अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 18
नकि॒ष्टं कर्म॑णा नश॒द्यश्च॒कार॑ स॒दावृ॑धम्। इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैर्वि॒श्वगू॑र्त॒मृभ्व॑स॒मधृ॑ष्टं धृ॒ष्ण्वोजसम् ॥
स्वर सहित पद पाठनकि॑: । तम् । कर्म॑णा । न॒श॒त् । य: । च॒कार॑ । स॒दाऽवृ॑धम् ॥ इन्द्र॑म् । न । य॒ज्ञै: । वि॒श्वऽगू॑र्तम् । ऋभ्व॑सम् । अधृ॑ष्टम् । धृ॒ष्णुऽओ॑जसम् ॥९२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
नकिष्टं कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम्। इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्ण्वोजसम् ॥
स्वर रहित पद पाठनकि: । तम् । कर्मणा । नशत् । य: । चकार । सदाऽवृधम् ॥ इन्द्रम् । न । यज्ञै: । विश्वऽगूर्तम् । ऋभ्वसम् । अधृष्टम् । धृष्णुऽओजसम् ॥९२.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(कर्मणा) किसी भी कर्म द्वारा (नकिः) कोई भी नहीं (तम्) उस परमेश्वर की महिमा को (नशत्) प्राप्त कर सकता, (यः) जो परमेश्वर कि (सदावृधम्) सब की सदा वृद्धि (चकार) करता है। (विश्वगूर्तम्) विश्व में जिस का उद्यम हो रहा है, (ऋभ्वसम्) जो अतिप्रकाशमान है, (अधृष्टम्) जो अपराभवनीय है, और (धृष्णु ओजसम्) जिस का ओज सबका पराभव करता है, उस (इन्द्रम्) परमेश्वर की महिमा तक, (यज्ञैः) यज्ञ-यागादि द्वारा, (नकिः नशत्) कोई नहीं पहुँच सकता।
टिप्पणी -
[नशत् व्याप्तिकर्मा (निघं০ २.१८)। गूर्तम्=गुरी उद्यमने। ऋभ्वसम्=ऋभवः उरु भान्ति (निरु০ ११.२.१५); अथवा ऋभु+असम्=अतिप्रकाशमान सूर्यादि के प्रकाशों को भी परास्त करनेवाला है।]