑व ॥९२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः। अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्यं सुषिरामिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽदेव: । असि । वरुण । यस्य । ते । सप्त । सिन्धव: ॥ अनुऽक्षरन्ति । काकुदम् । सूर्म्यम्‌ । ससुविराम्ऽइव ॥९२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् ! तू (सुदेवः) बड़ा देव [अति प्रकाशमान वा दानी] (असि) है, (यस्य ते) जिस तेरे (काकुदम्) तालू को (सप्त) सात (सिन्धवः) बहते हुए समुद्र [अर्थात् भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्य, इन सात अवस्थाओं वाले सब लोक] (अनुक्षरन्ति) निरन्तर सींचते हैं, (इव) जैसे (सूर्म्यम्) बड़े वेगवाले (सुषिराम्) झरने को [जल सींचते हैं] ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र के लिये-अ० २०।३४।३ और निरुक्त ।२७। भी देखो। जिस परमात्मा की आज्ञा में यह सब बड़े-छोटे लोक इस प्रकार झुकते हैं, जैसे जल दूर-दूर से एकत्र होकर स्रोतों में झुककर गिरते हैं, हे मनुष्यो ! तुम अभिमान छोड़कर उसी जगदीश्वर के समाने झुको ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(सुदेवः) कल्याणदेवः। अतिप्रकाशमानः। महाधनी (असि) (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् (यस्य) (ते) तव (सप्त) सप्तसंख्याकाः (सिन्धवः) स्यन्दमानाः समुद्राः। भूर्भुवराद्यवस्थाविशेषयुक्ताः सर्वे लोकाः (अनुक्षरन्ति) निरन्तरं सिञ्चन्ति (काकुदम्) तालु-निरु० ।२६। (सूर्म्यम्) कल्याणोर्मिम्। सुवेगवतीम् (सुषिराम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।१। शुष शोषणे-किरच्, टाप्, शस्य सः। जलनिःसरणच्छिद्रम्। स्रोतः (इव) यथा ॥

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    विषय

    स-देव

    पदार्थ

    २.हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! (सु देवः असि) = आप सर्वोत्तम देव हैं-देवों के भी अधिदेव हैं। (यस्य ते) = जिन आपकी (सप्त सिन्धवः) = सात छन्दों में प्रवाहित होनेवाली ज्ञान-जल की नदियाँ (काकुदम् अनुक्षरन्ति) = हमारे तातु में बहती हैं, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (सूर्म्यम्) = [lustre] प्रकाश व रश्मिजाल (सुषिराम्) = सछिद्र वस्तु में प्रवेश करता है। २. हम प्रभु का स्मरण करते हैं तो प्रभु की वेदवाणियाँ हमारे जीवन में इसप्रकार प्रवेश करती हैं, जैसेकि सछिद्र भित्ति में सूर्यरश्मियाँ। ये रशिमयों ही-वेदवाणियों का प्रकाश ही हमारे जीवन को निर्मल बनाता है।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करें। प्रभु का ज्ञान हमारे जीवन को निर्मल कर देगा। वह प्रकाश हमें भी 'सुदेव' बनाएगा।

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    भाषार्थ

    (वरुण) हे उपासकों का वरण करनेवाले, या उपासकों द्वारा वरण किये जानेवाले परमेश्वर! आप (सुदेवः असि) सर्वोत्तम देव हैं, (यस्य ते) जिस आपके निमित्त, (सप्त) सात वैदिक-छन्दों से युक्त स्तुतियाँ (सिन्धवः) मानो स्यन्दन करती हुई (काकुदम्) उपासकों के तालुओं की ओर, अर्थात् मुखों में, (अनु) निरन्तर (क्षरन्ति) प्रवाहित होती रहती हैं, (इव) जैसे कि (सूर्म्यम्) बहु-तरंगोंवाले स्रोत अर्थात् नदियाँ, (सुषिराम्) निचली भूमि की ओर निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं।

    टिप्पणी

    [सूर्म्यम्=सूर्मि कल्याणोर्मि स्रोतः (निरु০ ५.४.२७)। काकुदम्=तालु। जिह्वा कोकुवा, साऽस्मिन् धीयते (निरु০ ५.४.२७)। सुषिरा=दो पर्वतों के बीच की खड्ड। Hollow, cavity (आप्टे)।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ आत्मन् ! तू (सुदेवः असि) सर्वश्रेष्ठ, देव एवं उत्तम सुख और कल्याण का देनेहारा (असि) है। (यस्यते) जिस तेरे (सप्त सिन्धवः) सर्पणशील महानदों के समान सातों शिरोगत प्राण (सूर्म्यम्) उत्तम धारायुक्त (सुपिराम् इव) एक धारा के समान एक स्रोत को प्राप्त होकर (काकुदम्) तालु के प्रति (अनुक्षरन्ति) प्रवाहित होते हैं। योगाभ्यासी के सातों प्राणों का रस तालु से अमृतरूप से द्रवित होता है। मानो सात धाराएं एक धार होकर बहती हैं। अथवा—(सुपिराम् सूर्म्यम् इव) छेदवाली ज्वलनशील बारूद की भरी नालिका के समान फूटते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Varuna, master scholar and teacher, you are divinely brilliant and generous whose seven streams of knowledge and wisdom flow forth in words from the master’s voice to the seekers, like water flowing from a stream into many channels.

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    Translation

    O Divinity, you are the glorious divine power of that of you the seven cases of grammatical operation like one flood of steams flow to the throat of living human-beings.

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    Translation

    O Divinity, you are the glorious divine power of that of you the seven cases of grammatical operation like one flood of steams flow to the throat of living human-beings.

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    Translation

    The well-versed yogi, who, controlling the vital breaths of the sense-organs fully concentrates them on the devotees’ self-sacrifice, abnegation and bring them in unison with it, being an austere leader, attains him and finally leaves off his body shackles and revels in salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(सुदेवः) कल्याणदेवः। अतिप्रकाशमानः। महाधनी (असि) (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् (यस्य) (ते) तव (सप्त) सप्तसंख्याकाः (सिन्धवः) स्यन्दमानाः समुद्राः। भूर्भुवराद्यवस्थाविशेषयुक्ताः सर्वे लोकाः (अनुक्षरन्ति) निरन्तरं सिञ्चन्ति (काकुदम्) तालु-निरु० ।२६। (सूर्म्यम्) कल्याणोर्मिम्। सुवेगवतीम् (सुषिराम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।१। शुष शोषणे-किरच्, टाप्, शस्य सः। जलनिःसरणच्छिद्रम्। स्रोतः (इव) यथा ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বরুণ) হে শ্রেষ্ঠ পরমাত্মন্ ! তুমি (সুদেবঃ) শ্রেষ্ঠ দেব [অতি প্রকাশমান বা দাতা] (অসি) হও, (যস্য তে) যে তোমার (কাকুদম্) তালু (সপ্ত) সপ্ত (সিন্ধবঃ) প্রবাহিত সমুদ্র [অর্থাৎ ভূর্, ভুবঃ, স্বঃ, মহঃ, জনঃ, তপঃ, সত্য এই সপ্ত অবস্থাযুক্ত সকল লোক] (অনুক্ষরন্তি) নিরন্তর সিঞ্চন করে, (ইব) যেমন (সূর্ম্যম্) উত্তম বেগযুক্ত (সুষিরাম্) ঝর্ণাকে [জল সিঞ্চন করে] ॥৯॥

    भावार्थ

    এই মন্ত্রের জন্য -অ০ ২০।৩৪।৩ এবং নিরুক্ত ৫।২৭। দেখুন। যে পরমাত্মার আজ্ঞায় এই সকল পৃথিব্যাদি ক্ষুদ্র-বৃহৎ লোক এমনভাবে নত হয়, যেভাবে বিবিধ উৎসের জল দূর-দূরান্ত হতে স্রোতে একাকার হয়ে প্রবাহিত হয়, হে মনুষ্যগণ ! তোমরাও অনুরূপভাবে অভিমান পরিত্যাগ করে সেই প্রসিদ্ধ জগদীশ্বরের সম্মুখে নত হও ॥৯॥

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    भाषार्थ

    (বরুণ) হে উপাসকদের বরণকারী, বা উপাসকদের দ্বারা বরণীয় পরমেশ্বর! আপনি (সুদেবঃ অসি) সর্বোত্তম দেবতা, (যস্য তে) যে আপনার জন্য, (সপ্ত) সাত বৈদিক-ছন্দ যুক্ত স্তুতি (সিন্ধবঃ) মানো স্যন্দন করে (কাকুদম্) উপাসকদের তালুর দিকে, অর্থাৎ মুখে, (অনু) নিরন্তর (ক্ষরন্তি) প্রবাহিত হতে থাকে, (ইব) যেমন (সূর্ম্যম্) বহু-তরঙ্গযুক্ত স্রোত অর্থাৎ নদী-সমূহ, (সুষিরাম্) নীচের ভূমির দিকে নিরন্তর প্রবাহিত হতে থাকে।

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