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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९२
    58

    अव॑ स्वराति॒ गर्ग॑रो गो॒धा परि॑ सनिष्वणत्। पिङ्गा॒ परि॑ चनिष्कद॒दिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मोद्य॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । स्वा॒रा॒ति॒ । गर्ग॑र: । गो॒धा । परि॑ । स॒नि॒व॒न॒त् ॥ पिङ्गा॑ । परि॑ । च॒नि॒स्क॒द॒त् । इन्द्रा॑य । ब्रह्म॑ । उत्ऽय॑तम् ॥९२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव स्वराति गर्गरो गोधा परि सनिष्वणत्। पिङ्गा परि चनिष्कददिन्द्राय ब्रह्मोद्यतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । स्वाराति । गर्गर: । गोधा । परि । सनिवनत् ॥ पिङ्गा । परि । चनिस्कदत् । इन्द्राय । ब्रह्म । उत्ऽयतम् ॥९२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] के लिये (उद्यतम्) ऊँचे किये हुए (ब्रह्म) वेदज्ञान का (गर्गरः) गर्गर [सारंगी आदि बाजा] (अव स्वराति) स्वर आलापे, (गोधा) गोधा [वीणा आदि बाजा] (परि सनिष्वणत्) बोल बोले, और (पिङ्गा) पिङ्गा [धनुष की दृढ़ डोरी] (परि चनिष्कदत्) टङ्कार करे ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि घर के बीच उत्सवों में और युद्धक्षेत्र के बीच संग्रामों में परमात्मा का स्मरण भली-भाँति करते रहें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(अव स्वराति) निश्चयेन शब्दयेत् (गर्गरः) अ० ४।१।१२। गॄ शब्दे-गप्रत्ययः+रा दाने-कप्रत्ययः। गर्गरस्य कलशस्य ध्वनियुक्तो वाद्यविशेषः (गोधा) अ० ४।३।६। गुध परिवेष्टने-घञ् टाप्। वीणादिवाद्यविशेषः (परि) सर्वतः (सनिष्वणत्) स्वन शब्दे, यङ्लुकि लेट्। भृशं ध्वनिं कुर्यात् (पिङ्गा) अ० ८।६।६। पिजि बले दीप्तौ च-अच्, कुत्वम्। दृढा धनुर्ज्या (परि) (चनिष्कदत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-यङ्लुकि लेट्। गतिं कुर्यात् टङ्कारयेत् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (ब्रह्म) वेदज्ञानम् (उद्यतम्) ऊर्ध्वीकृतम् ॥

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    विषय

    प्रभु-स्मरणपूर्वक युद्ध

    पदार्थ

    १. (गर्गरः) = युद्ध का नगारा (अवस्वराति) = अतिशयेन भयानक शब्द कर रहा है। (गोधा) = हस्तघ्न (परिसनिष्यणत्) = चारों ओर आवाज़ को फैला रहे हैं। हस्तघ्नों पर होनेवाले डोरी के प्रहारों से शब्द उठ रहे हैं। (पिङ्गा) = पिंगलवर्णवाली ज्या (परिचनिष्कदत्) = चारों ओर गति कर रही है-चारों ओर आक्रमण कर रही है। २. एवं चारों ओर युद्ध का भयंकर वातावरण है। इस युद्ध में (इन्द्राय) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु के लिए ब्रह्म (उद्यतम्) = मन्त्रों द्वारा स्तवन उत्थित हुआ है। 'मामनुस्मर युद्ध च' के अनुसार हमारा यही कर्तव्य है कि प्रभु का स्मरण करें और युद्ध भी करते चलें। प्रभु ही तो हमें विजयी बनाएंगे।

    भावार्थ

    चारों ओर भयंकर युद्ध में हम प्रभु का स्मरण करते हुए युद्ध करें। प्रभु-स्मरण से हम युद्ध में विजयी बनेंगे।

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    भाषार्थ

    (गर्गरः) प्रभूत स्तुतियाँ करनेवाला उपासक, जब (अवस्वराति) धीमे स्वर में स्वरपूर्वक स्तुतियाँ करता है, तब (गोधा) उपासकों का धारण-पोषण करनेवाली ब्राह्म-शक्ति (सनिष्वणत्) बार-बार अन्तर्नाद करती है। (च) और (पिङ्गा) पिङ्गा स्त्री भी (परि) सर्वत्र जब (चनिष्कदत्) घूमती है, तब (अवस्वराति) धीमे स्वर में स्वरपूर्वक स्तुतियाँ करती है, तब (इन्द्राय) स्त्री और पुरुष के “जीवात्मा” को शक्ति देने के लिए (ब्रह्म) परमेश्वर (उद्यतम्) सदा उद्यत रहता है।

    टिप्पणी

    [गर्गरः=गृशब्दे यङ्लुक्; गृणाति अर्चतिकर्मा (निघं০ ३.१४)। गोधाः=गौः स्तोता (निघं০ ३.१६)+धा+धारणपोषणयोः। सनिष्वणत्=स्वन् शब्दे, यङ्लुक्। “पिङ्गा” शब्द स्त्रीलिङ्ग है। पिङ्ग के अर्थ, आप्टे ने ॒Reddish-brown, yellow-red; तथा salfron दिये हैं। लालिमा लिए भूरे या केसरी रंग के कपड़े धारण करनेवाली प्रचारिका-उपासिका को मन्त्र में “पिङ्गा” द्वारा निर्देश किया प्रतीत होता है। स्त्री को बुढ़ापे में ज्ञानोपदेश करने का अधिकार वेद ने दिया है। यथा—“अथ जीर्विर्विदथमावदासि” (अथर्व০ १४.१.२१), अर्थात् हे विवाहित पत्नी! बूढ़ी होकर तू ज्ञानोपदेश किया कर; जीर्विः=जीर्णा। मुनियों के सम्बन्ध में ऋग्वेद में कहा है कि—“मुनयो वातरशनाः “पिशङ्गा” वसते मला” (ऋ০ १०.१३६.२), अर्थात् मुनि लोग पिशङ्ग वस्त्रों को धारण करते हैं, ये वस्त्र सफैद नहीं होते। आप्टे ने पिङ्ग ओर पिशङ्ग इन दोनों शब्दों के अर्थ Reddish-brown किये हैं। सम्भवतः मुनि-स्त्रियों और मुनि-पुरुषों के लिए पिशङ्ग वस्त्र धारण करने का उपदेश वेदविहित हो। उपरिलिखित ऋग्वेद के प्रमाण में “वसते” शब्द का निर्देश करता है। चनिष्कदत्=पदपाठ में “स्कद्” धातु का यङ्लुगन्त प्रयोग प्रतीत होता है। स्कद्=गतौ।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (गर्गरः) शब्द करने वाले स्तुति वाचक के समान कण्ठ या कण्ठगत प्राण या प्रवक्ता गुरु (इन्द्राय) उस ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के (उद्यतम्) सर्वोत्कृष्ट (ब्रह्म) वेदवचन को (अव स्वराति) बोले, उपदेश करे। (गोधा) वाणी के धारण करने वाली स्त्री एवं इन्द्रियों को धारण करने वाली मनः शक्ति उसी को (परि सनिष्वणत्) सर्वत्र वीणा के समान उपदेश करे, गुने। (पिङ्गा) मधुर ध्वनि करने वाली वाणी, उसी का सर्वत्र (परि चनिष्कदत्) उच्चारण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    The drum booms aloud, the bow string (of Pranava) strikes the arm guard, the string bells jingle, let the hymns rise in honour of Indra.

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    Translation

    Let there be hymn upraised in praise of Almighty God, Let the violin (viol) sound loudly, let the lute send out its voice with might and let the string of bow shrill His song loudly.

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    Translation

    Let there be hymn upraised in praise of Almighty God, Let the violin (viol) sound loudly, Jet the lute send out its voice with might and let the string of bow shrill His song loudly.

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    Translation

    O learned persons, immersed in deep meditation catch hold of the opportunity to drink the undisturbed and constant bliss, when the calm and tranquil streams of nectar How internally like the milk-streams of white-colored cows that are easy to milch, free from any obstruction on their part.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(अव स्वराति) निश्चयेन शब्दयेत् (गर्गरः) अ० ४।१।१२। गॄ शब्दे-गप्रत्ययः+रा दाने-कप्रत्ययः। गर्गरस्य कलशस्य ध्वनियुक्तो वाद्यविशेषः (गोधा) अ० ४।३।६। गुध परिवेष्टने-घञ् टाप्। वीणादिवाद्यविशेषः (परि) सर्वतः (सनिष्वणत्) स्वन शब्दे, यङ्लुकि लेट्। भृशं ध्वनिं कुर्यात् (पिङ्गा) अ० ८।६।६। पिजि बले दीप्तौ च-अच्, कुत्वम्। दृढा धनुर्ज्या (परि) (चनिष्कदत्) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-यङ्लुकि लेट्। गतिं कुर्यात् टङ्कारयेत् (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते परमात्मने (ब्रह्म) वेदज्ञानम् (उद्यतम्) ऊर्ध्वीकृतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত পরমাত্মার] জন্য (উদ্যতম্) উদ্যত/ঊর্ধ্বোত্থিত (ব্রহ্ম) বেদজ্ঞান এর (গর্গরঃ) গর্গর [গর্গর ধ্বনিযুক্ত বাদ্যযন্ত্র বিশেষ] (অব স্বরাতি) স্বর আলাপে, (গোধা) গোধা [বীণা বাদ্য বিশেষ] (পরি সনিষ্বণৎ) চারদিকে উচ্চ ধ্বনি উৎপন্ন করে এবং (পিঙ্গা) পিঙ্গা [ধনুষের দৃঢ় জ্যা/দড়ি] (পরি চনিষ্কদৎ) অতিশয় টঙ্কার করে ॥৬॥

    भावार्थ

    মনুষ্যের উচিত, গৃহের নানা উৎসবে এবং যুদ্ধক্ষেত্রে সংগ্রামে পরমাত্মাকে স্মরণ করা।।৬।।

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    भाषार्थ

    (গর্গরঃ) প্রভূত স্তুতিকর্তা উপাসক, যখন (অবস্বরাতি) মৃদু স্বরে স্বরপূর্বক স্তুতি করে, তখন (গোধা) উপাসকদের ধারক-পোষক ব্রাহ্ম-শক্তি (সনিষ্বণৎ) বার-বার অন্তর্নাদ করে। (চ) এবং (পিঙ্গা) পিঙ্গা নারী/স্ত্রীও (পরি) সর্বত্র যখন (চনিষ্কদৎ) পরিভ্রমণ করে, তখন (অবস্বরাতি) ধীর/মৃদু স্বরে স্বরপূর্বক স্তুতি করে, তখন (ইন্দ্রায়) স্ত্রী এবং পুরুষের “জীবাত্মা”কে শক্তি প্রদানের জন্য (ব্রহ্ম) পরমেশ্বর (উদ্যতম্) সদা উদ্যত থাকেন।

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