Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 18
    ऋषिः - पुरुहन्मा देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९२
    51

    नकि॒ष्टं कर्म॑णा नश॒द्यश्च॒कार॑ स॒दावृ॑धम्। इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैर्वि॒श्वगू॑र्त॒मृभ्व॑स॒मधृ॑ष्टं धृ॒ष्ण्वोजसम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकि॑: । तम् । कर्म॑णा । न॒श॒त् । य: । च॒कार॑ । स॒दाऽवृ॑धम् ॥ इन्द्र॑म् । न । य॒ज्ञै: । वि॒श्वऽगू॑र्तम् । ऋभ्व॑सम् । अधृ॑ष्टम् । धृ॒ष्णुऽओ॑जसम् ॥९२.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकिष्टं कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम्। इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्ण्वोजसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकि: । तम् । कर्मणा । नशत् । य: । चकार । सदाऽवृधम् ॥ इन्द्रम् । न । यज्ञै: । विश्वऽगूर्तम् । ऋभ्वसम् । अधृष्टम् । धृष्णुऽओजसम् ॥९२.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिस [परमात्मा] ने (सदावृधम्) सदा बढ़ानेवाले व्यवहार को (चकार) बनाया है, (तम्) उस (विश्वगूर्तम्) सबों को उद्यम में लगानेवाले, (ऋभ्वसम्) बुद्धिमानों को ग्रहण करनेवाले, (अधृष्टम्) अजेय, (धृष्ण्वोजसम्) निर्भय बलवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [बडे् ऐश्वर्यवाले परमात्मा] को (नकिः) न कोई (कर्मणा) कर्म से और (न)(यज्ञैः) दानों से (नशत्) पा सकता है ॥१८॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सृष्टि आदि अद्भुत कर्मों को करता है, और सबको पालता है, कोई भी प्राणी उस अनन्तकर्मा और अनन्तदानी परमेश्वर के समान नहीं हो सकता है ॥१८॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १८, १९ सामवेद में भी है-उ० ४।२।८, मन्त्र १८-साम० पू० ३।६।१ ॥ १८−(नकिः) न कश्चित् (तम्) प्रसिद्धम् (कर्मणा) (नशत्) प्राप्नुयात् (यः) परमेश्वरः (चकार) रचितवान् (सदावृधम्) सदावर्धकं व्यवहारम् (इन्द्रम्) (न) निषेधे (यज्ञैः) दानैः (विश्वगूर्तम्) अ० २०।३।९। विश्वं सर्वं जगत् गूर्णम् उद्यतम् उद्यमे कृतं येन तम् (ऋभ्वसम्) ऋभुर्मेधाविनाम-निघ० ३।१। अस ग्रहणे-अच्। ऋभूणां मेधाविनां ग्रहीतारम् (अधृष्टम्) अजेयम् (धृष्ण्वोजसम्) धर्षकबलम्। निर्भयपराक्रमयुक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    न कर्म से, न यज्ञ से

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस व्यक्ति को (कर्मणा) = कर्मों से (नकिः नशत्) = कोई भी व्याप्त नहीं कर पाता, अर्थात् उसके समान कोई भी महान् कर्मों को नहीं कर पाता, (य:) = जोकि (सदावृधम्) = सदा से वर्धमान उस प्रभु को (चकार) = अपने हृदय में करता है, अर्थात् जो प्रभु को हृदय में धारण करता है, वह प्रभु से शक्ति प्राप्त करके महान् कार्यों को करनेवाला होता है। २. (न) = [सम्प्रति] अब हम (यज्ञैः) = यज्ञात्मक कर्मों से (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को उपासित करें, जो प्रभु (विश्वगूर्तम्) = सबसे स्तुति के योग्य है, (ऋभ्वसम्) = महान् हैं। (अभृष्टम्) = किसी से भी धर्षित होनेवाले नहीं और ओजसा-ओजस्विता के द्वारा धृष्णुम्-हमारे सब शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    प्रभु की उपासना हमें असाधारण, महान् कर्मों को करने में समर्थ करती है। प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर हम सब शत्रुओं का धर्षण करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (कर्मणा) किसी भी कर्म द्वारा (नकिः) कोई भी नहीं (तम्) उस परमेश्वर की महिमा को (नशत्) प्राप्त कर सकता, (यः) जो परमेश्वर कि (सदावृधम्) सब की सदा वृद्धि (चकार) करता है। (विश्वगूर्तम्) विश्व में जिस का उद्यम हो रहा है, (ऋभ्वसम्) जो अतिप्रकाशमान है, (अधृष्टम्) जो अपराभवनीय है, और (धृष्णु ओजसम्) जिस का ओज सबका पराभव करता है, उस (इन्द्रम्) परमेश्वर की महिमा तक, (यज्ञैः) यज्ञ-यागादि द्वारा, (नकिः नशत्) कोई नहीं पहुँच सकता।

    टिप्पणी

    [नशत् व्याप्तिकर्मा (निघं০ २.१८)। गूर्तम्=गुरी उद्यमने। ऋभ्वसम्=ऋभवः उरु भान्ति (निरु০ ११.२.१५); अथवा ऋभु+असम्=अतिप्रकाशमान सूर्यादि के प्रकाशों को भी परास्त करनेवाला है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (यः) जो (सदा वृधम्) सदा शक्ति को बढ़ाने वाले, (विश्वगूर्तम्) सर्व स्तुत्य (ऋभ्वसम्) सत्य के बल से बढ़ने वाले महान (धृष्ण्वोजसम्) धर्षणशील पराक्रम वाले (अधृष्टं) कभी भी न हारे हुए, सदा जयशील (इन्द्रम्) राजा के समान ऐश्वर्यवान् आत्मा को जो (चकार) साधता है (तम्) उसके पद को (नकिः) कोई भी न (कर्मणा नशत्) कर्म या चेष्टा से ही प्राप्त करता है और (न यज्ञैः) न यज्ञों से ही कोई उसके पदतक पहुंचता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    No one can equal merely by action, much less hurt even by yajnas, that person who has won the favour and grace of Indra, lord divine who is rising as well as raising his devotees high, who is universally adored, universal genius, redoubtable and invincibly illustrious.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    None through act and through good Yajna-performances deprived of knowledge attains that Almighty Divinity who - works and strengthens the world, who is praised by all, resistless, daring and bold in might.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    None through act and through good Yajna-performances deprived of knowledge attains that Almighty Divinity who works and strengthens the world, who is praised by all, resistless, daring and bold in might.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    (In continuation of the above verse) On Whose revelation, (i.e., When His Great power is revealed to all by His creation) the great heavens and the earths (i.e., the people residing therein) with great praise-songs, sing His praises and pay their homage to Him, Who is Resistless, Fierce conqueror amongst the fighting Forces.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र १८, १९ सामवेद में भी है-उ० ४।२।८, मन्त्र १८-साम० पू० ३।६।१ ॥ १८−(नकिः) न कश्चित् (तम्) प्रसिद्धम् (कर्मणा) (नशत्) प्राप्नुयात् (यः) परमेश्वरः (चकार) रचितवान् (सदावृधम्) सदावर्धकं व्यवहारम् (इन्द्रम्) (न) निषेधे (यज्ञैः) दानैः (विश्वगूर्तम्) अ० २०।३।९। विश्वं सर्वं जगत् गूर्णम् उद्यतम् उद्यमे कृतं येन तम् (ऋभ्वसम्) ऋभुर्मेधाविनाम-निघ० ३।१। अस ग्रहणे-अच्। ऋभूणां मेधाविनां ग्रहीतारम् (अधृष्टम्) अजेयम् (धृष्ण्वोजसम्) धर्षकबलम्। निर्भयपराक्रमयुक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যে/যিনি [পরমাত্মা] (সদাবৃধম্) সদা বর্ধনশীল ব্যবহার (চকার) সৃজন করেছেন, (তম্) সেই প্রসিদ্ধ (বিশ্বগূর্তম্) সকলকে উদ্যমে সংযুক্তকারী, প্রেরণা প্রদানকারী, (ঋভ্বসম্) বুদ্ধিমানদের গ্রহীতা, (অধৃষ্টম্) অজেয়, (ধৃষ্ণ্বোজসম্) নির্ভয় পরাক্রমযুক্ত (ইন্দ্রম্) ইন্দ্রকে [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মাকে] (নকিঃ) না কেউ (কর্মণা) কর্ম দ্বারা অথবা (ন) না (যজ্ঞৈঃ) দানের মাধ্যমে (নশৎ)প্রাপ্ত করতে পারে/পেতে সক্ষম হয় ॥১৮॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মা সৃষ্টি আদি অদ্ভুত কর্মের কর্তা, সকলের পালনকর্তা, কোনো প্রাণী সেই প্রসিদ্ধ অনন্তকর্মা এবং অনন্ত দাতা পরমেশ্বরের সমকক্ষ/সমান হতে সক্ষম নয় ॥১৮॥ মন্ত্র ১৮, ১৯ সামবেদ - উ০ ৪।২।৮, মন্ত্র ১৮-সাম০ পূ০ ৩।৬।১ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (কর্মণা) কোনো কর্ম দ্বারা (নকিঃ) কেউই না (তম্) সেই পরমেশ্বরের মহিমাকে (নশৎ) প্রাপ্ত করতে পারে, (যঃ) যে পরমেশ্বর (সদাবৃধম্) সকলের সদা বৃদ্ধি (চকার) করেন। (বিশ্বগূর্তম্) বিশ্বে যার উদ্যম হচ্ছে, (ঋভ্বসম্) যে অতিপ্রকাশমান, (অধৃষ্টম্) যে অপরাভবনীয়/অপরাজেয়, এবং (ধৃষ্ণু ওজসম্) যার তেজ সকলকে পরাজিত করে, সেই (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের মহিমা পর্যন্ত, (যজ্ঞৈঃ) যজ্ঞ-যাগাদি দ্বারা, (নকিঃ নশৎ) কেউ পৌঁছোতে পারে না।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top