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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 14
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - सूक्त-९२
    50

    तं घे॑मि॒त्था न॑म॒स्विन॒ उप॑ स्व॒राज॑मासते। अर्थं॑ चिदस्य॒ सुधि॑तं॒ यदेत॑व आव॒र्तय॑न्ति दा॒वने॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । घ॒ । ई॒म् । इ॒त्था । न॒म॒स्विन॑: । उप॑ । स्व॒ऽराज॑म् । आ॒स॒ते॒ ॥ अर्थ॑म् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । सुऽधि॑तम् । यत् । एत॑वे । आ॒ऽव॒र्तय॑न्ति । दा॒वने॑ ॥९२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते। अर्थं चिदस्य सुधितं यदेतव आवर्तयन्ति दावने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । घ । ईम् । इत्था । नमस्विन: । उप । स्वऽराजम् । आसते ॥ अर्थम् । चित् । अस्य । सुऽधितम् । यत् । एतवे । आऽवर्तयन्ति । दावने ॥९२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (तम्) उस (घ) ही (ईम्) प्राप्तियोग्य (स्वराजम्) स्वराजा [अपने आप राजा परमेश्वर] को (इत्था) इस प्रकार (नमस्विनः) नमस्कार करनेवाले लोग (उप आसते) पूजते हैं, (यत्) जब कि वे (अस्य) उस [परमात्मा] का (चित्) ही (सुधितम्) भले प्रकार रक्खा हुआ (अर्थम्) पाने योग्य धन (एतवे) पाने के लिये और (दावने) दान के लिये [उस परमात्मा] को (आवर्तयन्ति) सामने वर्तमान करते हैं ॥१४॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा अपने आप सबका राजा है, सब लोग उसकी आज्ञा मानकर विविध प्रकार धन प्राप्त करके सुपात्रों का सहाय करें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(तम्) (घ) एव (ईम्) प्राप्यम् (इत्था) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (नमस्विनः) नमस्कारयुक्ताः (उप आसते) सेवन्ते (स्वराजम्) स्वयं राजानं शासकम् (अर्थम्) अरणीयं, प्रापणीयं धनम् (चित्) एव (अस्य) परमात्मनः (सुधितम्) सुष्ठु स्थापितम् (यत्) यदा (एतवे) एतुम्। प्राप्तुम् (आवर्तयन्ति) अभिमुखं वर्तमानं कुर्वन्ति (दावने) दानाय ॥

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    विषय

    सुधित अर्थ

    पदार्थ

    १. (तं स्वराजम्) = उस स्वयं देदीप्यमान प्रभु को (इत्था) = सचमुच (घा ईम्) = निश्चय से (नमस्विन:) = नमस्कारवाले (उपासते) = उपासित करते हैं। २. (अस्य) = इस उपासक का (अर्थम) = प्राप्तव्य धन (चित्) = निश्चय से (सुथितम्) = सम्यक् स्थापित होता है। (यत्) = जो धन (एतवे) = जीवन के कार्यों को संचालित करने के लिए होता है और (दावने) = इस धन को वे हवि आदि देने के लिए (आवर्तयन्ति) = आवृत्त करते हैं, अर्थात् इस धन का वे सदा यज्ञों में विनियोग करते हैं।

    भावार्थ

    नमन से युक्त होकर हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें धन देते हैं। यह धन सदा उत्तम साधनों से कमाया जाए। जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए उपयुक्त किया जाता हुआ धन सदा दान में विनियुक्त हो।

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    भाषार्थ

    (इत्था) यह सत्य है कि उपासक (नमस्विनः) नमस्कार करते हुए (तं स्वराजम्) उस स्वयं ज्योतिस्वरूप परमेश्वर के (उप) समीप (घ) अवश्य (आसते) आसीन हो जाते हैं। (यत्) चूंकि (अस्य) इस परमेश्वर के दिये (सुधितम्) उत्तम-हितकारी (अर्थम्) प्राकृतिक और आध्यात्मिक धन को (एतवे) प्राप्त करके, वे उपासक, (दावने) दान के निमित्त उस धन का (आवर्तयन्ति) आवर्तन-प्रत्यावर्तन करते रहते हैं।

    टिप्पणी

    [नमस्कार तथा परमेश्वर से प्राप्त सांसारिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का दान—ये दो उपाय हैं परमेश्वर के समीप आसीन होने के। इत्था=सत्यम् (निघं০ ३.१०)।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (अस्य) इसके (सुधितम्) उत्तम रूप से सुरक्षित (अर्थम्) प्राप्य, परम कोश, आनन्दमय धन या परम पुरुषार्थ को (एतवे) पहुंचने के लिये उपासक लोग (दावने) आत्म समर्पण के निमित्त (यत्) जब जब (आवर्त्तयन्ति) पुनः पुनः ज्ञान और कर्म का अभ्यास करते हैं तब तब ही (नमस्विनः) नमस्कार करने वाले, उपासक जन (तं घ) उस (स्व राजम्) स्वतः प्रकाशमान परमेश्वर की ही (इत्था) इस प्रकार सत्य रूप में तब तब (उप असते) उपासना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Thus do yajnic and meditative souls holding havis for homage adore and worship self-refulgent Indra when, in order to realise the nature, character and generosity, indeed the very presence of the lord, they turn their self-controlled mind to the Divine Soul in order to reach him.

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    Translation

    The men devoting them in obeisance of Almighty Divinity for arriving at the destined aim of His attainment and surrendering their spirits in Him repeat their efforts too and thus enjoy the communion with Him.

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    Translation

    The men devoting them in obeisance of Almighty Divinity for arriving at the destined aim of His attainment and surrendering their spirits in Him repeat their efforts too and thus enjoy the communion with Him.

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    Translation

    Out of all these (i.e., human beings) the wise persons, lovers of Vediclore, performers of non-violent sacrifices, taking congenial food or doingsuitable acts, attain to the ancient andconstant place of shelter of the Almighty Father in accordance with their good efforts of the previous births.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(तम्) (घ) एव (ईम्) प्राप्यम् (इत्था) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (नमस्विनः) नमस्कारयुक्ताः (उप आसते) सेवन्ते (स्वराजम्) स्वयं राजानं शासकम् (अर्थम्) अरणीयं, प्रापणीयं धनम् (चित्) एव (अस्य) परमात्मनः (सुधितम्) सुष्ठु स्थापितम् (यत्) यदा (एतवे) एतुम्। प्राप्तुम् (आवर्तयन्ति) अभिमुखं वर्तमानं कुर्वन्ति (दावने) दानाय ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (তম্) সেই প্রসিদ্ধ (ঘ) কেবলমাত্র (ঈম্) প্রাপ্তিযোগ্য (স্বরাজম্) স্বরাজা-কে [যিনি স্বয়ং রাজা, সেই পরমেশ্বরকে] (ইত্থা) এরূপ (নমস্বিনঃ) নমস্কারকারী লোক (উপ আসতে) পূজা করে, (যৎ) যখন তাঁরা (অস্য) সেই [পরমাত্মার] (চিৎ)(সুধিতম্) উত্তম প্রকারে সংরক্ষিত (অর্থম্) প্রাপ্তিযোগ্য ধন (এতবে) প্রাপ্তির জন্য এবং (দাবনে) দানের জন্য [সেই পরমাত্মা]কে (আবর্তয়ন্তি) অভিমুখী করে ॥১৪॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মা স্বয়ং সকলের রাজা, সকলে সেই পরমেশ্বরের আজ্ঞা মান্য করে বিবিধ প্রকার ধন প্রাপ্ত করার মাধ্যমে সুপাত্রদের সাহায্য করে/করুক ॥১৪॥

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    भाषार्थ

    (ইত্থা) ইহা সত্য যে, উপাসক (নমস্বিনঃ) নমস্কার করে (তং স্বরাজম্) সেই স্বয়ং জ্যোতিস্বরূপ পরমেশ্বরের (উপ) সমীপে (ঘ) অবশ্যই (আসতে) আসীন/স্থিত হয়ে যায়। (যৎ) কেননা (অস্য) এই পরমেশ্বরের প্রদত্ত (সুধিতম্) উত্তম-হিতকারী (অর্থম্) প্রাকৃতিক এবং আধ্যাত্মিক ধন (এতবে) প্রাপ্ত করে, সেই উপাসক, (দাবনে) দানের জন্য সেই ধনের (আবর্তয়ন্তি) আবর্তন-প্রত্যাবর্তন করতে থাকে।

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